अभिषेक श्रीवास्तव
वह सवेरे से ही स्टेशन पर हमारा इंतज़ार कर रहा था जबकि हमारी ट्रेन दिन के ढाई बजे वहां पहुंची। गले में गमछा, एक सफेद टी-शर्ट, पैरों में स्पोर्ट्स शू और जींस, कद कोई पांच फुट पांच इंच, छरहरी काया और रंग सांवला। तीनपहिया ऑटो में बैठते ही मेरे हमनाम पत्रकार साथी ने पहला सवाल दागा था, ‘‘क्या यहां जानवर हैं?’’ ‘‘हां, है न! बाघ, भालू, सांप, जंगली सुअर, सब है।’’ साथी ने जिज्ञासावश दूसरा सवाल पूछा, ‘‘काटता भी है?’’ वह हौले से मुस्कराया। बीसेक साल के किसी नौजवान के चेहरे पर ऐसी परिपक्व मुस्कराहट मैंने हाल के वर्षों में शायद नहीं देखी थी। मुझे अच्छे से याद है, उसने कहा था, ‘‘वैसे तो नहीं, लेकिन सांप को छेड़ोगे तो काटेगा न!’’ अपनी कही इस बात की गंभीरता को वह कितना समझ रहा था, मैं ठीक-ठीक नहीं कह सकता लेकिन वहां से लौट कर आने के दो दिन बाद जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के युवा संस्कृतिकर्मी हेम मिश्रा की गिरफ्तारी की खबर आई। समझ आया कि सांप आजकल बिना छेड़े भी काटता है। क्या इसे नियमगिरि और गढ़चिरौली में होने का फर्क माना जाए?
वह सवेरे से ही स्टेशन पर हमारा इंतज़ार कर रहा था जबकि हमारी ट्रेन दिन के ढाई बजे वहां पहुंची। गले में गमछा, एक सफेद टी-शर्ट, पैरों में स्पोर्ट्स शू और जींस, कद कोई पांच फुट पांच इंच, छरहरी काया और रंग सांवला। तीनपहिया ऑटो में बैठते ही मेरे हमनाम पत्रकार साथी ने पहला सवाल दागा था, ‘‘क्या यहां जानवर हैं?’’ ‘‘हां, है न! बाघ, भालू, सांप, जंगली सुअर, सब है।’’ साथी ने जिज्ञासावश दूसरा सवाल पूछा, ‘‘काटता भी है?’’ वह हौले से मुस्कराया। बीसेक साल के किसी नौजवान के चेहरे पर ऐसी परिपक्व मुस्कराहट मैंने हाल के वर्षों में शायद नहीं देखी थी। मुझे अच्छे से याद है, उसने कहा था, ‘‘वैसे तो नहीं, लेकिन सांप को छेड़ोगे तो काटेगा न!’’ अपनी कही इस बात की गंभीरता को वह कितना समझ रहा था, मैं ठीक-ठीक नहीं कह सकता लेकिन वहां से लौट कर आने के दो दिन बाद जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के युवा संस्कृतिकर्मी हेम मिश्रा की गिरफ्तारी की खबर आई। समझ आया कि सांप आजकल बिना छेड़े भी काटता है। क्या इसे नियमगिरि और गढ़चिरौली में होने का फर्क माना जाए?
