अंबेदकर जयंती

जेब अख्तर

मुर्गे की बांग तो ठीक से सुनाई पड़ी पर भिन्सर हुआ कि नहीं, इसमें संदेह था। मटमैला और गमकता उजाला तो चारों ओर था पर सूरज भगवान का कहीं अता-पता नहीं था।

दुलारी पासवान खपरैल वाले ओसारे से निकल कर गोहाल घर में आ गए। गैया को हांकते हुए, गिने-चुने टिमटिमाते तारों पर नजर गई तो उनका शक और गहराने लगा। कुछ देर तक आकाश को यूं ही निहारते रहे फिर जैसे अपने आप से बड़बड़ाए, दुत, अब रात हो कि दिन... बिछौना छोड़ दिया तो छोड़ दिया। एक टोकरी काम पड़ा हुआ है करने के लिए... शुरू कर देते हैं चलकर अभिये से!
दांतों में नीम का दातुन दबाए, हाथ में लोटा लिए वह सरकारी इन्दारा (कुआं) की ओर चल पड़े। पर रास्ते में महसूस हुआ कि दिशा-फरागत की भी अभी कोई जल्दी नहीं है। तो फिर क्या किया जाए? गांधी मिडल स्कूल के पास पहुंचकर वह विचारने लगे। तभी उनका ध्यान स्कूल के प्रांगण में गया... मिट्टी के विशाल चबूतरे पर। अभी कल ही टोले के सभी बड़े-बूढ़ों ने मिलकर उसे बनाया था। आज मेहरारू लोगों को इसपर गोबर लीपना था। और आज ही तो होनी थी सभा, अंबेदकर जयंती के उपलक्ष्य में। इसी चबूतरे को तो मंच के रूप में इस्तेमाल किया जाना था।

पर चबूतरे का एक कोना टूटा हुआ था। लगा किसी ने जान-बूझकर यह काम किया है। वह थोड़ा और निकट गए... जानवर का भी काम हो सकता है। सियाल-सियार भी तो आते ही रहते हैं। पास ही तो जंगल-झाड़ है। जो हो, अब इसे मरम्मत तो करना ही पड़ेगा। कहां तो उनको कोई काम नहीं सूझ रहा था। यहां... एगो नये काम धरा हुआ है। अंधे को जैसे दो आंखें मिल गईं। वह धोती को घुटने तक ऊपर ले जाकर लग गए उसे सुधारने में।

ठीक ही हुआ जो भोर से पहले आंख खुल गई। स्कूल के बरामदे में वह वुफछ तलाशने लगे। शायद कुदाल और कढ़ाई। मिट्टी काटकर लाना होगा। नहीं मिला तो निकले किसी तलाश में। शायद महर टोली वालों में कोई जागता हुआ मिल ही जाएगा। तभी सुअरों को बहराता हुआ चनेसर दिखा। उसे कुदाल-ओड़ी लाने का आदेश देकर खुद मेढ़ की ओर निकल पड़े... जहां से मिट्टी काटकर ढोना था।
लेकिन नहीं, बात महंगी पड़ी। सामान तो उन तक पीछे पहुंचा। चबूतरा टूटने वाली बात हरिजन टोला में एक-एक घर तक पहले पहुंच गई कि मंच को किसी ने तोड़ दिया है। कि वे सभा नहीं होने देना चाहते। कि हम भी पता लगाकर रहेंगे किसने की है यह बदमाशी! 
टोले के लोग झुण्ड के झुण्ड पहुंचने लगे, जहां दुलारी मिट्टी खोदने में लगे हुए थे। क्या जवान और क्या बूढ़े, मेहरारू और दूध पीते बच्चे तक... असहज होते-होते सकते में आ गए दुलारी, इतने सारे लोगों को एक साथ जमा होते देख, जबकि सभा आरंभ होने में अभी देरी है। उनके माथे पर पसीने की दो-चार बूंदें और छलक आईं। उन्हें अंगोछे से पोंछते हुए किसी अशुभ की आशंका से घिर गए। भगवान जाने अब का हुआ ससुरन को!
मामला जानने के बाद उन्होंने भीड़ को दुत्कारा, दुत, ई भी कोई बात हुआ गुस्सा आने का? और मान लो इ कोई लुच्चा बदमाश का ही काम है तो यही समय है पता लगाने का! जब जो काम जरूरी हो तभी करो। चलो-चलो दिन भर का काम पड़ा हुआ है। अभी मिट्टी कट गया है इसको ढोने का बंदोबस्त करो फिलहाल! ये कहते हुए वह बालेश्वर की ओर मुड़े- बालो, कुर्सी का प्रबंध हुआ कि नहीं? सबसे ज्यादा फिकर हमको इसी बात का है। सुनते हैं दसियों जगह मनाया जा रहा है अबकी अंबेदकर जयंती, मीना टेन्ट हाउस वाला का कुर्सी पहले से बुक है। बसंत टेन्ट वाला भी पहले ही मना कर चुका है...
हां, हम बासदेव को बोल दिए हैं... आगे चट्टी पर एक नया टेन्ट वाला दुकान खुल गया है... उ ले आवेगा साइकिल पर चर-चर गो करके।    बालेश्वर ने खैनी ठोंकते हुए कहा- टेन्ट हाउस का अब कमी रह गया है इलाका में!
तब ठीक है... और टेबुल?

