यूं भगाएं फिल्म बनाने के डर को

कुछ जज्बेधारी, फिल्मों को एजुकेशनली देखते हैं। मरने से पहले खुद भी एक-दो फिल्म तो बनाकर ही मरना चाहते हैं। पर इनके सपनों और कहानियों का दम ये सोचते ही घुट जाता है कि बनाने के लिए बड़े कैमरे कहां से लाएंगे? सैंकड़ों लोगों की क्रू को महीनों तक कैसे देखेंगे-भालेंगे? प्रॉड्यूसर भला कौन बनेगा? फिर डिस्ट्रीब्यूटर और पब्लिसिटी के लफड़े। मतलब ऐसे प्रोसेस से कैसे पार पाएंगे? ... लेकिन बहुतों ने बहुतेरे तरीकों से फिल्में बनाकर फिल्ममेकिंग प्रोसेस के डरावने कोड को तोड़ा है।

मूलत: डॉक्युमेंट्री बनाने वाले नील माधव पांडा की फिल्म ‘आई एम कलाम’ की बात करते हैं। उन्होंने शूटिंग बीकानेर के भैंरू विलास में की। यहां एक्सीलेंट साज-ओ-सामान और लुक वाली सैंकड़ों हवेलियां हैं। औसत खर्चे में रुककर शूटिंग कर सकते हैं। लोकल आर्टिस्ट, ऊंटगाड़े और उम्दा लोकसंगीत आसानी से मिल जाते हैं। लोकेशन की बात करें तो यहां रेगिस्तानी लैंडस्केप में कैमरा किधर भी पैन करें एक अच्छा खासा शॉट बन जाता है। राजस्थान समेत देश के बाकी दूसरे राज्यों में भी ऐसी जगहें, म्यूजिक और ऑप्शन हैं। मतलब ये कि कम बजट, लोकेशन चुनने की स्मार्ट चॉयस और सिंपल स्टोरीटेलिंग से एक सार्थक और कमर्शियल फिल्म यूं बन जाती है।

अमेरिका में जितनी भी जॉम्बी (मृत दिमाग वाली चलती-फिरती खूनी लाशें) मूवीज बनी हैं उन्हें देखकर लगता है कि करोड़ों के बजट और बड़े स्टूडियोज की बैकिंग के बगैर ऐसी मूवी नहीं बना सकते। मगर मार्क प्राइस ने 2008 में बनाई। 18 महीनों में बनी 'कॉलिन' को मार्क ने स्टैंडर्ड डैफिनिशन वाले पैनासॉनिक मिनी-डीवी कैमकॉर्डर से शूट किया और एडिटिंग अपने होम पीसी पर की। इसके लिए उन्होंने एडोब प्रीमियर सॉफ्टवेयर इस्तेमाल किया। प्रमोशन के लिए उन्होंने फेसबुक और माइस्पेस का सहारा लिया। सृष्टि का न्याय देखिए, 2009 के कान फिल्म फेस्ट में 45 पाउंड की ‘कॉलिन’ की स्क्रीनिंग 750 लाख पाउंड की थ्रीडी फिल्म ‘अप’ के साथ हो रही थी।  
 आकांक्षी फिल्ममेकर्स को राह अब भी मुश्किल लगती है तो रामगोपाल वर्मा की 1999 में आई छोटी सी हॉरर मास्टरपीस ‘कौन’ की मिसाल लेते हैं। मनोज वाजपेयी, उर्मिला और सुशांत सिंह.. मोटा-मोटी बस तीन लोगों की कास्ट थी। कोई गाना भी नहीं था। बस अनुराग कश्यप की तरह आप भी अच्छी स्क्रिप्ट लिख लें और रामगोपाल जैसी स्मार्ट निर्देशकीय समझ लेकर चलें। पिछले साल मार्च में रिलीज हुई अपनी तेलुगू फिल्म ‘डोंगाला मुथा’ में भी रामू ने ये प्रयोग किया था। सिर्फ पांच दिनों में सात लोगों की क्रू के साथ उन्होंने फिल्म बनाई और ये बड़ी हिट रही। इसमें कैनन के हैंड हैल्ड कैमरा यूज हुए थे। मतलब ये भी एक फॉर्मेट है।