लांजीगढ़ में वेदांता कंपनी का मुख्य गेट। |
ओड़िशा
के रायगढ़ा जिले के छोटे से कस्बे मुनिगुड़ा के रेलवे स्टेशन पर हमें लेने
आया वह युवक अंगद भोई आज विशाखापत्तनम के एक निजी अस्पताल में सेरीब्रल
मलेरिया और निमोनिया की दोहरी मार झेल रहा है जबकि कथित तौर पर अपने हाथ का
इलाज करवाने के लिए गढ़चिरौली में डॉ. प्रकाश आम्टे के यहां गया हेम
मिश्रा दस दिन की पुलिस रिमांड पर यातनाएं झेलने को मजबूर है। दोनों की
उम्र लगभग बराबर है। दोनों ही राजनीतिक कार्यकर्ता हैं। एक नियमगिरि की
पहाड़ियों में आदिवासियों के बीच काम करता है तो दूसरा आदिवासियों के बीच
देश भर में घूम-घूम कर सांस्कृतिक जागरण करता है। फर्क सिर्फ इतना है कि
नियमगिरि में सुप्रीम कोर्ट का आदेश अब भी अमल में लाया जा रहा है जबकि
गढ़चिरौली जैसे इलाकों में सुप्रीम कोर्ट के तमाम आदेश हवा में उड़ाए जा
चुके हैं (याद करें मार्कण्डेय काटजू और ज्ञानसुधा मिश्रा की बेंच का वह
फैसला कि महात्मा गांधी की किताब रखने से कोई गांधीवादी नहीं हो जाता)।
शायद इसी फर्क के चलते अंगद माओवादी नहीं है जबकि हेम पर माओवादी होने का
आरोप लगा है। यह फर्क कितना बड़ा या कितना छोटा है, इस बात की एक धुंधली सी
झलक संजय काक की फिल्म ‘‘रेड ऐन्ट ड्रीम’’ में देखने को मिलती है जहां वे
प्रतिरोध के एक कमज़ोर सूत्र में पंजाब, बस्तर और नियमगिरि को एक साथ पिरो
देते हैं। हमें कई माध्यमों में बार-बार बताया गया है कि बहुराष्ट्रीय
कंपनी वेदांता के खिलाफ नियमगिरि का आंदोलन विशुद्ध आदिवासी आंदोलन है और
इसमें माओवादियों के कोई निशान नहीं। संजय काक ऐसा खुलकर नहीं कहते, लेकिन
यहां के आंदोलन के नेता ऐसा ही मानते हैं। दरअसल, संजय की फिल्म देखने के
तुरंत बाद उस पर जो आलोचनात्मक राय मेरी बनी, वहीं से इस इलाके का दौरा
करने की ठोस योजना निकली थी। इसलिए इस यात्रा का आंशिक श्रेय फिल्म को जाता
है। मैंने अपने हफ्ते भर के दौरे में यही जानने-समझने की कोशिश की है कि
बड़ी पूंजी के खिलाफ क्या कोई भी आंदोलन संवैधानिक दायरे में लोकतांत्रिक
प्रक्रिया के तहत अहिंसक तरीके से चलाया जाना मुमकिन है। या कि जैसा संजय
दिखाते हैं, नियमगिरि भी प्रतिरोध के उसी ब्रांड का एक झीना सा संस्करण है
जिसे सरकारें माओवाद के नाम से पहचानती हैं। आखिर क्या है नियमगिरि की
पॉलिटिक्स?
क्या, कहां और कैसे
बहुराष्ट्रीय अलुमिनियम कंपनी
वेदांता के 40,000 करोड़ रुपये की लागत वाले प्रोजेक्ट से पहले तमाम मशहूर
पर्वत श्रृंखलाओं के बीच नियमगिरि को न तो कोई जानता था, न ही शहरी मानस
में इसे लेकर कोई कल्पना तक थी। आज, जब वेदांता के प्रोजेक्ट पर सुप्रीम
कोर्ट द्वारा गांव-गांव में जनसुनवाई का आदेश अमल में लाया जा चुका है, तो
नियमगिरि और उसके भरोसे रहने वाले आदिवासी समुदाय अचानक अहम हो उठे हैं।
नियमगिरि में प्रवेश से पहले आइए इस इलाके का कुछ भूगोल समझ लें।
दिल्ली
से अरावली की जो श्रृंखलाएं राजस्थान तक देखने को मिलती हैं, वे आगे चलकर
विंध्य और सतपुड़ा में मिल जाती हैं। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के बाद
पूर्व तटीय रेलवे का क्षेत्र शुरू हो जाता है। छत्तीसगढ़ के बाघबाहरा से जो
पर्वत श्रृंखलाएं दिखना शुरू होती हैं और महासमुंद होते हुए ओड़िशा में
