तीर के मानिंद था वह, जीवन की आपाधापी में कहीं खो गया


   विनोद कुमार, रंगकर्मी
 चंद्रशेखर को मैं 1982 से जानता हूं। उम्र में मैं उससे दो या फ़िर तीन साल बड़ा हूं। पहली बार जब हमारी मुलाकात हुई तब हम सभी इप्टा के बैनर तले एक नाटक में साथ काम कर रहे थे। नाटक का नाम था स्पार्टाकश यानी आदि विद्रोही। यह नाटक गुलामों के विद्रोह की कहानी पर आधारित थी। चंद्रशेखर ने इस नाटक में एक रोमन सैनिक का रोल प्ले किया था। मेरी जानकारी में चंद्रशेखर की यह पहली सार्वजनिक अभिव्यक्ति थी।  
चंद्रशेखर इससे पहले एनडीए का छात्र था। मैं उसे कोई हीरो नहीं साबित करना चाहता इसलिए बिना किसी अतिश्योक्ति के यह बात कहना चाहता हूं कि उसे एनडीए छोड़ना पड़ा था। छोड़ने की वजह यह रही कि चंद्रशेखर मुखर और संवेदनशील था। वह एनडीए के अनुशासन का अनुपालन करता था लेकिन वह विरोध भी अभिव्यक्त करता जो सेना में तथाकथित अनुशासन के विरुद्ध था। मैं तो मानता हूं कि चंद्रशेखर एनडीए या फ़िर सेना के लिए बना ही नहीं था। यह भी कहा जा सकता है कि एनडीए चंद्रशेखर को नहीं पचा सका

