विद्यार्थी चटर्जी
इन दिनों बांग्लादेश की उदारपंथी ताकतों में व्याप्त मोहभंग को लेकर इस्लामिक ताकतें बहुत उत्साहित हैं और वे 37 साल पहले अधूरी रह गई अपनी परियोजना को इस बार पूरा करने के लिए एक लोकप्रिय उभार का मुंह ताक रही हैं। आने वाले वर्षों में यदि ऐसा कुछ भी हुआ, तो इसमें संदेह है कि बांग्लादेश के उर्दूभाषी ”नए नागरिक” इसमें कितनी और क्या सकारात्मक भूमिका निभाएंगे। यही सवाल बांग्लादेश के कई बांग्लाभाषी नागरिकों ने खुद से तब भी पूछा था जब 2008 में सुप्रीम कोर्ट का संदिग्ध फरमान आया था। फिलहाल तो बांग्लादेश में कट्टरपंथी जमात औरसेकुलरों के बीच जो जंग छिड़ी है, वह इतनी जल्दी खत्म होती नहीं दिखती। और इसी के बीच पल बढ़ और जवान हो रहा है बांग्लादेश का सिनेमा, जिसे नया सिनेमा कहा जा सकता है :
बांग्लादेश की सुप्रीम कोर्ट
ने 2008 की गर्मियों में
फैसला दिया था
कि 1971 के बाद
उर्दूभाषी बिहारी मुस्लिमों के
पैदा हुए बच्चों
को बांग्लादेश की
नागरिकता दी जाएगी।
यहां बिहारी मुस्लिम उन
पाकिस्तानियों
के लिए इस्तेमाल करते
हैं जो बांग्लादेश में
रह गए थे।
बहुत
संभव है कि
सुप्रीम कोर्ट उस
वक्त बांग्लादेश के
तत्कालीन सत्ताधारी तबके
से प्रभावित रहा
हो, पाकिस्तान समर्थक
फौज के साथ
जिसके रिश्ते अच्छे
माने जाते थे।
इस फैसले के
लाभार्थी सत्ताधारी तबके
के पूर्वजों ने
खासकर 1971 के मुक्तियुद्ध के
दौरान दलाल की
जो भूमिका निभाई
थी, उसे बांग्लादेश के
मूल बांशिदों द्वारा
आसानी से भुला
पाना नामुमकिन है।
यह
सर्वज्ञात है कि
उर्दूभाषी बिहारी मुस्लिमों ने
पंजाबियों और पठानों
के वर्चस्व वाली
उस पाकिस्तानी फौज
का खुल कर
समर्थन किया था
जिसने मुक्तियुद्ध के
दौरान कम से
कम तीस लाख
बंगालियों की हत्या
करवाई और अनगिनत
बलात्कार व दूसरे
किस्म के उत्पीडऩ किए।
मुक्तियुद्ध एक
ऐसा विषय है
जिस पर बार-बार बांग्लादेश के
फिल्मकारों की नजर
गई है और
कलात्मकता के अलग-अलग स्तरों
पर इसे छुआ
गया है। फिलहाल
चूंकि बांग्लादेश में
एक बार फिर
यह मुद्दा गरमाया
हुआ है और
पूरा देश उबल
रहा है, इसलिए
इस विषय पर
बनी कुछ डॉक्युमेंट्री और
लघु फिल्मों पर
दोबारा नजर डालना
जरूरी होगा।
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रुबय्यात हुसैन |
”जिन्ना ने
जब 1948 में पूर्वी
बंगाल का दौरा
कर के वहां
के लोगों पर
उर्दू थोपने की
कोशिश की थी,
तो उनके दौरे
पर एक लघु
फिल्म बनी थी।
उस वक्त के
लिहाज से यह
वरदान ही था
क्योंकि तब तक
डॉक्युमेंट्री
निर्माण की कला
इस स्तर तक
नहीं पहुंची थी
कि वह दुष्प्रचारों का
मुकाबला कर सके।
बांग्लादेश में
पाकिस्तान के राज
के दौरान कुल
दो लघु वृत्तचित्र बने
जिनका जिक्र करना
जरूरी है। एक
नजीर अहमद का
सलामत और दूसरा
रुकैया कबीर का
सरमन इन ब्रिक्स। ये