प्रवेश करती हैं, वे दक्कन के विशाल पठार का बिखरा हुआ हिस्सा ही हैं
जिन्हें पूर्वी तट के पठार कहते हैं। इनकी लंबाई कुल 1750 किलोमीटर के
आसपास है और ये ओड़िशा में छोटा नागपुर पठार के दक्षिण से शुरू होकर
तमिलनाडु में दक्षिण पश्चिमी प्रायद्वीप तक चली जाती हैं। छत्तीसगढ़ से रेल
से ओड़िशा आते वक्त दिखने वाली इसी श्रृंखला का कुछ हिस्सा नियमगिरि
कहलाता है जो सीमावर्ती बोलांगीर जिले से शुरू होकर कोरापुट होते हुए
रायगढ़ा और कालाहांडी तक आता है। इस नियमगिरि का शिखर कालाहांडी के
लांजीगढ़ में माना जाता है जो यहां के इजिरुपा नामक उस गांव से बमुश्किल
डेढ़ किलोमीटर दूर है जहां तीन साल पहले कांग्रेस के नेता राहुल गांधी आकर
ठहरे थे। वेदांता कंपनी की अलुमिनियम रिफाइनरी और टाउनशिप लांजीगढ़ में ही
है क्योंकि यहां से नियमगिरि के शिखरों की दूरी काफी कम है। पहाड़ से
बॉक्साइट निकालने के लिए इसी रिफाइनरी से एक विशाल कनवेयर बेल्ट निकलता है
जो सुदूर पर्वत श्रृंखलाओं में जाकर कहीं खो जाता है। पूर्व तटीय रेलवे के
माध्यम से यह इलाका दिल्ली से सीधे जुड़ा हुआ है। रायगढ़ा जिले का
मुनिगुड़ा रेलवे स्टेशन नियमगिरि की पहाड़ियों का प्रवेश द्वार कहा जा सकता
है। मुनिगुड़ा से पहले पड़ने वाले अम्लाभाटा और दहीखाल स्टेशन भी नियमगिरि
की तलहटी में ही बसे हैं, लेकिन वहां सारी ट्रेनें नहीं रुकती हैं। दूसरे,
वहां मुनिगुड़ा की तरह बाज़ार विकसित नहीं हो सका है। इसलिए हमें
मुनिगुड़ा उतरने की ही सलाह दी गई थी।
मूवमेंट के गांव में
इस
यात्रा की शुरुआत हमने नौजवान साथी अंगद के सहारे की, जो सबसे पहले हमें
कालाहांडी के जिला मुख्यालय भवानीपटना को जाने वाले स्टेट हाइवे के करीब
स्थित और रायगढ़ा के मुनिगुड़ा रेलवे स्टेशन से करीब 12 किलोमीटर दूर बसे
एक गांव में लेकर गया। नियमगिरि की तलहटी में बसा राजुलगुड़ा नाम का यह
गांव करीब 250 आदिवासियों को 70 के आसपास घरों में समेटे हुए है।इन्हें
कुटिया कोंध कहा जाता है। इस गांव को ‘‘ऊपर’’ जाने का बेस कैम्प माना जा
सकता है क्योंकि यहां से डोंगर (पहाड़) पर रहने वाले दुर्लभ डोंगरिया कोंध व
झरनों के किनारे रहने वाले झरनिया कोंध आदिवासियों के गांवों तक पैदल
पहुंचने के सारे रास्ते व लीक निकलते हैं। शुरुआती पंद्रह किलोमीटर से लेकर
सुदूरतम 40 किलोमीटर तक बसे गांवों में यहां से पैदल जाया जा सकता है।
सिरकेपाड़ी जैसे एकाध गांवों तक तो अब चारपहिया गाड़ियां भी जाने लगी हैं।
यह गांव अपेक्षाकृत नया है। इसका पुराना नाम था गोइलोकुड़ा, जो बाद में बदल
कर राजुलगुड़ा कर दिया गया। इसे यहां के लोग ‘‘मूवमेंट का गांव’’ कहते
हैं।
‘‘मूवमेंट का गांव’’ का मतलब
आपको राजुलगुड़ा में प्रवेश करने के बाद इसके चांपाकल तक जाने पर समझ में
आएगा। चांपाकल गांव की सतह से थोड़ा ऊपर है और वहां तक पहुंचने के लिए
छह-सात सीढ़ियां चढ़नी होती हैं। सीढ़ियों के नीचे सीमेंट से पक्की जमीन पर
अंग्रेज़ी के अक्षरों में ‘‘एआईकेएमएस’’ लिखा है। यह अखिल भारतीय किसान
मजदूर सभा का संक्षिप्त नाम है जो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माले)-न्यू
डेमोक्रेसी का एक जनसंगठन है। इस इलाके में इस संगठन का काफी काम रहा है और