चंद्रशेखर के पिता फ़ौज में थे। उनकी अकाल मृत्यु हुई थी। हालांकि वे किसी लड़ाई में शहीद नहीं हुए थे। चंद्रशेखर का जन्म सीवान में हुआ था। पिता की मृत्यु अल्पायु में ही हो गयी थी। पारिवारिक संपत्ति के नामपर उसके पास जमीन का छोटा सा टुकड़ा था, जिससे साल भर के लिए अनाज नहीं उपजाया जा सकता था। इसलिए उसे गरीब भूमिहीन नहीं कहा जा सकता। वह अति साधारण परिवार का था।  
एनडीए छोड़ने के बाद वह पटना आया था। इप्टा से जुड़ने के बाद वह एआइएसएफ़ का सदस्य बन गया। वह इप्टा का सदस्य भी था। दरअसल वह शुरु से ही डायरेक्ट पालिटिक्स करना चाहता था। इसलिए उसने राजनीति को अपना कैरियर बनाया। सच कहूं तो यह बात मुझे या फ़िर मेरे जैसे उसके अनेक मित्रों को पसंद नहीं थी। मैंने कई बार अपना विरोध व्यक्त किया। मैं चाहता था कि वह समाज की सेवा किसी और तरीके से भी करे। वह विलक्षण प्रतिभा वाला था। वह कुछ भी कर सकता था। लेकिन उसने राजनीति को पसंद किया।  
चंद्रशेखर का एक अवगुण था। अवगुण यह कि वह अपना ख्याल नहीं रखता था। कई बार वह गंभीर रुप से बीमार भी पड़ा। लेकिन इसका कोई असर न तो उस पर पड़ा और न ही उसकी दिनचर्या पर। वर्ष 1990-91 में पटना विश्वविद्यालय से स्नातक करने के बाद वह जेएनयू दिल्ली चला गया। राजनीति शास्त्र में एम फ़िल करने। वहीं उसने आइसा को ज्वायन किया। संभवतः इसकी वजह यह रही हो कि उसे लगा हो कि एआइएसएफ़ उसका समुचित उपयोग नहीं कर पा रहा है। बाद में वह जेएनयू छात्र संघ का अध्यक्ष निर्वाचित हुआ।  
चंद्रशेखर की खासियत यह थी कि उसके बहुत सारे दोस्त थे। उसके दोस्तों में वामपंथी और गैर वामपंथी भी थे। इसलिए यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि चंद्रशेखर ने जेएनयू छात्र संघ का चुनाव आइसा का उम्मीदवार होने के कारण नहीं बल्कि केवल अपनी लोकप्रियता के कारण जीता। उसकी लोकप्रियता का अनुमान इसी मात्र से लगाया जा सकता है कि जेएनयू के सभी छात्र फ़िर चाहे वे किसी भी दल या समूह के सदस्य क्यों न हों, चंद्रशेखर के साथ उनकी प्रत्यक्ष दोस्ती थी।  
बाद में जब वह पटना आया तब उसके जेहन में केवल राजनीति थी। राजनीतिक स्तर पर उसने अपने आपको सक्रिय कर लिया था। पटना आने के बाद वह भाकपा माले का सक्रिय सदस्य था। एक खास बताऊं तो वह देर रात तक यहां तक कि कभी कभी तो वह सुबह के चार बजे भोर तक हम दोस्तों के साथ बातचीत करता रहता। लेकिन वह अपना कमिटमेंट कभी नहीं भूलता था। रोज रात को वह सोने पार्टी आफ़िस में ही जाता था। कहता था कि हाजिरी लगना जरुरी है।  
सच कहूं तो वह किसी कमान से निकले तीर के मानिंद था। जीवन की आपाधापी में कहीं खो गया वह। जब उसके मौत की जानकारी मिली तब मैं पटना में नहीं था। मैं मुंबई में था। अभिनय की दुनिया में किस्मत आजमा रहा था। सुनकर यकीन नहीं हुआ। लेकिन सच को कबतक झुठला सकता था। जानकारी मिली कि शहाबुद्दीन के गुंडों ने उसे सीवान शहर के एक चौराहे पर नुक्कड़ सभा के दौरान गोलियों से भून डाला था। मेरे मित्रों ने मुझे बतलाया कि हत्यारों ने उसके शरीर को उपर से लेकर नीचे तक गोलियों से छलनी कर दिया था, लेकिन अंतिम समय भी वह हारा नहीं। गोलियां लगने के बाद भी वह बगल में फ़ुटपाथ पर बैठ गया। उसने अपनी आंखों से सब कुछ देखा और फ़िर हमेशा के लिए अपनी आंखें बंद कर ली।  
चंद्रशेखर को याद करने की जरुरत नहीं पड़ती। ऐसा शायद इसलिए कि वह अब भी मेरे जेहन में जिंदा है। मुझे लगता है वह राजनीति का शिकार हो गया। अगर सीपीआई एमएल ने उसका महत्व समझा होता तो उसकी हत्या न हुई होती। आप परिमार्जन अथवा डी-क्लास शब्द से वाकिफ़ होंगे। राजनीति में यह आम बात है। आप इसे शोषण भी कह सकते हैं जिसका शिकार हमारा दोस्त हुआ। अगर सीपीआई एमएल ने उसका महत्व समझा होता तो निश्चित तौर पर उसे सीवान की जिम्मेवारी उस वक्त नहीं दिया होता जब पूरे सीवान में शहाबुद्दीन की तुती बोलती थी। पार्टी चाहती तो उसे कोई और बड़ी जिम्मेवारी दे सकती थी। बिना किसी तैयारी के उसे सीवान भेज दिया। चंद्रशेखर क्रांतिकारी तो था ही और जोशिला भी था। उसने भी इस जिम्मेवारी को कबूल किया। उसने उस समय शहाबुद्दीन के खिलाफ़ सार्वजनिक स्तर पर बोलने का साहस किया जब सीवान में शहाबुद्दीन के मर्जी के बगैर कोई पत्ता तक नहीं डोलता था। हत्या के पहले भी उसे धमकाया गया था। लेकिन वह कहां मानने वाला था। शायद इसलिए वह चंद्रशेखर था। उसने शहाबुद्दीन के खिलाफ़ सीवान में बोलने का साहस किया और मारा गया। कभी कभी तो लगता है उसका जाना इन पंक्तियों को सत्यापित करता है। जमाने ने मारे जवां कैसे कैसे, जमीन खा गयी आसमां कैसे कैसे।   
दोस्तों, हमारा चंद्रशेखर आज हमारे बीच नहीं है। अगर वह होता तो आगामी 20 सितंबर को हम सब उसका पचासवां जन्मदिन मनाते। वह नहीं है हमारे बीच अब। इसका गम है। लेकिन वह आज भी हमारे इर्द-गिर्द मौजूद है। अपनी मुस्कान के साथ। इसलिए हम हरसाल उसका बर्थ डे मनाते हैं। जब वह था तभी हम लोगों ने पुनश्च नामक एक साहित्यिक संस्था की स्थापना की थी। उसके नहीं रहने पर हम सभी उसके जन्मदिन के अवसर पर एक व्याख्यान का आयोजन करते हैं। सत्रह वर्षों से हम इसे लगातार आयोजित करते रहे हैं।  
इस बार भी हम आगामी 20 सितंबर को कर रहे हैं। इस बार हमलोगों ने प्रोफ़ेसर भानू प्रताप मेहता को आमंत्रित किया है। प्रोफ़ेसर मेहता अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त राजनीति शास्त्री हैं। उन्होंने हार्वर्ड विश्वविद्यालय, न्यूयार्क विश्वविद्यालय और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में अध्यापन किया है। इसके अलावा वे नियमित रुप से इन्डियन एक्सप्रेस में स्तंभ भी लिखते हैं। वे पटना के बिहार इंडस्ट्रीज एसोसिएशन के सभागार में शाम पांच बजे से बतकही नवउदारवाद की विषय पर अपना व्याख्यान देंगे। इस अवसर पर आप भी सादर आमंत्रित हैं.


