‘कानून के राज कायम होने’ का ढ़िंढ़ोरा पीटे जाने का जश्न थम गया है

मशहूर लेखिका अरुंधति रॉय ने  अफजल गुरू पर लिखी गई किताब की नई भूमिका लिखी है. कश्मीर और  अफजल गुरू को दी गई फांसी पर उनके विचार जगजाहिर हैं. अरुंधति रॉय कश्मीर में भारतीय सैनिकों के कथित मानवाधिकार उल्लंघनों के खिलाफ काफी समय से लिखती रहीं हैं.
रॉय ने संसद हमले के दोषी अफज़ल गुरू पर लिखी गई विवादित किताब की भूमिका लिखी है. इसका एक हिस्सा बीबीसी हिंदी डॉट कॉम से यहां उधार लिया गया है।  अपने इस लेख में उन्होंने अफजल गुरू के साथ की गई कथित नाइंसाफी के बारे में लिखा है, जो कुछ इस तरह है:
नई दिल्ली के जेल में 11 साल का वक्त, जिसमें ज्यादातर वक्त एकांत में कालकोठरी में मृत्यु दंड की प्रतीक्षा में बीता था, फरवरी की सुबह अफजल गुरु को फांसी पर लटका दिया गया.
भारत के एक पूर्व सॉलिसिटर जनरल व सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता ने इसे हड़बड़ी में छुपाकर लिया गया फैसला बताया है. फांसी दिए जाने का यह ऐसा फैसला है जिसकी वैधता पर गंभीर प्रश्न चिन्ह लग गए हैं.
जिस व्यक्ति को देश की सर्वोच्च न्यायालय ने तीन बार उम्र कैद और दो बार मृत्यु दंड की सजा तजबीज की हो, और जिसे एक लोकतांत्रिक सरकार ने फांसी पर लटकाया हो, उस प्रक्रिया पर वैधानिक प्रश्न कैसे लगाया जा सकता है?
फांसी पर लटकाए जाने के सिर्फ 10 महीने पहले अप्रैल 2012 में सुप्रीम कोर्ट में ऐसे कैदियों की याचिका पर कई बैठकों में सुनवाई पूरी हुई थी जिसमें कैदियों को बहुत ज्यादा समय तक जेल में रखा गया है.
उन कई मुकदमों में एक मुकदमा अफजल गुरु का भी था जिसमें सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने अपना फैसला सुरक्षित रखा है. लेकिन अफजल गुरु का फैसला सुनाए जाने से पहले ही उन्हें फांसी दे दी गई है.
सरकार ने अफजल के परिवार को उनका शव सौंपने से मना कर दिया है. उनके शरीर का अंतिम संस्कार किए बिना जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) के संस्थापक मकबूल भट्ट की कब्र के बगल में दफना दिया गया.