मुनिगुड़ा में इसने जमींदारों से करीब 1500 एकड़ जमीनें छीन कर आदिवासियों
में बांट दी हैं। दक्षिणी ओड़िशा में गैर-आदिवासी जमींदारों से जमीनें छीन
कर आदिवासी किसानों-मजदूरों में बांट देने का समृद्ध इतिहास रहा है और
माले धारा का तकरीबन संगठन इस काम में अपने-अपने इलाके में जुटा रहा है।
ऐसे आंदोलन का सबसे चमकदार चेहरा चासी मुलिया आदिवासी संघ रहा है जिसके
भूमिगत नेता के सिर पर आज सरकारी ईनाम है। यहां मुनिगुड़ा ब्लॉक में मीन
आंदोलन पर न्यू डेमोक्रेसी की पकड़ है। कई गांवों में कुटिया कोंध आदिवासी
बांी गई कब्जाई जमीन पर ही खेती कर रहे हैं। यह काम लोक न्यू डेमोक्रेसी के
संग्राम मंच के बैनर तले किया गया था। यही मंच आज कई अन्य संगठनों के साथ
मिलकर कोरापुट, कालाहांडी और रायगढ़ा जिलों में वेदांता के खिलाफ आंदोलन की
अगुवाई कर रहा है। जाहिर है, राजुलगुड़ा यानी नियमगिरि का बेस कैम्प
राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए हमेशा से एक गर्मजोश मेजबान रहा है तो सरकार व
कंपनी की आंखों का कांटा भी रहा है। इस गांव को समझना वेदांता के आंदोलन
को समझने में केंद्रीय भूमिका रखता है।
यहां
हम जिस घर में रुके, वह गांव का इकलौता गैर-आदिवासी घर था। इसमें सोमनाथ
गौड़ा (यहां गौड़ा को ओबीसी श्रेणी में माना जाता है), उनकी पत्नी और दो
लड़के रहते हैं। मूवमेंट के लोग आम तौर से इसी घर में रुकते हैं। सोमनाथ
किसी जमाने में गांव-गांव घूम कर 50 कलाकारों की अपनी मंडली के साथ
ऐतिहासिक कथाओं पर नाटक खेला करते थे। ऐसे ही नाटक खेलने के लिए वे
राजुलगुड़ा जब 25 साल पहले आए, तो गांव वालों ने उन्हें यहां रोक लिया और
अपने साथ बस जाने का आग्रह किया। प्रेमभाव में वे यहीं रह गए। वेदांता ने
2002 में जब प्रोजेक्ट शुरू किया तो उसने 12 किलोमीटर दूर मुनिगुड़ा कस्बे
में अपना दफ्तर बनाया। इसके असर से वहां गेस्ट हाउस खुले, लॉज बने। बाजार
बना। गाड़ियों की चहल-पहल भी शुरू हो गई। फिर मुनिगुड़ा-भवानीपटना स्टेट
हाइवे तक बाजार घिसटते-घिसटते आ गया। राजुलगुड़ा के बाहर हाइवे पर आधा
दर्जन दुकानें खुल गईं। पेप्सी मिलने लगी। गांव में टीवी भी आ गया। टीवी के
साथ डीटीएच भी आया। मोबाइल टावर नहीं है, लेकिन गाना सुनने और वीडियो
देखने के लिए 3000 वाला मोबाइल आ गया। इस ‘‘विकास’’ का असर देखिए कि पांच
साल पहले मुनिगुड़ा कस्बे में जो मकान 700 रुपये माहवार में किराये पर मिला
करता था, आज उसका मासिक किराया 50,000 रुपये हो चुका है। इस तरह के
‘‘विकास’’ का एक असर यह भी हुआ कि हमारे मेज़बान सोमनाथ गौड़ा की कला ने
धीरे-धीरे यहीं दम तोड़ दिया और वे जन्म से विकलांग अपने बड़े बेटे वृंदावन
की छिटपुट कमाई व धान के कुछ रकबे पर अपनी बीवी की हाड़तोड़ मेहनत तक सिमट
कर जीर्ण हो गए। यह कहानी तकरीबन समूचे गांव में मरने के कगार पर खड़ी उस
पिछली पीढ़ी की है, जिसने कभी जमींदारों से जमीन कब्जाने के आंदोलन में
बड़ी भूमिका निभाई थी। नई पीढ़ी में पंकज है, सूरत है, नंदिनी है। ये नाम
शहरी हैं, आदिवासी नहीं। जैसे नाम बदले, वैसे ही आदिवासी जीवन की तासीर भी
बदली।
बहरहाल,
हमारे यहां पहुंचने से एक दिन पहले ही 13 अगस्त को 11वीं पल्लीसभा