हेडमास्टर साहेब वाला टेबुलवा कब काम आवेगा? उसी पर सब माइक और गुलदस्ता रखा जाएगा। निकलवा लेंगे उसी को।
निकलवा का लेंगे अभी चल के निकलवा लो। अब का फिर से दिन घुरेगा इ सब काम के लिए? ये बोलते-बतियाते वह वापस स्कूल पहुंच गए। उसी चबूतरे के पास चनेसर सधे हाथों से उस पर परत-दर-परत मिट्ट्टी चढ़ा रहा था। गीली मिट्ट्टी को थपथपाते हुए उसने पूछा, सुनते हैं हमनी के  विधायक कामता बाबू मंत्राी भी बन गए हैं।
हां रे... सच्चे सुना है तू... कामता सिंह मंत्राी हो गए हैं। ग्रामीण विकास मंत्राी। गांव तो गांव जिला भर के लिए इ गर्व की बात है। चनेसर के सिर पर ओड़ी अलगाते हुए उन्होंने दर्प से कहा- उनका उपकार है कि सभा में आने के लिए राजी हो गए। नहीं तो ऐसा-ऐसा कितना प्रोग्राम उनखर पाकिट में रखल रहता है।

चनेसर ने काम रोक दिया और उनकी ओर लालायित होकर देखने लगा, जैसे वह अभी से अनुग्रहित हो रहा है। पर चनेसर का यह हाल देखकर दुलारी पासवान बिगड़ उठे, अब इतना भी खुश होने का जरूरत नहीं है... समझा! इ प्रजातंत्र है, उ मंत्राी बने हैं तो हमरा वोट के बल पर ही। अब हमरे लिए इतना भी नहीं करेंगे... हुंह!
सो तो ठीक है बड़े भैया... मगर हैं तो बड़े लोग ही न... मालिक! का भुला गए तुम भी?
मालिक-वालिक कुछ नहीं... बस्स मंत्राी है ऊ जनता के सेवक, और हम जनता हैं। घुसा तेरे दिमाग में वुफछ!
विपरीत दिशाओं वाला यह समीकरण चनेसर के लिए अनसुलझा ही रहा। अनमना-सा वह फिर से अपने काम में जुट गया। अब दुलारी भैया कह रहे हैं तो ठीक कह रहे होंगे। इस निष्कर्ष तक पहुंचते-पहुंचते कुछ हल्का होता है चनेसर का मन।
बैसाख की पहली और तीखी किरणों ने ठीक उसी समय दुलारी पासवान के चेहरे पर प्रहार किया... तीर की भांति सीधे उनकी आंखों पर। कुछ  बोलने के बजाय वह चनेसर को विचित्र आंखों से ताकने लगे। जैसे वहां चनेसर नहीं कोई और बड़ी समस्या खड़ी हो गई हो। कुछ देर के बाद उनके मुंह से बोल निकले। गाढ़े तरल की भांति, रुके-रुके-से, धीर-गंभीर।
चनेसर, जब अभी से तेरा इ हाल है तो तू मंत्री जी से हाथ कैसे मिलाएगा? कैसे बोलेगा माइक पर... कैसे संबोधित करेगा जनसभा को, ...और हमको तो इसमें भी शक है कि तुम मंत्राी जी के सामने मांगों को गिना भी पाओगे... जबकि तुम सचिव हो। हमारे अंबेदकर कल्याण समिति के  सचिव! ये बोलते-बोलते जैसे उनके चेहरे पर दुनिया भर का अपफसोस, दुनिया भर की दयनीयता उभर आई। 