दोनों प्रयास भले
काफी सार्थक रहे
हों, लेकिन लघु
फिल्मों का बांग्लादेशी इतिहास
कायदे से जहीर
रेहान की स्टॉप
जेनोसाइड से शुरू
हुआ माना जा
सकता है।
मुक्तियुद्ध के
दौरान जहीर रेहान
ने यह अद्भुत
लघु डॉक्युमेंट्री बनाई
थी। यह फिल्म
दमनकारी पाकिस्तानी फौज
द्वारा बंगालियों के
नरसंहार का भीषण
प्रतिरोध बनकर सामने
आती है। इसके
अलावा युद्ध के
दौरान तीन और
फिल्में बनाई गईं।
ये
हैं आलमगीर कबीर
की लिबरेशन फाइटर्स, बाबुल
चैधरी की इनोसेंट मिलियंस और
जहीर रेहान की
ही एक और
फिल्म अ स्टेट
इज बॉर्न। हमारे
लोगों के लिए
भावनात्मक स्तर पर
इन फिल्मों का
काफी महत्त्व है
और जिन स्थितियों में
इन्हें फिल्माया गया,
उनके मद्देनजर इनकी
तकनीकी सीमाओं को
अनदेखा किया जा
सकता है। हमारे
यहां लघु फिल्मों के
निर्माण में ये
विरासत की तरह
हैं।”
ये
शब्द हैं तनवीर
मुकम्मल के, जो
मुक्तियुद्धोत्तर
बांग्लादेश में दूसरी
पीढ़ी के फिल्मकारों के
प्रमुख प्रतिनिधि हैं।
पाकिस्तानी फौज और
उसके दलालों द्वारा
मक्तियुद्ध के दौरान
किए गए दमन
को दर्शाने के
एवज में मुकम्मल को
कई बार बांग्लादेश फिल्म
सेंसर बोर्ड के
समक्ष दिक्कतों का
सामना करना पड़ा
है, लेकिन उनकी
रगों में दौड़
रहे बांग्ला राष्ट्रीयता के
गाढ़े खून ने
इस राष्ट्र के
संस्थापक मुजीबुर्रहमान की
विरासत को को
कभी नहीं नकारा।
पहली
बार मुकम्मल पर
कलकत्ता के फिल्म
जगत की नजर
1991 में अंतरराष्ट्रीय लघु
फिल्म महोत्सव के
दौरान पड़ी। उनकी
पहली फिल्म हुलिया
(द वॉन्टेड, 16 एमएम,
ब्लैक एंड वाइट,
28 मिनट, 1985) को यहां
बहुत सराहा गया।
पाकिस्तानी कब्जे
वाले पूर्वी बंगाल
की ज्वलंत वास्तविकताओं और
आम अनुभवों पर
आधारित हुलिया में
मुक्तियुद्ध से जुड़े
फुटेज शामिल थे।
प्रसिद्ध वामपंथी बुद्धिजीवी और
कार्यकर्ता निर्मलेंदु गून
की एक कविता
पर आधारित यह
फिल्म एक संदिग्ध राजनीतिक कार्यकर्ता के
एक दिन के
जीवन का चित्रण
करती है जो
अपने घर से
दूर रहने को
मजबूर है।
उसके
दिमाग में बार-बार पुलिसिया बर्बरता के
दृश्य कौंध रहे
हैं, बावजूद इसके
वह अपनी मां
के साथ गांव
में एक दिन
बिताता है। जल्द
ही पुलिस को
उसके ठिकाने का
पता लग जाता
है और उसे
दोबारा किसी सुरक्षित जगह
पर भाग कर
जाना पड़ता है।
मुकम्मल कहते
हैं, ”फिल्म साठ
के दशक के
अंत में अयूब
खान के शासन
के दौर को
दिखाती है, लेकिन
यह इरशाद की
तानाशाही के खिलाफ
चले लोकतांत्रिक आंदोलन
की भी साथ
में पड़ताल करती
है और इस
क्रम में प्रतीकवाद की
बांग्लादेशी राजनीति की
विशिष्टताओं का भी
चित्रण करती है।
फिल्म के केंद्रीय पात्र
युवा राजनीतिक कार्यकर्ता के
सफर में उसके
अतीत, वर्तमान और
भविष्य को उसकी
मनोदशा के माध्यम
से दर्शाया गया
है।”
बीच-बीच में
खराब ध्वनि मुद्रण
या कैमरे की
लापरवाही के बावजूद