(ग्रामसभा) खम्बेसी गांव में संपन्न हुई थी जहां के लोगों ने एक बार फिर
वेदांता को एक स्वर में खारिज कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर
राज्य सरकार ने वेदांता के प्रोजेक्ट पर जनसुनवाई के लिए जिन 12 पल्लीसभाओं
को चुना था, उसमें 11-0 से पलड़ा अब तक आदिवासियों के पक्ष में था और
आखिरी रायशुमारी 19 अगस्त को जरपा गांव में होनी थी। जाहिर है, सोमनाथ को
भी गांव की इकलौती प्राथमिक पाठशाला में 15 अगस्त का झंडा फहराते वक्त
दरअसल इसी कयामत के दिन का इंतजार था, जब कंपनी के ताबूत में आखिरी कील
ठोंक दी जाती और 67 साल के बूढ़े, जर्जर लोकतंत्र में न्यायिक सक्रियता का
यह किस्सा एक तारीखी नजीर बनकर विकास की नई पैमाइश कर रहा होता। लेकिन बात
इतनी आसान नहीं थी, मोर्चे इतने भी साफ नहीं थे, यह बात हमें 15 अगस्त की
शाम समझ में आई जब गांव में एक चमचमाती मोटरसाइकिल आकर रुकी। सफेद टीशर्ट
में सुपुष्ट देहयष्टि वाले एक नौजवान ने उतरते ही नमस्कार किया। उसके पीछे
सोमनाथ का लड़का वृंदावन बैठा था। नौजवान ने विकलांग वृंदावन को सहारा देकर
जमीन पर बैठाया और खुद खटिये पर बैठ गया। उसे हिंदी आती थी। काम भर की
अंग्रेजी भी। फिर उसने बोलना शुरू किया, ‘‘सर, मैं यहां हाइवे पर साइकिल
रिपेयर की दुकान चलाता हूं। वृंदा उसी में मिस्त्री का काम करता है। मैं
तमिलनाडु और वाइजैग में भी रहा हूं। अब भी महीना में 20 दिन वाइजैग जाता
रहता हूं माल लाने के लिए। पापा तो अब कुछ कर नहीं पाते, तो वे ही दुकान पर
बैठते हैं। मैं बिजनेस में लगा हूं। आप लोग...?’’
शायद
वृंदा से उसे हमारी खबर लगी थी। उसका नाम सूरत था। वह भी कुटिया कोंध था
और पड़ोस के पात्रागुड़ा गांव का रहने वाला था। चेहरे पर दूसरों से श्रेष्ठ
होने का भाव था। वह बार-बार मोटरसाइकिल की ओर देखकर आत्मविश्वास से भर
उठता। हमने मोटरसाइकिल के बारे में पूछा, तो उसने बताया कि दहेज में मिली
है। गांव के कुछ बूढ़े-बुजुर्ग हमें घेरे बैठे थे। मैंने जानना चाहा कि
क्या यहां के आदिवासियों में दहेज चलता है, जवाब सूरत ने दिया, ‘‘पहले नहीं
था सर, लेकिन अब शुरू हो गया है। मेरे गांव में तो कई मोटरसाइकिलें है।
कुछ ने अपने पैसे से भी खरीदी है, कुछ दहेज में...।’’ बीच में उसने मोबाइल
निकाल कर वक्त देखा और हम उसे अपने आने का कारण बताते रहे। जवाब में वह
‘‘ओके, ओके’’ कहता रहा। ‘‘आपका क्या विचार है वेदांता के बारे में...’’,
मैंने जानना चाहा। पहले वह मुस्कराया, फिर बोला, ‘‘देखो सर, नियमगिरि तो
हमारी मां है, सब कुछ उसी से हमें मिलता है। लेकिन कंपनी आएगी तो ज्यादा
साइकिल आएगी, ज्यादा साइकिल पंचर होगी, फिर ज्यादा धंधा भी आएगा... है कि
नहीं?’’ मैंने देखा कि आसपास बैठे लोग उससे पहले से ही कुछ कटे से थे और इस
बयान के बाद उनकी आंखों में संदेह का पानी तैरने लगा था। उसने खुद को
संभाला, ‘‘देखो साब, दुख तो हमको भी होगा अगर नियमगिरि जाएगा, लेकिन क्या
करें, कुछ डेवलपमेंट भी तो होना चाहिए... क्या?’’ अगले ही पल अचानक वह तेजी
से उठा और चलने को हुआ, ‘‘मेरे को निकलना है साब, कल मिलते हैं हाइवे
पर।’’ मैंने उससे मोबाइल नंबर मांगा, तो उसने एक अनपेक्षित सा जवाब हमारी
ओर उछाल दिया, ‘‘हम लोग तो रोज सिम बदलते हैं, नंबर का क्या है...?’’