चिंता अगर लंबे शेड्यूल की है तो वो भी व्यर्थ है। ऋषिकेश मुखर्जी की राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन को लेकर बनाई कल्ट फिल्म ‘आनंद’ महज 20 दिन में शूट हो गई थी। सनी देओल जैसे बड़े स्टार की ‘मोहल्ला 80’ भी दो महीने के सीधे शेड्यूल में शूट हुई है। कारण रहे, स्क्रिप्ट पर अनुशासित मेहनत, सीधी कहानी और चंद्रप्रकाश द्विवेदी के निर्देशन की स्पष्टता। एक बार राजकुमार हीरानी ने कहा था कि उनकी ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’-‘लगे रहो मुन्नाभाई’ फिल्मों में कोई एक्स्ट्रा रील खर्च नहीं हुई थी। राजू अपने सीन्स पर होमवर्क इतना अच्छे से करते हैं कि एक भी ऐसा सीन शूट नहीं करना पड़ता जिसे एडिटिंग में काटना पड़े। तो ये सबक भी है।

पिछले साल सरताज सिंह पन्नू नाम के युवा ने भी 'सोच लो' जैसी अच्छी फिल्म बनाई थी। शूटिंग जैसलमेर की पथरीली सुंदर लैंडस्केप पर की। चूंकि फिल्म बनानी थी और खुद की कोई ट्रेनिंग नहीं थी इसलिए एक चतुराई बरती। एफटीआईआई के ताजा ग्रेजुएट्स, डायरेक्टर ऑफ फोटोग्रफी और टेक्नीशियंस को हायर किया। प्रॉडक्शन के लिए खुद की कंपनी सन इंटरनेशनल बना डाली। सार्थक दास गुप्ता ने अपनी अच्छी भली लाखों की पैकेज वाली कॉरपोरेट जॉब छोड़ दी और 2009 में 'द ग्रेट इंडियन बटरफ्लाई' बनाई। फिल्म की एब्सट्रैक्ट थीम पति-पत्नी के रिश्ते के इर्द-गिर्द घूमती थी। क्रिटीकली बहुत सराही गई। उनकी भी कोई ट्रेनिंग नहीं थी। पर सपना पूरा कर लिया।

एजुकेशनली फिल्में देखने और उन्हें बनाने के सपने पूरे कर डालने में पीटर जैक्सन (बैड टेस्ट), रॉबर्ट रॉड्रिग्स (अल मारियाची) और ओरेन पेली (पैरानॉर्मल एक्टिविटी) जैसे नाम भी आप फॉलो करेंगे तो बहुत प्रोत्साहित होंगे।
फिल्म में दिखने वाले तकरीबन 100 जॉम्बी कैरेक्टर मार्क के दोस्त हैं और उनके हाथों में दिखते हथियार भी सब अपने-अपने घरों से लाए थे। मेकअप और एनिमेशन के लिए उन्होंने बहुत से ऐसे प्रफेशनल्स को मेल और खत भेजे। मार्क ने लिखा था कि फिल्म के लिए वह मेकअप का सामान और इंस्ट्रूमेंट भी नहीं मुहैया करा सकते। आर्टिस्टों को खुद लाना होगा। बस हर एनिमेटर और मेकअप आर्टिस्ट को अपनी मर्जी का जॉम्बी बनाने की छूट होगी। बदले में उन्हें फिल्म क्रेडिट और अपने पोर्टफोलियो में लगाने के लिए फिल्म की फुटेज मिलेगी।