हुलिया भावनात्मक, रोमांटिक और
तीक्ष्ण राजनीतिक प्रभाव
छोड़ती है। यह
अपील दरअसल विषय
के कारण है
जो आज भी
बांग्लादेश की बड़ी
आबादी के दिल
के करीब है,
यह बात अलग
है कि कालांतर में
यहां के समाज
और राष्ट्र पर
तमाम प्रतिकूल कारकों
ने अपना प्रभाव
जमा लिया है।
वैयक्तिक संबंधों के
स्तर पर भी
फिल्म प्रभावी है।
युवा पात्र के
परिवार के भीतर
रिश्तों (मां, पिता,
छोटी बहन या
फिर पड़ोस में
रहने वाली पत्नी
की बहन के
साथ) और देश-दुनिया की
खबर साझा करने
के लिए रात
में मिलने आने
वाले दूसरे साथियों के
साथ उसके संबंधों को
काफी प्रभावकारी ढंग
से दिखाया गया
है।
फिल्म
के एक सीक्वेंस की
विशेष तौर पर
चर्चा की जानी
चाहिए जो इस
क्रांतिकारी युवा और
एक लड़की के
बीच प्रेम संबंध
से जुड़ा है,
जिसका परिवार सुरक्षा कारणों
से पूर्वी बंगाल
छोड़कर कलकत्ता चला
आता है और
श्याम बाजार की
खोली में रह
रहा है।
युवक
को प्रेमिका द्वारा
लिखी एक चिट्ठी
में यह जाहिर
होता है कि
वह जितना उसे
चाहती है, उतना
ही अपने पीछे
छोड़ आए अपने
देश और वहां
की खुली हवा
की भी चाह
रखती है, हालांकि वह
स्वीकार करती है
कि नई हवा
में वह खुद
को ज्यादा महफूज
पाती है। इस
दृश्य के पाश्र्व में
एक गीत बजता
है जो नोस्टेल्जिया और
अवसाद का ऐसा
मिश्रित प्रभाव पैदा
करता है जिससे
यह बात साफ
हो जाती है
कि दोनों अब
कभी नहीं मिल
सकेंगे। फिल्म के
इस हिस्से के
बारे में मुकम्मल कहते
हैं, ”शायद उस
युवक की जिंदगी
में ऐसा कोई
संबंध था ही
नहीं, या शायद
रहा भी होगा।
कौन जाने? शायद
वह किसी रूमानियत में
जी रहा हो।
हर सच्चा इंकलाबी सपने
तो देखता ही
है- एक बेहतर
दिन का, एक
न्यायपूर्ण व्यवस्था का,
कुछ प्रेम का
और इंसानों के
बीच मधुर रिश्तों का
सपना।”
हुलिया
के बाद मुकम्मल ने
35 एमएम पर स्मृति
एकात्तोर (1971 से जुड़ी
स्मृतियां) नाम की
एक डॉक्युमेंट्री शूट
की जिसमें कम
से कम तीन
सौ प्रमुख बांग्ला बुद्धिजीवियों की
नियति कथा का
चित्रण है जिनका
इस्लामिक कट्टरपंथियों ने
मुक्तियुद्ध के दौरान
सुनियोजित सफाया कर
दिया था।
मुकम्मल कहते
हैं, ”पाकिस्तानी फौज
द्वारा इनके सफाए
की तैयार की
गई योजना को
बर्बर तरीके से
अमली जामा पहनाने
का काम उस
जमात-ए-इस्लामी के
हत्यारे गिरोह अल-बद्र ने
किया था, जिसके
नेता गुलाम आजम
को बाद में
बेगम खालिदा जिया
की सरकार ने
लगातार जनाक्रोश से
बचाने का काम
किया क्योंकि वह
सरकार संसद में
कट्टरपंथियों के समर्थन
पर टिकी हुई
थी। युद्ध के
दौरान जब ढाका
में रात के
वक्त कफ्र्यू लगा
होता, अल-बद्र
की बसों में
डॉक्टरों, साहित्यकारों, शिक्षकों, कलाकारों और
रंगकर्मियों को उठवा
लिया जाता। बाद
में उनकी लाश
शहर के करीब
दलदली इलाकों में
पाई जाती। कुछ
मामलों में लाश
का भी पता
नहीं लगा (जैसे
फिल्मकार जहीर रेहान)। फिल्म