इंतजार

इस तरह तिहाड़ जेल की चाहरदीवारी के भीतर ही अब दूसरे कश्मीरी का  शव अंतिम रस्म अदा किए जाने का इंतज़ार कर रहा है. उधर कश्मीर में मजार-ए-शोहादा के कब्रिस्तान में एक  कब्र लाश के इंतजार खाली पड़ा है.
जो लोग कश्मीर को जानते-समझते हैं, वो अच्छी तरह जानते हैं कि कैसे कल्पना, अप्रत्यक्ष और मानव द्वारा रचित मिथ्या ने अतीत में कितने चरमपंथी हमले को जन्म दिया है.
हिन्दुस्तान में ‘कानून के राज कायम होने’ का ढ़िंढ़ोरा पीटे जाने का जश्न थम गया है. सड़कों और गलियों में गुंडों द्वारा फांसी पर चढ़ाए जाने की खुशी में मिठाई बंटनी बंद हो गयी है (आप कितनी देर तक मुर्दे की तस्वीर को फूंककर उत्साह मना सकते हैं?) .
कुछ लोगों को फांसी की सजा दिए जाने पर आपत्ति जताने और अफजल गुरु के मामले में निष्पक्ष सुनवाई (फेयर ट्रायल) हुई या नहीं, कहने की छूट दे दी गई. वह बेहतर और सामयिक भी था, एक बार फिर हमने सर्वसम्मति का जनतंत्र भी देखा.
बस उन बहसों को नहीं देख सके जो छह साल पहले ही चार साल देर से शुरु हुई थी. सबसे पहले यह किताब 2006 दिसबंर में छपी थी जिसके पहले भाग के लेखों में विस्तार से सुनवाई के बारे में चर्चा हुई है. इसमें कानूनी विफलता, ट्रायल कोर्ट में उन्हें वकील नहीं मिलने की बात, कैसे सूत्रों के तह तक नहीं जाया गया और उस समय मीडिया ने कितनी घातक भूमिका निभायी, इन सभी बातों का जिक्र है.
इस नए संस्करण के दूसरे खंड में फांसी दिए जाने के बाद लिखे गए लेखों और विश्लेषणों का एक संकलन है. पहले संस्करण के प्राकथ्थन में कहा गया है, 'इसलिए इस पुस्तक से एक आशा जगती है' जबकि यह संस्करण गुस्से में प्रस्तुत किया गया है.
इस प्रतिहिंसक समय में, अधीरता से कोई भी यह पूछ सकता है: विवरणों और कानूनी बारीकियों को छोड़िए. क्या वह दोषी था या वह दोषी नहीं था? क्या भारत सरकार ने एक निर्दोष व्यक्ति को फांसी पर लटका दिया है?
जो भी व्यक्ति इस किताब को पढ़ने का कष्ट करेगा, वह इस निष्कर्ष पर पहुंचेगा कि अफजल गुरू के उपर जो आरोप लगाए गए थे, उसके लिए वह दोषी साबित नहीं हुआ था - भारतीय संसद पर हमला रचने के षडयंत्रकारी या फिर जिसे फैशन में 'भारतीय लोकतंत्र पर हमला' भी कहा जाता है, (जिसे मीडिया लगातार गलत तरीके से अपराधी ठहराता रहा है जबकि अभियोजन पक्ष द्वारा उसपर हमला करने का आरोप नहीं लगा है और न ही उन्हें किसी का हत्यारा कहा गया है. उसके उपर हमलावरों का सहयोगी होने का आरोप था).


अरूंधती रॉय
अरूंधती रॉय ने अपनी किताब में कुछ अशों को जोड़ा है.


सुप्रीम कोर्ट ने इस अपराध के लिए उन्हें दोषी पाया और उन्हें फांसी की सजा दी. अपने इस विवादास्पद फैसले में, जिसमें ‘समाज के सामूहिक विवेक को तुष्ट करने के लिए’ किसी को फांसी पर लटका दिए जाने की बात कही गई है. उनके खिलाफ कोई प्रत्यक्ष सबूत नहीं था, केवल परिस्थितिजन्य साक्ष्य थे.
आतंकवाद विशेषज्ञ और अन्य विश्लेषक गौरव के साथ बता रहे हैं कि ऐसे मामलों में 'पूरा सच' हमेशा ही मायावी होता है. संसद पर हमले के मामले में तो बिल्कुल यही दिखता है.

लोकतंत्र पर हमला?

इसमें हम 'सच' तक नहीं पहुंच पाए हैं. तार्किक रूप से, न्यायिक सिद्धांत के अनुसार 'उचित संदेह' की बात उठनी चाहिए थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. एक आदमी को जिसका अपराध महज ‘उचित संदेह से परे’ स्थापित नहीं हो पाया, फांसी पर लटका दिया गया.
चलिए हम मान लेते हैं कि भारतीय संसद पर हमला हमारे लोकतंत्र पर हमला है. तो क्या 1983 में 3,000 'अवैध बांग्लादेशियों का नेली नरसंहार क्या भारतीय लोकतंत्र पर हमला नहीं था? या 1984 में दिल्ली की सड़कों पर 3,000 से अधिक सिखों के नरसंहार क्या था?
1992 में बाबरी मस्जिद का विध्वंस भारतीय लोकतंत्र पर हमला नहीं था क्या? 1993 में मुंबई में शिवसैनिकों के नेतृत्व में हजारों मुसलमानों की हत्या भारतीय लोकतंत्र पर हमला नहीं था? गुजरात में 2002 में हुए हजारों मुसलमानों का नरसंहार क्या था? वहां प्रत्यक्ष और परिस्थितिजन्य, दोनों प्रकार के सबूत हैं जिसमें बड़े पैमाने हुए नरसंहार में हमारे प्रमुख राजनीतिक दलों के नेताओं के तार जुड़े हैं.
लेकिन 11 साल में क्या हमने कभी इसकी कल्पना तक की है कि उन्हें गिरफ्तार भी किया जा सकता है, फांसी पर चढ़ाने की बात तो छोड़ ही दीजिए. खैर छोड़िए इसे.
इसके विपरीत, उनमें से एक को- जो कभी किसी सार्वजनिक पद पर नहीं रहे- और जिनके मरने के बाद पूरे मुंबई को बंधक बना दिया था, उनका राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया गया, जबकि दूसरा व्यक्ति अगले आम चुनाव में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहा है.
इस ठंड, बुजदिली भरे रास्ते में, खाली, अतिरंजित इशारों की नकली प्रक्रिया के तहत भारतीय मार्का फासीवाद हमारे उपर आ खड़ा हुआ है.

