हालिया दिनों में नक्सलवाद पर तीन फिल्में आई हैं। रामगोपाल वर्मा की रक्तध्वज, प्रकाश झा की चक्रव्यूह और विशाल भारद्वाज की मटरू की बिजली का मंडोला। चालाकी से ही, कारोबारी सीमाओं में रहते हुए इन फिल्मों ने नक्सलवाद (बॉलीवुड के लिए अछूत सब्जेक्ट) को अपनी कहानी में समेटने की कोशिश की है। या यों कहें कि नक्सलवाद या वमा रुझान भी अब बॉलीवुड की फिल्मों में एक बिकाऊ मसाला बनने की राह पर अग्रसर है। मेरी समझ में इसका स्वागत ही किया जाना चाहिए। क्योंकि बाजारूर उपन्यास के पाठक ही एक दिन गंभीर उपन्यास के पाठक भी बनते हैं। इसलिए कोई अजब नहीं कि कल इन वर्जित विषयों पर मेन स्ट्रिीम का सिनेमा गंभीर होकर फिल्में बनाने लगे। और उसे अपेक्षित बाजार भी मिले। लेकिन यहां बॉलीवुड के निर्देशकों से भी ईमानदारी की अपेक्षा होगी। ऐसा न हो कि वे बनाएं तो मसाला फिल्में (जो अब तक हो रहा है, मृगया जैसे इक्का-दुक्का प्रयासों को छोडक़र) लेकिन कहें कि यहीं मूल समस्या या मुद्दा है। इस कड़ी में पहला नाम प्रकाश झा का लिया जा सकता है। जिन्होंने चक्रव्यूह बनाई तो है बाजार को ध्यान में रखकर, लेकिन वे कहते कुछ और हैे। इस फिल्म में नक्सलवाद एक मुद्दे के रूप में फिल्म मेें हर उस फुटेज में पीछे छूटता नजर आता है जहां से बाजार का भय या जोखिम शुरू होता है। कैसे बता रहे हैं फिल्मों पर पैनी नजर रखने वाले दिलीप खान।

ये ज़रूर है कि फ़िल्म देखकर निकलने के बाद नक्सलियों (या फिर
माओवादियों- टीवी और प्रिंट मीडिया की तरह फ़िल्म ने भी इनको समानार्थी के तौर पर
इस्तेमाल किया है।) को शुद्ध आतंकवादी मानने वाले लोग एक बार सोचेंगे कि ये
बंदे सिर्फ़ हथियारबंद गिरोह भर नहीं है, बल्कि इनका कुछ राजनीतिक मकसद भी
है। (हालांकि इतना तो लोग जानते ही हैं।) सोचने को ये भी सोच सकते हैं कि या
तो ब्रेन वॉश से या फिर राज्य से एकाध घटनाओं में पीड़ित होने के बाद लोग माओवादी
बन जाते हैं जैसे कि जूही (अंजलि पाटिल) बनी। लाल सलाम को ‘ऑल इज़ वेल’ की तरह जुमला भी
बना सकते हैं।
बहरहाल, अभय देओल को आज़ाद ख़याल पात्र के तौर पर शुरू से फ़िल्म में
दिखाया गया है। पुलिस में रहता है, लेकिन कायदा नहीं मानता। सही लग रहा है तो ठीक
है वरना बग़ावत कर देगा। भविष्य की बिना कोई ठोस योजना रखने वाला इनसान है कबीर। इमोशनल
क़िस्म का। इसी इमोशन की वजह से माओवादियों के बीच पुलिस की मुखबिरी करने पहुंचा
कबीर, थोड़े-बहुत कनफ़्यूजन के साथ माओवादी बन जाता है। बहुत बाद तक वो तय नहीं कर
पाता कि असल में है वो किस ओर! मामले को इस रूप
में दिखाया गया है कि देश के ज़्यादातर लोग चूंकि माओवादियों से बावस्ता नहीं है
तो ‘टच’ में जाने के बाद ही
वो उनसे प्रभावित हो सकते हैं। यानी राजनीति को ऐसी सब्जेक्टिविटी का मामला बनाया
गया है कि जहां समय गुजारो वहीं का होकर रह जाओ! कबीर
की पूरी बनावट ही फ़िल्म में इसी तरह की है। रोमेंटिसिज़्म वाली।
अभय देओल ने अभिनय अच्छा किया है लेकिन अंजलि पाटिल ने कमाल का काम
किया है। मनोज बाजपेयी भी जमे हैं और ओम पुरी भी। अर्जुन रामपाल (एसपी आदिल ख़ान)
अभिनय नहीं सीख पाएंगे इस स्थापना को उन्होंने चक्रव्यूह में पुख़्ता किया है।
रिया मेनन (ऐशा गुप्ता) नामक पात्र की ज़रूरत नहीं थी, ग्लैमर के लिए प्रकाश झा ने
उसे रच लिया, ठीक उसी तरह जैसे कुंडा खोल आइटम सॉन्ग रचा। स्क्रिप्ट में कई
जगह ऐसी व्यावसायिक मजबूरी झलकती है गोया बाद में बीच-बीच में कुछ जोड़ा-घटाया गया
हो। गानों के मामले में ख़ास तौर से ये बात कही जा सकती है। अभय देओल पर महंगाई
वाला गाना फ़िल्माना था तो उससे ठीक पहले वाले दृश्य में तिरपाल के नीचे रात में उसे
‘राग भैरवी’ गाते दिखा दिया। कैलाश
खेर की जगह किसी नई आवाज़ को जगह देते तो गाने में रंग आता। कैलाश खेर की आवाज़