जहां नेटवर्क नहीं था वहां रोज
सिम बदले जा रहे थे, यह हमें पहली बार पता चला। अंधेरा होते ही कई युवक
अपने-अपने मोबाइल की स्क्रीन निहारते हुए गांव में चहलकदमी करने लगे। एक
दूसरे को काटती संगीत की तेज आवाजें बिल्कुल नोएडा के खोड़ा कॉलोनी का सा
माहौल बना रही थीं। एक जगह कांवरिया का गीत था। दूसरा भोजपुरी गीत। तीसरा
मैथिली। चौथा फिल्मी। दो घरों से टीवी की तेज आवाज आ रही थी। यहां के
आदिवासी गांवों में प्रथा है कि सभी कुंवारे लड़के एक कमरे में सोएंगे और
सारी कुंवारी लड़कियां किसी दूसरे कमरे में। वे अपने परिवारों के साथ नहीं
सोते हैं। मैं जिज्ञासावश कुंवारे लड़कों के कमरे में यह जानने के लिए गया
कि क्या वे जो बजाते हैं, उसे समझते भी हैं। उनमें सिर्फ एक को काम भर की
हिंदी आती थी, दूसरा जबरन अंग्रेजी बोलने की कोशिश कर रहा था। पता चला कि
इस गांव से पिछले साल कुल 13 लड़के नौकरी के सिलसिले में केरल गए थे। ये सब
धान रोपाई के लिए फिलहाल गांव आए हुए हैं। केरल में इन्हें रोजाना 150-200
रुपये मिलते हैं। हर साल ठेकेदार को फोन कर के ये छोटे-छोटे काम करने वहां
जाते हैं। वहीं से टीवी, मोबाइल, छिटपुट इलेक्ट्रॉनिक सामान गांवों में
लेकर आते हैं। सौ रुपये में मोबाइल में एक चिप पड़ती है जिसमें गानों के
वीडियो होते हैं जो दुकानदार की मर्जी के होते हैं। ‘‘जब समझ में नहीं आता,
तो आप लोग भोजपुरी या मैथिली वीडियो क्यों देखते हैं’’, मैंने जानना चाहा।
एक लड़का शर्माते हुए बोला, ‘‘माइंड फ्रेश करने के लिए।’’ मैंने उससे
नियमगिरि के बारे में जानने की इच्छा जताई, तो उसने जवाब दिया, ‘‘ये सब
जाकर गांव के बड़े-बूढ़ों से पूछो। मेरे को क्या मालूम।’’ सहमति में दर्जन
भर युवकों ने सिर हिला दिया और पहले की तरह बेसाख्ता मुस्कराने लगे।
राजुलगुड़ा
गांव में बमुश्किल आधा दर्जन बुजुर्ग बचे हैं। कोई दर्जन भर अधेड़ होंगे।
सबसे ज्यादा संख्या औरतों, बच्चों और युवाओं की है। कहते हैं कि यहां पुरुष
लंबी उम्र तक नहीं जी पाते क्योंकि महुआ, मांडिया और तंबाकू उन्हें जल्दी
लील लेते हैं। यह कहानी इस समूचे इलाके की है, नीचे चाहे ऊपर। नए लड़के
बाहर जा रहे हैं तो शराब भी पी रहे हैं। उन्हें न तो नियमगिरि के अस्तित्व
से खास मतलब है, न ही वेदांता कंपनी से। शाम को चौपाल पर जब गांव के बूढ़े
और प्रौढ़ बैठकर दीन दुनिया का हालचाल लेते देते हैं, तो नौजवान आबादी
