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इन मासुमों को भला कौन समझाए---?
बहुत सारे लोग शोर कर रहे हैं कि दिल्ली में हुए सामूहिक रेप कांड को
जितना स्पेस मीडिया में मिल रहा है, उतना क्या दूसरी जगहों पर बारहों महीने
होते रहने वाले बलात्कार को स्पेस मिल पाता है? अब ऐसे मासूमों को कौन
समझाए कि ओबी वैन को दूसरी जगह ले जाना कितना खर्चीला होता है। न ही
बलात्कार की शिकार हर लडक़ी मेडिकल की छात्रा होती है। और न ही दिल्ली की
तरह किसी और जगह स्टूडियो में बैठे-बिठाए इतने बड़ी-बड़ी शख्सियतें
बलात्कार पर बहस करने के लिए सस्ते और सहज उपलब्ध हो सकती हैं। इसके अलावे
दिल्ली दिल्ली है। देश की राजधानी है। ये हम सब का लोकतांत्रिक दायित्व
बनता है कि पहले अपने देश की राजधानी के बारे में सोचें। फिर अपने
छोटे-मोटे शहरों और गांव, देहात या कस्बों के बारे में होने वाले बलात्कार
के बारे में सोचें। मीडिया के इस चरित्र पर उंगली उठाने वाले ये भी नहीं
जानते कि न्यूज चैनलों की टीआरपी में ६० से लेकर ७० प्रतिशत तक की भागीदारी
दिल्ली, मुंबई, कोलकाता वगैरह महानगरों से ही तय होती है। यानी मीडिया की
रोजी-रोटी का बंदोबस्त ये ही महानगर करते हैं। तो भैया पहले अपनी रोजीरोटी
देखेेंगे या जमाने के और दर्द। ऐसे लोगों को मीडिया की यह मजबूरी भी नहीं
दिखती कि इसने चुनाव में हैट्रिक लगाने वाले मोदी का मोह तक त्याग दिया है,
जिसे मीडिया ने अब तक प्रधानमंत्री तक के रूप में स्थापित कर दिया होता।
मगर मोदी का सम्मोहन और गलैमर भी दिल्ली के आगे पानी भर रहा है। और तो और
सचिन का संन्यास भी मीडिया के इस चरित्र को नहीं हिला पाया।