हर अड़चन अनूठेपन और मौलिकता से दूर करें

  • देश के अंदरुनी इलाकों में शानदार लोकेशंस हैं, जो बेहद सस्ती हैं।
  • स्टैंडर्ड डैफिनिशन के मिनी डीवी कैमकॉर्डर से भी शूट कर सकते हैं।
  • लिट्रेचर या लोककथाओं पर आधारित टाइट स्क्रिप्ट रच सकते हैं। स्क्रिप्ट मजबूत है तो मतलब आधी फिल्म बन गई।
  • म्यूजिक के लिए एमेच्योर बैंड्स या लोक संगीत-गायकों की मदद लें।
  • एफटीआईआई-एनएसडी जैसे संस्थानों के स्टूडेंट्स से मदद ले सकते हैं। अपने दोस्तों या आसपास के जानकार लोगों से एक्टिंग करवा सकते हैं। ईरानी फिल्मों में गैर-पैशेवर एक्टर्स बहुत सफलता से फिट होते हैं।
  • फिल्म का प्रचार करने के लिए सोशल नेटवर्किंग साइट्स का सहारा ले सकते हैं। कई वेब पोर्टल तो पूरी तरह नए युवा फिल्मकारों को प्रमोट करने के जज्बे के साथ ही निशुल्क काम कर रहे हैं, उनसे संपर्क किया जा सकता है। मुख्यधारा के हिंदी और अंग्रेजी अखबारों में भी सिनेमा की बेहतरी और युवा फिल्मकारों की सहायता को आतुर पत्रकार हैं। उनके ब्लॉग, पर्सनल साइट, मेल पर संपर्क कर सकते हैं। मदद मिलेगी ही।
  • बाहर दर्जनों नामी फिल्म फेस्ट होते हैं, वहां अपनी फिल्म की डीवीडी मेल कर सकते हैं, उनसे संपर्क कर सकते हैं, जा सकते हैं। वहां सराहा जाने पर आत्मविश्वास दस-बीस गुना बढ़ जाता है।
अगर फिल्म मनोरंजन के पैमानों पर खरी उतरती है तो वितरकों और बड़े प्रॉड्यूसर्स से संपर्क कर सकते हैं। जैसे लॉर्ड ऑफ द रिंग्स फेम डायरेक्टर पीटर जैक्सन ने अपनी पहली (दोस्तों के साथ ऐसे ही जज्बे के साथ बिना संसाधनों और ट्रेनिंग के बनाई) ही फिल्म बैड टेस्ट (1987) बनाकर किया था। शॉर्ट फिल्म से 90 मिनट की फिल्म में तब्दील होने के बाद इसे न्यूजीलैंड के फिल्म कमीशन की वित्तीय मदद भी मिली। अंततः कान फिल्म समारोह में नजरों में चढ़ी ये फिल्म 12 मुल्कों में प्रदर्शन के लिए खरीद ली गई। 

---और ये रही नए निर्देशकों की बाढ़


भारतीय फिल्म उद्योग में बीते दो-तीन साल से नए निर्देशकों की संख्या में इजाफा हुआ है। ये फिल्मकार अभिनव कहानियों, अलहदा विषयों और सिनेमा की नई भाषा गढऩे वाली फिल्में बना रहे हैं। आने वाले दिनों में उड़ान, मिस्टर सिंह ऐंड मिसेज मेहता, पीपली लाइव, सोच लो, आई हेट लव स्टोरीज, धोबी घाट, सालों, दबंग, दूसरी लाइफ में और लव यू मिस्टर कलाकार जैसी फिल्मों से ऐसे ही युवा फिल्म निर्देशकों और कलाकारों का प्रवेश हो रहा है। वहीं अ वेडनसडे, वेक अप सिड, इश्किया, आमिर, हरिश्चंद्राची फैक्टरी और रोड़ टू संगम जैसी फिल्मों का निर्देशन भी पहली बार के निर्देशकों ने ही किया है। क्या आज फिल्म बना पाना आसान हो गया है? अगर हां, तो इसके कारण क्या हैं? पेश है ऐसे ही कुछ सवालों के जवाब ढूंढ़ती एक रिपोर्ट

विक्रमादित्य मोटवाने की फिल्म उड़ान एक लड़के रोहन की कहानी है, जो आठ साल बाद बोर्डिंग स्कूल से अपने घर जमशेदपुर लौटा है। घर में उसका दबंग पिता और एक छोटा सौतेला भाई है।इस भाई की मौजूदगी से अभी तक वह अंजान था। रोहन का सपना लेखक बनना है। बावजूद इसके उसे इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने और अपने पिता की स्टील फैक्टरी में काम करने को मजबूर होना पड़ता है।

अब क्या रोहन लेखक बनने के अपने सपने को पूरा कर पाएगा या उसे ताउम्र इसके लिए इंतजार करना पड़ेगा? इसका जवाब तो खैर 15 जुलाई को फिल्म रिलीज होने पर ही मिलेगा, लेकिन फिल्म के निर्देशक विक्रमादित्य और उन्हीं की तरह कई ऐसे युवा फिल्मकार हैं, जिनका अपनी पहली फिल्म निर्देशित करने का ख्वाब इन दिनों पूरा हो गया है। फिल्म निर्माण के परिप्रेक्ष्य से क्या यह एक अलग बदलाव है?