चनेसर को उनकी स्थिति समझने में वुफछ क्षण लग गए, फ्हम कर लेंगे दुलारी भैया... संभाल लेंगे सब... पिछला सभा में हम बोले थे कि नहीं? भले माइक नहीं था। अपनी मांगों और समस्याओं को वैफसे भूल सकते हैं हम!य् वह माइक पर बोलने का अभिनय करने लगा, चबूतरे पर चढक़र- फ्माननीय मंत्राी जी... अधिकारीगण व साथियो...मैं आभार व्यक्त करता हूं आप सबके प्रति...
उच्चारण और भाषा की शुद्धता पर दुलारी पासवान किंचित अचंभित हुए। क्षोभ कुछ कम हुआ। निराशा तनिक दूर भागी। और उनकी आंखों में चबूतरे पर खड़े चनेसर की जगह कोई और बिम्ब उभरने लगा। उनकी नजरें कुछ और देखने लगीं।
...अभी कितना दिन गुजरा है?
जब इसी कामता सिंह, छोटे मालिक के घर में रोज बैठकी हुआ करती थी। रामनवमीकझण्डे का मौका हो या मुहर्रम, ताजिया का, कोई झगड़ा झंझट हो या कोई और आरोप-प्रत्यारोप किसी भी तरह का विवाद हुआ तो यही बैठकी विचार-विमर्श की सभा बन जाती। मन-मुटव्वल हो तो आपस में मिलने-मिलाने का बहाना बन जाता। न्याय गुहार की पंचायत बन जाती। दुलारी पासवान को याद आते हैं वे दिन। स्टिल पफोटोग्रापफी की तरह सामने आते हैं एक-एक चित्र... तब छोटे मालिक के पिताजी श्यामता प्रसाद सिंह जिन्दा थे।
फसल कटने के बाद अगहन से बैठकी का जो सिलसिला शुरू होता तो फिर सावन तक यानी बरसात आरंभ होने तक चलता। सांझ होता नहीं कि गांव के सभी बड़े-बूढ़े ठाकुर के खलिहान की ओर निकल पड़ते। धोबीखोरी, चमटोली, महरटोली, धनखेरी से लेकर बामन टोली तक के लोग जमा होते थे यहीं। एक ओर फसलों के ग_र, अनाजों की ढेरी... बिहन के धान पड़े होते। दूसरी ओर एक चारपाई पर ठाकुर साहब होते। हुक्का गुडग़ुड़ाते हुए। उनके साथ कुछ दूसरे ठाकुर लोग और साव... बनिया लोग होते।
चारपाई के सामने ही गोबर से लीपी हुई जमीन पर पलथी मारे बैठते वो। वो, यानी भुइंया, कहार, दुसाध... रजक रविदास... घर के लोग। बडक़न के सुर में सुर मिलाते। बात-बात में बत्तीसी झलकाते। हां, वही यानी नीची जाति के लोग। हरिजन, ओछ... अछूत।