इन बुद्धिजीवियों की
हत्या के पीछे
के कारणों की
पड़ताल करती है।”
सिनेमाई मानकों
पर यह फिल्म
भले कमजोर हो,
लेकिन यह उस
दौर की कुछ
घटनाओं का विश्वसनीय दस्तावेज बनकर
उभरती है जिसके
भीतर मौजूदा बांग्लादेश में
पाकिस्तान, ईरान और
सउदी अरब के
नैतिक और तकनीकी
समर्थन से काम
कर रहे इस्लामिक कट्टरपंथियों व
अपने राष्ट्र-समाज
में आस्था रखने
वाली राष्ट्रवादी ताकतों
के बीच चल
रहे संघर्ष के
बीज मौजूद थे।
मुक्तियुद्ध के दौरान रजाकरों की भूमिका की पड़ताल करते हुए स्मृति एकात्तोर न सिर्फ मुकम्मल बल्कि बांग्लादेश में वैकल्पिक सिनेमा के अहम झंडाबरदारों की चिंताओं और सरोकारों को भी अभिव्यक्त करती है।
यह समझने में दिक्कत नहीं होनी चाहिए कि आखिर बांग्लादेश की जनता उस मुक्तियुद्ध को क्यों नहीं भुला पाती जिसने न सिर्फ तीस लाख बंगालियों- हिंदू, मुस्लिम, ईसाई और बौद्ध- की जान ली बल्कि उससे कई गुना ज्यादा लोगों को भावनात्मक व आर्थिक रूप से तबाह कर के छोड़ा। सोचिए कि अगर यह महान त्रासदी तथाकथित तीसरी दुनिया के निर्धनतम देशों में से एक में नहीं हुई होती, तो निश्चित तौर पर यह इंसान द्वारा इंसान के साथ अमानवीयता के मौखिक इतिहास का हिस्सा बन जाती और इसका जिक्र हिटलर द्वारा यहूदियों के सफाए की घटना के साथ होता।
बांग्लादेश के सर्वाधिक प्रतिष्ठित फिल्मकार तारिक मसूद का जिक्र यहां जरूरी है जिन्होंने बरसों बरस अपने काम से यह साबित किया कि फिक्शन और डॉक्युमेंट्री पर उनका समान अधिकार था। वैकल्पिक धारा के अपने दोस्तों तनवीर मुकम्मल और मुर्शदुल इस्लाम की तरह वे भी खुद अपनी मेहनत का नतीजा थे और उनके भीतर भी बांग्लादेशी राष्ट्रीयता उतने ही प्रखर रूप में अभिव्यक्त होती थी। दो साल पहले एक सड़क हादसे में (?) हुई मसूद की मौत बांग्लादेश के लिए बड़ा नुकसान थी।
बड़े परदे पर मसूद की दूसरी फिल्म गणतंत्र मुक्ति पाक (लेट देयर बी डेमोक्रेसी) तीन मिनट की मूक एनिमेशन फिल्म है जिसमें लगातार बदलती तस्वीरों, आइकॉन और मोटिफ के माध्यम से बांग्लादेश का इतिहास दिखाया गया है। बांग्लादेश के किसी कलाकार द्वारा बनाई गई यह पहली एनिमेशन फिल्म है जो इरशाद की तानाशाही को चुनौती देने वाले लोकप्रिय व्यक्तित्व नूर हुसैन को समर्पित की गई है।
फिल्म की शुरुआत भारत के विभाजन (वास्तव में सिर्फ पंजाब और बंगाल का विभाजन) और पाकिस्तान के जन्म से होती है। इसके बाद 1952 का भाषायी आंदोलन और बांग्ला राष्ट्रवाद के उभार के दृश्य आते हैं। इसके बाद के तमाम दृश्य और व्यक्तित्व परिचित हैं: पाकिस्तान की सत्ता में फौज का आना, पूर्वी पाकिस्तान में याहया खान का दमन, बांग्लादेश का ऐतिहासिक जन्म और मुक्तियुद्धोत्तर दौर में दोबारा सैन्य शासन व मजहबी कट्टरवाद का उभार।