उड़ान का निर्माण यूटीवी मोशन पिक्चर्स और अनुराग कश्यप ने मिलकर किया है। फिल्म को 63वें कान फिल्मोत्सव में अन सर्टेन रिगार्ड श्रेणी में भी चुना गया। यह सम्मान सात साल बाद किसी भारतीय फिल्म को मिला है। विक्रमादित्य बताते हैं, 'उड़ान की कहानी को मैंने सात साल पहले लिखा था। वह वक्त बहुत कठिन था। फिल्म बनाने के लिए लोगों से मिलना मुश्किल था। कोई नतीजे नहीं निकल रहे थे।

मगर पिछले दो-तीन साल में बदलाव आया है। मल्टीप्लेक्स नए फिल्मकारों को बराबरी की जमीन मुहैया करवा रहे हैं। अब पहले की तरह कोई हाउसफुल वाली बात नहीं रह गई है और फिल्मों का अर्थतंत्र भी युवा फिल्मकारों के पक्ष में हुआ है। इस पर अन्य युवा फिल्मकारों की भी अपनी राय है। युवा फिल्म निर्देशक प्रवेश भारद्वाज की पहली फिल्म 'मिस्टर सिंह ऐंड मिसेज मेहता 25 जून को सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई।

इस परिवर्तन पर प्रवेश कहते हैं, 'बतौर निर्देशक डेब्यू करने वालों की संख्या पिछले पांच साल में बढ़ी है। इस दौरान फिल्म निर्माण की मात्रा बढ़ गई है। बड़े फिल्म स्टार और बड़े फिल्म निर्देशक नामी निर्माण कंपनियों के साथ ही काम करते हैं। इस बीच फिल्म निर्माण की जो मात्रा बढ़ी है उसका क्या? फिल्में बनाने के लिए नए निर्देशकों और लोगों की जरूरत है।

  फिल्म द ग्रेट इंडियन बटरफ्लाई के निर्देशक सार्थक दासगुप्ता का मानना है कि यह फर्क मांग और पूर्ति में आए बदलाव से आया है। सार्थक बताते हैं, 'फाम्र्युला बॉलीवुड में लोग काफी पैसा खो चुके हैं। ऐसे में नए और ताज़ा सिनेमा में नए आकांक्षी फिल्मकारों को मौका मिल रहा है। यह सब धीरे-धीरे हुआ है। एक ऐसा स्पेस बना है जहां ओल्ड स्कूल ऑफ फिल्ममेकिंग काम नहीं कर रहा है।

बस इतना ही। नए फिल्मकारों के साथ कम बजट में फिल्म बनाने से निर्माताओं के माथे से बोझ हट जाता है। मगर इससे ये फिल्में कम गुणवत्ता या कम मनोरंजन वाली नहीं हो जाती है। अगर ऐसा ही होता तो अनुराग कश्यप और विशाल भारद्वाज की फिल्में इतनी लोकप्रिय और शानदार क्यों होती? सार्थक कहते हैं, 'फिल्म के लिए पहले मेरे पास 50 लाख रुपये थे और फिर बजट एक करोड़ रुपये तक पहुंचा। धन एक कारण तो होता है। मैं अपनी फिल्म को ढंग से रिलीज नहीं कर पाया। अगर ऐसा हो पाता तो नतीजे बेहद जुदा होते।

यूटीवी के बैनर तले 2008 में प्रदर्शित हुई बेहद सफल फिल्म 'अ वेडनसडेÓ का निर्देशन नीरज पांडे ने किया। अपनी पहली ही निर्देशित फिल्म से नीरज ने काफी तारीफें बटौरी।  यूटीवी के विकास बहल बताते हैं, '3-4 करोड़ रुपये वाली फिल्म का मतलब फिल्म की गुणवत्ता से समझौता करना नहीं है। अगर अ वेडनसडे में 20 फीसदी धन और लगाते तो, यह एक सही फैसला नहीं साबित हो पाता।

अमेरिकी फिल्म पैरानॉर्मल एक्टिविटी को उसके निर्देशक ऑरेन पेली ने पारंपरिक फिल्म कैमरा और बड़े बजट में नहीं बनाया। करीब 15,000 डॉलर के मामूली बजट में बनी इस फिल्म ने कुछ हद तक हॉलीवुड के फिल्म निर्माण के सूत्रों को पलट दिया। फिल्म ने सिर्फ अमेरिका के बॉक्स ऑफिस में ही 10 करोड़ डॉलर से ज्यादा की कमाई की। इसकी सकल आय 19 करोड़ डॉलर से ज्यादा रही।