आक्रोश

श्रीनगर के मजार-ए-शोहदा में  अफजल की समाधि के पत्थर (जिसे पुलिस ने हटा दिया था और बाद में जनता के आक्रोश की वजह से फिर से रखने के लिए बाध्य हुआ) पर लिखा है:

‘देश का शहीद, शहीद मोहम्मद अफजल, शहादत की तिथि 9 फरवरी 2013, शनिवार. इनका नश्वर शरीर भारत सरकार की हिरासत में है और अपने वतन वापसी का इंतजार कर रहा है. ‘
हम क्या कर रहे हैं, यह जानते हुए भी अफजल गुरु को एक पारंपरिक योद्धा के रुप में वर्णन करना काफी कठिन होगा. उनकी शहादत कश्मीरी युवकों के अनुभवों से आता है जिसके गवाह दसियों हजार साधारण युवा कश्मीरी रहे हैं.
उन्हें तरह-तरह की यातनाएं दी जाती हैं, उन्हें जलाया जाता है, पीटा जाता है, बिजली के झटके दिए जाते हैं, ब्लैकमेल किया जाता है और अंत में मार दिया जाता है. जब अफजल गुरू को अति-गोपनीय तरीके से फांसी पर लटका दिया गया, उन्हें फांसी पर लटकाए जाने की प्रक्रिया को बार-बार प्रहसन के रूप में पर्दे पर दिखाया गया. जब पर्दा नीचे सरका और रोशनी आई तो दर्शकों ने उस प्रहसन की तारीफ की.
समीक्षाएँ मिश्रित थी लेकिन जो कृत्य किया गया था, वह सचमुच ही बहुत घटिया था.
'पूर्ण' सच यह है कि अब अफजल गुरू मर चुका है और अब शायद हम कभी नहीं जान पाएगें कि भारतीय संसद पर हमला किसने किया था. भारतीय जनता पार्टी से उनके भयानक चुनाव जनगान को लूट लिया गया है: 'देश अभी शर्मिंदा है, अफजल अभी भी जिंदा है'. अब भाजपा को एक नए ‘जनगान’ की तलाश करनी होगी.
गिरफ्तारी से बहुत पहले अफजल गुरु एक इंसान के रूप में पूरी तरह टूट चुका था. अब जबकि वह मर चुका है, उनकी लाश पर राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश की जा रही है. लोगों के गुस्से को भड़काया जा रहा है.
कुछ समय बाद हमें उनकी चिठ्ठियां मिलेगीं, जो उसने कभी लिखी नहीं, कोई किताब मिलेंगी, जो उसने नहीं लिखी. साथ हीं कुछ ऐसी बातें भी सुनने को मिलेंगी जो उन्होंने कभी कही नहीं. ये बदसूरत खेल बदस्तूर जारी रहेगा लेकिन इससे कुछ भी नहीं बदलेगा क्योंकि जिस तरह वह जीता था और जिस तरह वह मरा. वह कश्मीरी स्मृति में लोकप्रिय रहेगा, एक नायक के रूप में, मकबूल भट्ट के कंधे से कंधा मिलाकर और उसकी मिली-जुली आभा से हिल-मिल कर.
हम बांकी लोगों के लिए उनकी कहानी तो बस ये है कि भारतीय लोकतंत्र पर वास्तविक हमला कश्मीर में सैनिकों का कब्जा है.
मोहम्मद अफजल गुरू, शांति से रहें.