उसके साथ पूरी कायनात मुस्कराती थी 


नवल किशोर कुमार

    
    मैं जिस चंद्रशेखर की बात करने जा रहा हूं वह सचमुच चंद्रशेखर था। उनके अनन्य मित्र विनोद कुमार जो स्वयं भी बेहतरीन इंसान हैं, के अनुसार चंद्रशेखर की मुस्कान ही उसकी पहचान थी। वह चांद की तरह था। वह जब मुस्कराता तब लगता था जैसे पूरी कायनात मुस्करा रही हो। मैं उस चंद्रशेखर की दास्तान उनके दोस्तों की जुबानी पेश करने जा रहा हूं जिसे वक्त ने छीन लिया न केवल उनके दोस्तों से बल्कि हम सभी से। एक ऐसा इंसान जो सचमुच इंसान था। एक सपना था उसकी आंखों में। शायद यही वजह है कि आज जब चंद्रशेखर इस दुनिया में नहीं हैं, उनके दोस्त भी यह सच जानते हैं, फ़िर भी उनकी आंखें जाने यह सच छुपा सी जाती हैं। चंद्रशेखर अब भी जीवित है। यही कहीं पटना की सड़कों पर या फ़िर जेएनयू के गंगा ढाबा या जेएनयू के किसी हास्टल के कमरे में या फ़िर उन सभी के हृदय में जो चंद्रशेखर को अब भी बेइंतहां मुहब्बत करते हैं।
विनोद जी स्वयं एक बेहतरीन इंसान हैं बिल्कुल अपने दोस्त चंद्रशेखर की तरह। उनकी आंखों में चंद्रशेखर के नहीं होने का गम दिखता है, लेकिन अल्फ़ाज मानों विद्रोह करते हैं। विद्रोह इसलिए कि जिससे वे इतना प्यार करते हैं वह अतीत कैसे हो सकता है। शायद वह अभी भी उनके रक्त में रेड या व्हाइट कणों का पर्याय बन जीवित है। तीन दिन पहले मेरे दिल ने मुझसे कहा कि चंद्रशेखर की कहानी उनके दोस्तों की जुबानी सुनी जाय। मन में यही अरमान लिए मैंने 17 सितंबर को अहले सुबह अपने अभिभावक तुल्य अरशद अजमल को फ़ोन किया। उन्होंने बताया कि उनका चंद्रशेखर से कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं था।
उनके निर्देश पर मैंने विनोद जी से अपने मन की बात कही। पूरे दो घंटे तक विनोद जी चंद्रशेखर की यादें मेरे साथ साझा करते रहे। आज की इस रिपोर्ट को मैंने लिखा है, इसका दावा मैं नहीं कर सकता। इस आलेख के सारे शब्द चंद्रशेखर के उस दोस्त के हैं, जिसके मानस पटल पर चंद्रशेखर अब भी जीवित है। वह बोलता है, वह प्रतिकार करता है, वह राह दिखलाता है और जिंदगी के हर मोड़ पर हमराही की तरह साथ भी चलता है। लिखने का साहस कर रहा हूं क्योंकि विनोद जी ने जो कुछ भी साझा किया है उसे आपके साथ साझा करने का एकमात्र तरीका यही है मेरे पास।