मसूद कहते हैं, ”इरशाद की तानाशाही और उसे संरक्षण देने वाले साम्राज्यवाद की भूमिका के बरक्स एक मजदूर युवक नूर हुसैन खड़ा है जिसने तानाशाही को चुनौती दे डाली है। वह सड़कों पर निकलता है तो उसकी छाती पर लिखा होता है ”तानाशाही मुर्दाबाद” और पीठ पर लिखा है ”लोकतंत्र जिंदाबाद।”
मसूद ने पेशे से एडिटर अपनी अमेरिकी पत्नी कैथरीन के साथ मिलकर बांग्लादेश के जन्म के करीब 25 साल बाद मुक्तिर गान नाम का वृत्तचित्र बनाया जो जहीर रेहान जैसे शहीदों से प्रेरित था।
”एक असाधारण दौर के असाधारण फुटेज” पर आधारित मुक्तिर गान (35 एमएम, रंगीन, 80 मिनट, 1995) बंगाली सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं की एक टोली पर बनी फिल्म है जिसने 1971 के युद्ध के दौरान शरणार्थी शिविरों और युद्धक्षेत्रों में घूम-घूम कर ऐसे गीत गाए जिनमें अपनी जमीन और संस्कृति से बंगालियों के भावनात्मक जुड़ाव की अभिव्यक्तियां थीं।
टैगोर, नजरुल, डी.एल. रॉय, गुरुसदे दत्त, जोतिरींद्र मोइत्रा, मोशाद अली और सिकंदर अबूजफर के गीतों को उन्होंने जिस शिद्दत से गाया, उसने मुक्ति बाहिनी के जवान और उम्रदराज लड़ाकों को एक साथ प्रेरित किया। इस टोली ने गीत मिश्रित नाटक भी किए और लोगों को उस संकटग्रस्त दौर में प्रेरणा दी।
खुद इस डॉक्युमेंट्री का इतिहास अपने आप में मुक्ति युद्ध से कम त्रासद और प्रेरणादायी नहीं था। इसके कुछ हिस्सों में यह बात उभर कर आती है। अमेरिका के एक समूह ने इस सांस्कृतिक टोली (फ्री बांग्लादेश कल्चरल स्क्वाड) की यात्रा के करीब 20 घंटे का फुटेज शूट किया था, लेकिन उसकी फिल्म कभी पूरी नहीं हो सकी।
मुक्तिर गान में अमेरिकी समूह द्वारा शूट किए गए मूल फुटेज तो हैं ही, साथ में दुनिया भर से और सामग्री इकट्ठा की गई है जिसके माध्यम से मुक्तियुद्ध की दास्तान उन लोगों के सामने रखी गई है जिन्होंने इसका अनुभव किया था बल्कि उससे कहीं ज्यादा इसकी भूमिका उन पीढिय़ों के लिए है जिनका जन्म युद्ध के बाद हुआ। टोली के हिंदू और मुस्लिम, पुरुष और स्त्री सदस्यों की नजर से यह फिल्म उस एकजुटता और साहस को प्रदर्शित करती है जिसने अकल्पनीय दुखों से गुजर रहे एक राष्ट्र को एक सूत्र में बांधने का काम किया था।
काफी मेहनत से संपादित की गई यह आख्यानात्मक फिल्म युद्ध में हिस्सा लिए कुछ लोगों की गवाहियों समेत हिला देने वाले गीतों और संगीत से मिलकर बनी है। मसूद कहते हैं, ”मुक्तिर गान के अलावा मुक्तियुद्ध पर बनी और किसी भी फिल्म ने बांग्लादेश में इस किस्म के उत्साह का संचार नहीं किया। हर उम्र, वर्ग और सोच के हजारों स्त्री-पुरुष ढाका और अन्य शहरों के थिएटरों में इस फिल्म को देखने के लिए उमड़ पड़े थे। बेग़म खालिदा जिया की बीएनपी सरकार ने फिल्म को दबाने की कोशिश की जिसका नतीजा यह हुआ कि ज्यादा से ज्यादा लोगों ने टिकट लेकर यह फिल्म देखी।”
