चीख़ने चिल्लाने भर से काम बनने वाला नहीं है

स्वाति अर्जुन


बात बहुत छोटी सी है, और बेहद साधारण. थोड़ी व्यक्तिगत सी भी.
मुझे अपनी अब तक की ज़िंदगी में पहला मौका मिला अकेले रहने का.
मतलब, पिता, पति या भाई के रूप में पुरुष की छाया से मुक्त रहने का...वैसे मेरा एक बेटा भी है छह साल का, लेकिन उसे पुरुषों की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता.
आम भारतीय लड़की की तरह मैं पिता का घर शादी के बाद छोड़ आई थी और मेरे पति को अपनी नौकरी के कारण परदेस जाना पड़ा. इसके बाद मेरे मन में सौ तरह के सवाल उठे.
मसलन अकेले कैसी सारी ज़िम्मेदारियाँ निभा पाउंगी, घर-नौकरी और बच्चे, तीनों के साथ कैसे सामंजस्य बिठा पाउंगी ?
इसलिए नई चुनौतियों का कैसे सामना करुं, यही सोचने में व्यस्त रही.
मैं नोएडा जैसे शहर की एक पॉश कॉलोनी में एक तीन मंज़िला किराए के घर में रहती थी. पिछले पाँच बरसों में मकान मालिक के साथ बेहद संतुलित और औपचारिक सा रिश्ता रहा था.
मैंने जानबूझकर ये नहीं बताया कि पति लंबे समय के लिए बाहर गए हैं, लेकिन छह साल के बच्चे ने बड़ी मासूमियत से कह दिया, "अंकल....पापा 6 महीने बाद आएँगे."
उसके बाद शुरु हुई एक महानगर में अकेले रहने की 'हिमाक़त' की सज़ा.
जनाब को शायद लगा कि पति ने हमेशा के लिए मुँह मोड़ लिया है, या शायद बिना पुरुष की मौजूदगी में रह रही औरत एक 'ईज़ी कैच' हो सकती है.
और इसके बाद शुरु हुई एक अधेड़ उम्र के, प्राईवेट कंपनी में असिस्टेंट जनरल मैनेजर के पद पर बैठे, की घटिया कोशिश. उनकी उम्र इतनी है कि कुछ ही दिनों में नाना बनने वाले हैं.
शुरुआत हुई फ़ेसबुक पर फ्रेंड रिक्वेस्ट से, फिर मेन गेट की चाबी हटा दी गई जिससे कि मुझे उनसे चाबी माँगने जाना पड़े और ये कोशिश एक दिन मेरे कमरे तक पहुंचने के दुस्साहस पर जाकर खत्म हुई.
यह कहने में संकोच नहीं कि उस व्यक्ति के इस दुस्साहस ने मुझे डरा दिया.
ये सब कुछ इतनी तेज़ी से हुआ कि मुझे भी समझने में वक्त लग गया कि एक सभ्य सुसंस्कृत दिखने वाला व्यक्ति ऐसा क्यों कर रहा है? एक बार लगा कि कहीं मैं बेवजह शक तो नहीं कर रही, लेकिन ये संशय जल्दी ही जाता रहा.
लेकिन इस दौरान भी मैं सजग रही. कॉलोनी की सेक्रेटरी से जाकर पूरा मामला बताया ताकि सनद रहे और साथ-साथ मैंने घर छोड़ने की तैयारी कर ली. घर छोड़ते वक़्त मैंने सारा क़िस्सा उनकी पत्नी को भी बता दिया. ये और बात है कि वह अपने पति का बचाव करती रहीं.
आज उस घटना के एक महीने बाद मैं अपने छोटे से घर में बैठी ये ब्लॉग लिख रही हूं.
ख़ास बात ये है कि जब ये सब मेरे साथ घट रहा था, तब पूरे देश में महिलाओं के साथ हो रहे अत्याचारों का ज़िक्र ज़ोरों पर था. महिलाओं को कैसे सुरक्षित माहौल दिया जाए, ये चिंतन-मनन का एक लोकप्रिय मुद्दा था.
लेकिन इस घटना ने मुझे सिखाया कि विरोध की शुरुआत भी हमें ही करनी होगी. हमारे लिए कोई दूसरा व्यक्ति क़दम पहले नहीं बढ़ाएगा.
और यक़ीन मानिए जब हम ऐसा कर पाते हैं तो अपनी ही नज़रों में उपर उठते हैं. आत्मविश्वास के साथ जी पाते हैं.
इसलिए मेरे जैसी सभी महिलाओं और लड़कियों से मैं आग्रह करना चाहूंगी कि उठो, आगे बढ़ो और विरोध ज़रुर दर्ज करो.
चीखो-चिल्लाओ भी लेकिन ये याद रखते हुए कि चीख़ने चिल्लाने भर से काम बनने वाला नहीं है. क्योंकि ये लड़ाई देश, दुनिया, समाज और परिवार से पहले हमारी अपनी है.

स्वाति बीबीसी में संवाददाता हैं, उनका ये लेख बीबीसी के हिंदी ब्लाग से उधार लिया गया है।