तो क्या इसमें हमारे युवा फिल्मकारों की कम बजट वाली फिल्मों के विश्लेषण छुपे हैं। विकास कहते हैं, 'देखिए, पैरानॉर्मल एक्टिविटी और हैंगओवर जैसी फिल्मों की सफलता वैसी ही है, जैसी भारत में देव डी, आमिर और अ वेडनसडे की सफलता है। इसका एक ही मतलब है कि लोग अच्छी और ताज़ा कहानियों वाली फिल्मों के भूखे हैं। और, ऐसी फिल्में कम बजट में भी आसानी से बनाई जा सकती हैं।

इन नए फिल्म निर्देशकों के ख्वाब पूरे हो रहे हैं, मगर फिल्म बनाने तक के सफर में इन फिल्मकारों की श्रेणियां क्या अलग-अलग हो जाती है? विक्रमादित्य ने 1998 में फिल्म जगत में प्रवेश किया। हम दिल दे चुके सनम (1999) और देवदास (2002) में उन्होंने संजय लीला भंसाली के सहायक के तौर पर काम किया। उन्होंने दन दना दन गोल और देव डी की पटकथा भी लिखी।

करीब 12 साल के बाद उनकी पहली फिल्म उड़ान बनकर तैयार हुई है। प्रवेश ने श्याम बेनेगल, गुलजार और गोविंद निहलानी के सहायक के तौर पर काम किया। शुरुआती दिनों में प्रवेश टेलीविजन से भी जुड़ेे। प्रवेश बताते हैं, 'मैं मुंबई में आया तो किसी को नहीं जानता था। अगर मुंबई का होता या किसी फिल्मी परिवार से ताल्लुक रखता, तो मुझे इतना संघर्ष नहीं करना पड़ता।

सार्थक मुंबई के ही रहने वाले हैं, मगर पुणे के सिंबयोसिस संस्थान से उन्होंने एमबीए किया। कोई फिल्मी प्रशिक्षण नहीं, कोई फिल्मी पृष्ठभूमि नहीं। सार्थक कहते हैं, 'मैं पुणे फिल्म संस्थान के अपने दोस्तों प्रीतम और शंकर रामन के साथ घूमा करता था। प्रीतम अब संगीत निर्देशक हैं और शंकर रामन ने काफी सराही गई फिल्म फ्रोजन और मेरी फिल्म द ग्रेट इंडियन बटरफ्लाई में छायांकन किया। फिर मुंबई में उनसे मिला। मुझे तकनीकी ज्ञान न था। मैंने खुद सीखा और आगे बढ़ता रहा।

युवा फिल्मकारों में सरताज सिंह पन्नू की कहानी सबसे जुदा है। सरताज अमृतसर के निशारा पनुआ गांव के रहने वाले हैं। उनकी पहली फिल्म सोच लो अपने नाम की तरह प्रोमो में काफी प्रभावी नजर आती है। फिल्म बनाने के लिए उन्होंने सन इंटरनेशनल नाम से निर्माण कंपनी बनाई। धन जुटाने के नए तरीके इजाद किए। सरताज बताते हैं, 'मैंने 15 लाख रुपये से शुरुआत की। अपनी कार बेच दी।

पहले शेड्यूल के बाद फिल्म को यू ट्यूब पर डाला और लोगों से मदद मांगी। यह हिस्सा लोगों को बहुत पसंद आया और वित्तीय सहायता के साथ लोग आगे आए। सरताज ने मुताबिक उन्होंने अपनी फिल्म को कान फिल्मोत्सव में भेजा था। मगर किसी का सहयोग नहीं होने के कारण पूरी फिल्म मांगी जाने पर भेज नहीं पाए। आत्मïिवश्वास से लबरेज सरताज बताते हैं, 'सोच लो में काम करने के बाद फिल्म के फोटोग्राफी निर्देशक (डीओपी) को 6 फिल्में मिली हैं। हमारे संगीत निर्देशक को भी 2 फिल्मों और फिल्म के दूसरे हीरो को 4 फिल्मों का ऑफर मिला है। सोच लो 20 अगस्त को रिलीज होगी। सरताज कहते हैं कि इसे 150 प्रिंट समेत अंतरराष्ट्रीय बाजार में भी लॉन्च किया जाएगा।