पुणे फिल्म संस्थान से पढ़े और नब्बे के दशक की शुरुआत तक बांग्लादेश में अग्रणी फिल्म एक्टिविस्ट रहे सैयद सलाहुद्दीन जकी का कहना है, ”बांग्लादेश में फिल्म संस्कृति के अग्रणी प्रणेताओं में एक आलमगीर कबीर ने कम बजट वाली छोटी (16 एमएम) और सार्थक फिल्में बनाने और तथाकथित मुख्यधारा के सिनेमा की बंदिशों से इतर उन्हें स्वतंत्र रूप से वितरित व प्रदर्शित करने की अवधारणा विकसित की। आगामी (1984) और हुलिया (1985) के निर्माण ने आलमगीर कबीर (बांग्लादेश की मुक्ति के कुछ ही दिनों के भीतर जिनकी मौत एक सड़क हादसे में हो गई) की सोच को रफ्तार मिली।”
डॉक्युमेंट्री और ड्रामा का प्रभावी सम्मिश्रण रही मुर्शदुल आलम की फिल्म आगामी को भारत के अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव 1985 में स्वर्ण मयूर प्राप्त हुआ। इस फिल्म ने बांग्लादेश के फिल्मकारों के लिए एक नजीर का काम किया क्योंकि बाद के वर्षों में वहां बनने वाली तमाम फिल्मों ने उनकी शैली, थीम और यथार्थवादी मुहावरे का अनुकरण किया। यह तुरंत आजाद हुए एक राष्ट्र के दर्शकों को काफी अपील करता था।
यह सही है कि आगामी में कुछ दृश्य तकनीकी रूप से अटपटे बन पड़े हैं और इस बारे में फिल्म के विनम्र व मृदुभाषी निर्देशक से ज्यादा कौन समझ सकता है, इसके बावजूद ज्यादा ध्यान देने वाली बात यह है कि इस्लाम की व्याख्या के मुताबिक सच को बखान करने की फिल्म की सामथ्र्य की उपेक्षा करना मुश्किल है, जिसमें भावनात्मक लगाव के साथ वैचारिक दृढ़ता भी मौजूद है। यही वजह है कि मुर्शदुल इस्लाम की यह पहली फिल्म सीमा के दोनों ओर प्रतिकूल स्थितियों में काम कर रहे फिल्मकारों के लिए एक सबक भी है।
मुर्शदुल ने 1988 में सूचना का निर्देशन किया। यह एक घंटे की 16 एमएम के परदे पर बनी रंगीन फिल्म है। एक तरीके से देखें तो सुचना की शुरुआत वहीं से होती है जहां आगामी का अंत होता है, जिसमें मुक्तियुद्ध के बाद की पीढिय़ों के लिए एक नए किस्म के संघर्ष की जरूरत पर जोर दिया गया है।
बांग्लादेश की उदारपंथी ताकतों में व्याप्त मोहभंग को लेकर इस्लामिक ताकतें बहुत उत्साहित हैं और वे 37 साल पहले अधूरी रह गई अपनी परियोजना को इस बार पूरा करने के लिए एक लोकप्रिय उभार का मुंह ताक रही हैं। आने वाले वर्षों में यदि ऐसा कुछ भी हुआ, तो इसमें संदेह है कि बांग्लादेश के उर्दूभाषी ”नए नागरिक” इसमें कितनी और क्या सकारात्मक भूमिका निभाएंगे। यही सवाल बांग्लादेश के कई बांग्लाभाषी नागरिकों ने खुद से तब भी पूछा था जब 2008 में सुप्रीम कोर्ट का संदिग्ध फरमान आया था। फिलहाल तो बांग्लादेश में कट्टरपंथी जमात औरसेकुलरों के बीच जो जंग छिड़ी है, वह इतनी जल्दी खत्म होती नहीं दिखती।
(अनु : अभिषेक श्रीवास्तव, समयांतर से कॉपी पेस्ट)