अजनबी संगीत से घनघनाते मोबाइल हाथ में झुलाते हुए ‘‘माइंड फ्रेश करने’’
हाइवे की ओर निकल पड़ती है। दरअसल, जिस किस्म की सामाजिक संस्कृति नियमगिरि
की तलहटी में बसे ऐसे गांवों में दिखती है, वह मोटे तौर पर सीमावर्ती
आंध्र प्रदेश के सामाजिक ढांचे से प्रभावित रही है। यहां से आंध्र का सबसे
करीबी कस्बा बॉबिली लगता है और रायगढ़ा में एक बड़ी आबादी पार्वतीपुरम और
बॉबिली से आकर बसी है। इसी का असर है कि शहरी और कस्बाई राजनीति में तेलुगु
फिल्मी सितारों का असर बहुत चलता है। कभी आंध्र के पड़ोसी कस्बे
पार्वतीपुरम से उजड़ कर रायगढ़ा में बसे और अब जयपुर की एक बहुराष्ट्रीय
कंपनी में नौकरी कर रहे 26 साल के युवा इंजीनियर राजशेखर कहते हैं, ‘‘हमारे
शहर में सब तेलुगु फिल्में देखते हैं, तेलुगु बोलते हैं। लोगों की
दिलचस्पी ओड़िशा की राजनीति में ज्यादा नहीं है। यहां तो फिल्मी सितारों के
झुकाव के हिसाब से राजनीति तय होती है।’’ सूरत ने भी ऐसी ही बात हमसे कही
थी, ‘‘अभी देखो, सिद्धांत और अनुभव जिस पार्टी में चले जाते हैं, लोग उसी
को वोट देते हैं। पहले यहां सब गांव कांग्रेसी था, लेकिन अब बदलाव आ रहा
है।’’ सिद्धांत और अनुभव उड़िया के दो लोकप्रिय फिल्मी सितारे हैं।
मूवमेंट
के गांव में आए इस बदलाव की स्वाभाविक परिणति देखनी हो तो हाइवे पर सिर्फ
बीस किलोमीटर आगे वेदांता के प्रोजेक्ट साइट लांजीगढ़ कस्बे तक चले जाइए।
माथे पर टीका लगाए, मुंह में पुड़ी (गुटखा) दबाए चमचमाती हीरो होंडा पर
तफरीह करते दर्जनों आदिवासी-गैर आदिवासी नौजवान कंपनी के गेट के सामने
‘‘माइंड फ्रेश’’ करते मिल जाएंगे। अंगद बताते हैं कि इनमें नब्बे फीसदी
मोटरसाइकिलें कंपनी की दी हुई हैं और तकरीबन इतने ही लोग कंपनी के अघोषित
एजेंट बन चुके हैं। इस गांव में कभी एक लड़का अकसर आया करता था जिसका नाम
था जीतू। जुझारू था, एंटी-वेदांता आंदोलन का सबसे लोकप्रिय स्थानीय चेहरा।
हमने उसे 15 अगस्त की शाम मुनिगुड़ा बस स्टैंड पर टहलते हुए देखा। साथी
अंगद ने उसकी पहचान कराते हुए बताया, ‘‘पहले बहुत आंदोलनकारी था, पर अब बिक
गया है। चार हजार का जूता पहनता है। अभी ये सब चुप हैं क्योंकि सुप्रीम
कोर्ट का काम चल रहा है वरना आपसे दस सवाल पूछता कि कौन, क्या, क्यों...।’’
राजुलगुड़ा गांव के भीतर भी ऐसा ही एक शख्स है। पूरे गांव में अकेले उसी
के पास बाइक है। अंगद के मुताबिक आजकल वह भी ‘‘चुप’’ है।
(ब्लाग दखल की दुनिया से)