में कहीं से उस मिट्टी की खुशबू नहीं आ रही है जहां पर इसे फ़िल्माया गया है। टाटा-बिड़ला,
अंबानी-बाटा वाला यह गाना प्रचार के लिए बेहद ज़रूरी था, सो एक तरह से इसे ‘फिट’ कर दिया गया। शहरी
कबीर अचानक माओवादियों के बीच पहुंचने के अगले ही दिन लोकगीत की शैली में गाने
लगता है। फ़िल्म यह बताती है कि कबीर के रखने से कम से कम गाने-बजाने वाला कोई मिल
जाएगा। यानी कबीर मुख्य गायक की ज़िम्मेदारी निभाता है। उसके गले से ऑटोमैटिक फूटता
लोकगीत गले नहीं उतरता।
एक लाइन में कहें तो फ़िल्म ‘सैंडविच थ्येरी’ का विस्तार है। माओवादियों और राज्य के बीच
पिसती जनता पर मध्यांतर से पहले सबसे ज़्यादा ज़ोर है। लेकिन, कुछ तथ्यों को
फ़िल्म में इस तरह इस्तेमाल किया गया है कि लोग गफ़लत में पड़ सकते हैं। मिसाल के
लिए नाम की साम्यता बैठाने के लिए अभय देओल को कॉमरेड आज़ाद बना दिया गया है। यानी
कबीर ने पुलिस की मुखबिरी से कॉमरेड आज़ाद तक का सफ़र तय किया। वास्तविक दुनिया
में जिन लोगों ने आज़ाद का नाम सुन रखा है उनके मन में यह धारणा पुख़्ता होगी। शुरुआती
दृश्य में ओम पुरी के वकील और मानवाधिकार कार्यकर्ता के तौर पर जिस व्यक्ति को
दिखाया जाता है बाद में उसी से कॉमरेड राजन (मनोज वाजपेयी) को सलाह लेते दिखाया
जाता है। यानी मानवाधिकार कार्यकर्ता और माओवाद जैसे मामले का केस लड़ने वाले लोग
असल में फेस सेविंग प्रोफ़ेशन के तौर पर ऐसा काम करते हैं लेकिन होते हैं पार्टी
कैडर ही!
कमज़ोरी
और चालाकी के कई और उदाहरण हैं। मसलन, एसपी स्तर का पुलिस
अधिकारी ईमानदार और सच्चाई व वर्दी की मांग को पूरा करने वाले होते
हैं।(छत्तीसगढ़ के कल्लूरी और राष्ट्रपति पदक विजेता अंकित गर्ग को याद
कीजिए)।
माओवादी नेता के बदले व्यवसायी बच्चे की अदला-बदली महज पुल के इस पार-उस
पार वाला
मामला है! फ़िल्म में माओवाद पर कुछ बेसिक रिसर्च छूटता
दिखता है। फ़िल्म बताती है कि स्थानीय पुलिस बंद दरवाज़ों के भीतर रहने वाली जीव
है और माओवादियों के नाम पर मुठभेड़ में कभी-कभार ‘निर्दोष
लोग’ सिर्फ़ मारे जाते हैं वरना फ़र्जी गिरफ़्तारियां
तो होती ही नहीं। सल्वा जुडूम कॉरपोरेट समर्थित संगठन है और राज्य का इससे कोई
वास्ता नहीं है! फ़िल्म तो आपको यही बताती है कि सल्वा जुडूम को
महंता ने पैदा किया और मुख्यमंत्री महोदय की इसमें कोई भूमिका नहीं है। (..लगे
हाथों सल्वा जुडूम पर सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला याद कीजिए)। फ़िल्म के आख़िर में ओम
पुरी (प्रकाश झा के मुताबिक़ कोबाड गांधी से प्रभावित पात्र) माओवादियों का सबसे
बड़ा (मेंटर) नेता बन जाता है। आजतक और दैनिक भास्कर फ़िल्म में बार-बार आते हैं
और शायद इसलिए फ़िल्म में कहीं भी उन इलाकों में मीडिया के कॉरपोरेट हितों को नहीं
दिखाया गया है। मीडिया पार्टनर बनकर भास्कर ने अच्छा किया...पूरा मामला महंता तक
ही सीमित रह गया और फ़िल्म में डीबी कॉर्प जैसे पावर प्लांट लगाने वाली कंपनियों का
नामोनिशान तक नहीं दिखा। अंत तो बेहद नाटकीय है। रिया मेनन कबीर को गोली मारती
है...आदिल ख़ान रोता है, फ़िल्म ख़त्म हो जाती है। फिर दो लाइन का वॉयस ओवर उभरता
है कि देश में कितने लोग ग़रीब है और कितने लोग अमीर!
....लेकिन इन सबके बावजूद अगर पांच-दस ऐसी फ़िल्में बनती हैं, तो माओवाद को लेकर मध्यवर्ग की जमी-जमाई धारणा डिगेगी। सिनेमा हॉल में फ़िल्म ख़त्म होते ही कुछ लोग अपने विश्वास की डोर को मांझा देने के लिए आपस में गुफ़्तगू करने लगे, यू नो, कुछ भी हो बट कम्युनिज़्म इज़ ए फ़्लॉप शो। तो ये ज़रूर है कि दिल्ली वालों को छत्तीसगढ़ की एक (अधूरी, तोड़ी-मरोड़ी ही सही) झलक मिली, सिर्फ़ इस लिहाज़ से फ़िल्म को देखने की सलाह दूंगा। प्रकाश झा की यही चालाकी है। आप आलोचनात्मक भले ही हो जाइए लेकिन देखने की सलाह भी लगे हाथों ठोक जाइए।
(दखल की दुनिया ब्लाग से कट पेस्ट)