बिना उद्वेलित हुए याद करते हैं दुलारी। चालीस के बाद कहां गुस्सा और कहां आक्रोश। फिर ठाकुर  साहब के यहां से नाश्ता आता। भुना हुआ चावल, चना, चुड़ा... मूढ़ी। किसी-किसी दिन चाय भी मिल जाती। अब सभी लोगों के लिए वह भी रोज-रोज कौन सेव-दालमोठ का खर्च उठा सकता है। सो वह वहीं तक सीमित रहता। चारपाई तक।
फिर ठाकुर साहब चल बसे। दुलारी पासवान हृदय से कहते हैं भगवान से- उनको स्वर्ग में स्थान दे। जात-कुजात, उंच-नीच, धर्मी-अधर्मी तो तब भी थे। मगर क्या मजाल जो कभी किसी ने अपनी सीमा तोड़ी हो। कभी किसी की बेजा महत्वाकांक्षा ने सिर उठाया हो।
ठाकुर साहब ने भले ही चारपाई पर बगल में नहीं बैठाया, या उन्होंने कभी खुद भी नहीं सोचा मगर रहे तो हमेशा ही उनके परिवार की तरह। शादी ब्याह हो या मरनी-जीनी, तीज-त्यौहार हो या कोई भी और मौका, सभी नेग वह पूछ-पूछकर जरूरत से ज्यादा देते। सतीश नाई का टोले भर में मात्रा उसी का ही मकान ढलाउवा और ततला है। मगर पूछो उससे, वह जमीन किसकी है। बड़े ठाकुर ने ही दिया था नेग में। नस्ल-दर-नस्ल वो दाढ़ी हजामत जो बनाते आ रहे थे ठाकुर परिवार की। इसी तरह धोबी, कहार, दर्जी... कितने लोग पलते थे उनके  आसरे पर, चिंता मुक्त होकर। जब भी जरूरत पड़ी ठाकुर साहब ने खुद बुलाकर पूछा।

रही न्याय-अन्याय की बात। तो कब नहीं रहा यह? कोई कह सकता है... सृष्टिके आरंभ से आज तक। रूप और बहाने बनते-बदलते रहे बस। कभी इसने धर्म का चोला पहना तो कभी कानून का मुखौटा लगा लिया। अन्याय से पृथ्वी कभी खाली नहीं रही। फिर भी न्याय की अन्याय पर जीत तो हमेशा होती रही है। और हमेशा होती रहेगी। हां, दीगर बात है कि उसके लिए भी साहस चाहिए। त्याग और बलिदान की शक्ति चाहिए। दधीची का ही किस्सा ले लो। दानवों के नाश के लिए उनको अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी या नहीं?
उसी तरह रंजन बहू को भी समझ लो इन्दारा में कूदकर... नहीं... नहीं इन्दर देवता ने ही मांगा था बलिदान उसका। गांव को कोप-प्रकोप से बचाये रखने के लिए। वह ऐसा-वैसा बलिदान नहीं था। यह बलिदान था एक नवब्याहता के सपनों का, उसकी खुशियों और अरमानों का और हम हरिजन टोला के लोग इसे अकारण नहीं जाने देंगे। थान पर एक खस्सी उसके यानी सोनरिया के नाम से भी कटेगा इस बैसाख से। हां, ठाकुर  साहब की मंशा भी यही है। और क्या कहा था उन्होंने? हां, याद आया। जैसे आकाश में मेघ टकराते थे। उसी तरह आवाज ऊंची उठती गई थी ठाकुर  साहब की, खबरदार जो इस घटना का जिक्र दोबारा किसी की जबान पर आया। हाथी बनकर पेट में पचा लेना है इसको! गांव की शांति सभा खतरे में पड़ सकती है। और गांव का हर फरद यह भी सुन ले कि रंजन गोड़ाइत भी हमारा बेटा जैसा है। हम उसका लगन फिर से कराएंगे। अपने खर्चे से। दावत-दारू और गाजा-बाजाकसाथ।

रंजन के बाबूजी गद्गद हो उठे थे। गांव का कण-कण मालामाल हो उठा था। और घटना भी कितनी सी, देखो! अरे, आज के लिए होगा यह जुलम और अन्याय। कल तक तो यह परंपरा और रीति-रिवाज का ही हिस्सा था। और रीति-रिवाज क्या ऐसे ही टूटते हैं? ऐसे ही धराशायी होती हैं परंपराएं! ऐसे ही छूटती है आदत! पान-बीड़ी की आदत को छोडऩे में सालों लग जाते हैं। और यह तो... फिर चाहिए पक्का इरादा और साहस। रंजन बहू ने पहले किया था साहस, किसी ने किया था इसका विरोध!