 इन नए फिल्म निर्देशकों में कई ऐसे हैं, जिनकी पहली फिल्म का निर्माण बड़े प्रोडक्शन हाउस कर रहे हैं। राजश्री प्रोडक्शंस के उपाध्यक्ष (वीपी) पी के गुप्ता बताते हैं, 'हमने नए निर्देशकों के साथ दो फिल्में शुरू की हैं। फिल्म 'इसी लाइफ में का निर्देशन विधि कासलीवाल कर रही हैं। विधि सूरज बडज़ात्या के साथ उनकी फिल्म विवाह और एक विवाह ऐसा भी में सहायक के तौर पर काम कर चुकी हैं। इसी लाइफ में साल के अंत में नवंबर-दिसंबर में रिलीज हो सकती है। दूसरी फिल्म का शीर्षक 'लव यू मिस्टर कलाकार है। तुषार कपूर और अमृता राव के अभिनय वाली इस फिल्म के निर्देशक एस. मनस्वी हैं। इस फिल्म के अगले साल मार्च-अप्रैल तक रिलीज होने की संभावना है।

 आमिर खान प्रोडक्शंस पीपली लाइव और धोबी घाट का निर्माण कर रहे हैं। पीपली लाइव से अनुषा रिजवी अपनी पहली फिल्म का निर्देशन कर रही हैं। पीपली के किसानों की आत्महत्या और उस पर मीडिया व राजनीति के पहलुओं को लेकर एक व्यंग्यात्मक कहानी पर यह फिल्म बनाई गई है। धोबी घाट का निर्देशन आमिर खान की पत्नी किरण राव कर रही हैं। यह उनकी भी पहली फिल्म है। करण जौहर आई हेट लव स्टोरीज का निर्माण कर रहे हैं।


इसका निर्देशन नए फिल्मकार पुनीत मल्होत्रा ने किया है और इसमें इमरान खान और सोनम कपूर मुख्य भूमिकाओं में हैं। अनुराग कश्यप के छोटे भाई अभिनव कश्यप अपनी पहली फिल्म दबंग का निर्देशन कर रहे हैं। सलमान खान और सोनू सूद के अभिनय वाली इस फिल्म का निर्माण अरबाज खान ने किया है। प्रीतीश नंदी कम्युनिकेशंस के निर्माण में बनी फिल्म सालों फिलहाल अंतरराष्ट्रीय फिल्मोत्सवों की यात्रा पर है। इसके निर्देशक निखिल नागेश भट्ट हैं। यह उनकी पहली फिल्म है। 
फिर ऐसा क्यों है कि इन सभी नए निर्देशकों की फिल्मों का बजट ज्यादा नहीं है। हालांकि इन सभी का मानना है कि बजट चाहे जो भी रहा हो उन्होंने अपने मन की फिल्में बनाई है। प्रवेश भारद्वाज कहते हैं, 'ऐसा लगता जरूर है कि बजट 10 फीसदी ज्यादा होता तो बेहतर लोकेशन पर जा सकते थे, कुछ प्रयोग कर सकते थे। मगर यह रोना-धोना तो लगा ही रहता है, मैं फिल्म से खुश हूं। विक्रमादित्य मोटवाने के मुताबिक, 'मेरे पास ज्यादा धन होता तो मैं फिल्म में काम करने वालों को ज्यादा दे पाता।
लोग अलग फिल्में देखने लगे हैं। युवाओं की रुचि टीवी, थियेटर और इससे आगे पहुंची है। विश्व सिनेमा के रूप में नया खून मुंह लगा है। साथ ही ऐसी तकनीकी आ रही है, जो सस्ती है। द गे्रट इंडियन बटरफ्लाई सार्थक की पहली फिल्म है। यूटीवी के चीफ क्रिएटिव ऑफिसर विकास बहल भी इन बातों से इत्तेफाक रखते हैं। विकास के मुताबिक, 'फिल्म निर्माण की मात्रा और विषय वस्तु इतनी बढ़ गई है कि हमें नई प्रतिभा तो चाहिए।
लोग ज्यादा फिल्में देख रहे हैं। स्टूडियो भी नए निर्देशकों को ले रहे हैं। मल्टीप्लेक्स और ढांचागत सुधारों से भी तो ऐसा हुआ है। पहले एकल परदे वाले सिनेमाघर थे और वे भी दूर-दराज, जबकि अब एक ही मल्टीप्लेक्स में आप 4-5 फिल्मों को देख सकते हैं। इन सभी फिल्मों के विषय और प्रस्तुतियां अभिनव हैं। साथ ही बदलाव की बातें भी की जा रही हैं।
(पहला लेख गजेंद्र सिंह भाटी के ब्लाग फिल्म सिनेमा से और दूसरा बिजनेस स्टैंडर्स से कॉपी पेस्ट)