सभी जानते थे। सभी मानते थे। जिला भर का चलन था यह तो। छोटी जातियन के यहां विवाह होता तो पहला  न्यौता ठाकुर साहब को दिया जाता। और घूंघट की पहली सेज उन्हीं की हथेली से सजाई जाती। लाल जोड़े में सजी दुल्हन की पालकी पहले उन्हीं के दरवाजे पर लगती। फिर वह आशीर्वाद देकर विदा कर दें दुल्हन को या नेग के लिए रोक लें, उनकी मर्जी।



पालकीक साथ खुद दूल्हा भी होता था हाथ जोड़े। विनय की मुद्रा में। कि हे अन्नदाता, हे पालनहार, उद्धार कर दो हमारा भी। इ हमारा तन-मन-धन सब आप ही का है। इ हमारी बहू की आपकी है कि लक्ष्मी है, इस पर भी पहला हक आप ही का है!
ऐसा ही कुछ कहा होगा रंजन गोड़ाइत ने उस समय कि तभी घूंघट में छिपी सोनरिया की चंचल आंखें लहर उठी थीं। पोर-पोर जलन से भर उठा था। नया चेहरा, नयी जगह और तिस पर नये बोल... शौच के बहाने से एकान्त पाकर निकल पड़ी थी वह हवेली से। दूसरे दिन सोनरिया की लाश कुएं से बरामद हुई थी। उंगलियां हवेली की ओर उठने लगी थीं। खुसर-पुसर होने लगा था। थाना पुलिस के तक के बारे में सोच गए थे हरिजन टोला के हरिजन। मालूम पड़ते ही ठाकुर  दौड़े-दौड़े आए। अचानक हवा का रुख बदला हुआ पाया। सदियों से जमी मैल की परत छूट कैसे गई। उन्होंने लोगों को मनाया, पुचकारा, मिन्नत- समाजत की, हाथ तक जोडक़र खड़े हो गए। किसी तरह अशुभ टला। गांव की मर्यादा दागदार होने से बची। किन्तु अंदर ही अंदर विभाजन की लकीरें खिंच गई थीं दिलो-दिमाग पर। छोटा-बड़ा, उंच-नीच, अर्थ-अनर्थ... जैसी कितनी रेखाएं खींच गया था सोनरिया की मांग से धुला हुआ सिन्दूर। राम-सलाम... पाए लागूं... जय सरकार की... सब चल रहा था। मगर एक हूक, एक आक्रोश के साथ। खलिहान की बैठक में भी उन लोगों ने जाना बंद कर दिया था। एक ही झटके  में वीरान हो गया था लम्बा-चैड़ा खलिहान। उसकी शोभा, उसका सौंदर्य।
सांझ बेला जब ठाकुर खलिहान पहुंचते तो दो-तीन जन से अधिक लोग वहां नहीं मिलते। और वे भी वो ही, चारपाई पर बैठने वाले। सामने की खाली जगह, खाली धरती उन्हें जैसे मुंह चिढ़ाती रहती। काटने को दौड़ती। धीरे-धीरे सहिया साहू और बनियों ने भी आना छोड़ दिया। ठाकुर  साहब को भी बैर हो गया खलिहान से जैसे। जरूरत पड़ती तो भी जाने से कतराते।
बिस्तर पर मरीज की तरह लाचार और अपाहिज हो गए थे ठाकुर  श्यामता प्रसाद सिंह। कभी बीसियों गांव की जमींदारी करने वाली विरासत का यह हाल! यह दुर्गति! कि कोई खैर-खबर लेने वाला नहीं। परिवार के लोगों को क्या गिनना। लड़ते रहते अपने अकेलेपन से। मन होता, भंभाड़ रोएं या तान लें दोनाली अपने ही सीने पर।
और देखो, अनर्थ इतने पर ही जाकर नहीं रुका। एक और बिजली गिरी फिर। एक और पहाड़ टूटा सीने पर। सुनने में आया, गांव में एक अलग बैठकी होने लगी है हरिजन टोला में। टोटन पासवान के यहां। सब अपनी सुनाते हैं, अपनी कहते हैं। देर रात तक चलती है बैठकी। खूब हा-हा, ही-ही होता है। टोटन का बेटवा भी आया हुआ है कोलवरी से। वहां मिस्त्री है किसी मोटर गैराज में।
जाने क्या-क्या बताता फिर रहा है सबको। डॉक्टर अम्बेदकर... शिक्षा... संगठन। कुछ किताबें भी लाया है। बैठकी में सुनाता है पढक़र। गांधी जी को बनिया कहता है। और हरिजन शब्द को लॉलीपाप माने लेमनचूस... माने लडक़न बच्चन को फुसलाने का सामान। कहता है, अब तो जगना होगा। फिर कमर कसना होगा। और इ भी जान लो