अभी एनएच-10 आई है जिसके बड़ी सराहना हो रही है। अभी तक देखी नहीं है लेकिन लगता है फिल्म में कुछ खास है। देखने की तैयारी में हूं। शायद आज-कल में देख लूं। लेकिन इस फिल्म में इस बात की चर्चा की अलग से हो रही है कि फिल्म की नायिका अनुष्का ने इसके निर्माण में पैसा भी लगाया है। इस तरह के कदम के स्वागत होना चाहिए। कितनी ही अच्छी कहानियां और आइडयाज सिर्फ इसलिए धरे रह जाते हैं कि पारंपरिक निर्माता उसके मर्म को नहीं समझ पाते। इसे एक कलाकार मन ही अच्छी तरह से समझ सकता है। और अंततः अभिनेत्रियां भी कलाकार हैं। सो अनुष्का ने इस कहानी का मर्म समझा होगा। तभी वो उन्होंने इस फिल्म के निर्माण में दिलचस्पी दिखाई। हॉलीवुड में तो ये प्रचलन और भी पुराना है। बहरहाल निर्माता अभिनेत्रियों पर ये पोस्ट।
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पहले भी अभिनेत्रियां (हीरोइनें) प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से निर्माता बनती रही हैं। नरगिस, मीना कुमारी आदि से लेकर प्रीति जिंटा तक अनेक नाम
लिए जा सकते हैं। निर्माता बनने की
उनकी कोशिश परिवार
और रिश्तेदारों की भलाई के लिए होती थी। या फिर करिअर के उतार पर आमदनी और कमाई के लिए वे पुराने रसूख और लोकप्रियता का इस्तेमाल कर निर्माता बन जाती थीं। इनमें से किसी
को भी उल्लेखनीय सफलता नहीं मिली।
ऐसा लगता है कि वे
जिस संयोग से फिल्म निर्माण में आती थीं,
लगभग वैसे ही संयोग से फिल्म निर्माण से दूर भी चली
जाती थीं। इधर एक नया ट्रेंड बनता
दिख रहा है। अभी
अभिनेत्रियां अपने करिअर के उठान पर ही निर्माता बनने से लेकर फिल्म निर्माण में हिस्सेदारी तक कर रही हैं।
इन दिनों अनुष्का शर्मा दिल्ली के आसपास ‘एनएच 10’ की शूटिंग कर रही हैं। वह फैंटम के साथ मिल कर इस फिल्म का निर्माण कर रही हैं। उन्हें डायरेक्टर नवदीप सिंह की स्क्रिप्ट इतनी पसंद आई कि उन्होंने खुद ही निर्माता बनने का फैसला कर लिया। अनुष्का शर्मा एक तरफ राज कुमार हिरानी की फिल्म ‘पीके’ में आमिर खान की नायिका हैं तो दूसरी तरफ अनुराग कश्यप की ‘बांबे वेलवेट’ में वह रणबीर कपूर के साथ दिखेंगी। कह सकते हैं कि फिलवक्त वह अपने करिअर के उठान पर है। ऐसे वक्त में निर्माता बनने का फैसला सचमुच एक साहसिक कदम है।
हिंदी फिल्म इंडस्ट्री भी भारतीय समाज के दूसरे क्षेत्रों की तरह पुरुष प्रधान है। यहां भी ज्यादातर सुविधाएं और लाभ पुरुषों के लिए उपलब्ध एवं सुरक्षित हैं। फिल्मों में अभिनेत्रियों का योगदान और सहयोग परिधि पर ही रहता है। वे किसी भी फिल्म की केंद्रीय फोर्स नहीं बन पाती हैं। इधर गौर करें तो सभी पापुलर पुरुष स्टार निर्माता बन चुके हैं। अच्छी और बड़ी फिल्मों को किसी न किसी तरह वे अपने बैनर तले ले आते हैं। पहले जो अभिनेता निर्देशन में आना चाहते थे, वे ही ज्यादातर निर्माता बनते थे। आमिर खान ने ‘लगान’ से एक नई परंपरा शुरू की। दोस्त आशुतोष गोवारीकर की अपारंपरिक स्क्रिप्ट में कोई भी निर्माता निवेश के लिए नहीं तैयार हुआ तो उन्होंने खुद ही निर्माता बनने का फैसला किया। उनके आगे-पीछे सलमान खान और शाहरुख खान भी निर्माण में उतरे। याद करें तो उनकी समकालीन अभिनेत्रियों में से एक-दो ने कारण विशेष से निर्माता बनने की छिटपुट कोशिश की। कोई भी अनुष्का शर्मा की तरह सीधे निर्माण में नहीं उतरा।
और सिर्फ अनुष्का शर्मा ही क्यों? पिछले साल की सर्वाधिक सफल अभिनेत्री दीपिका पादुकोण ने नई फिल्म ‘फाइंडिग फैनी फर्नांडिस’ के निर्माण में शेयरिंग सेअप्रत्यक्ष हिस्सेदारी की है। वह इस फिल्म के लिए सीधे परिश्रमिक नहीं ले रही हैं। फिल्म के लाभ में उनकी शेयरिंग रहेगी। ऐसी शेयरिंग आमिर खान से सनी देओल तक करते रहे हैं। कह सकते हैं कि हिंदी फिल्मों में इधर अभिनेत्रियों का दबदबा बढ़ा है या वे अपने प्रभाव का सदुपयोग कर रही हैं। इधर शिल्पा शेट्टी भी फिल्म निर्माण में उतरी हैं। प्रियंका चोपड़ा अभिनय और गायकी के बाद अब निर्माण में हाथ आजमाना चाहती हैं। दीया मिर्जा अपनी दूसरी फिल्म ‘बॉबी जासूस’ का निर्माण कर रही हैं।
दरअसल, इधर निर्माता की भूमिका और पहचान बदली है। पहले की तरह निवेश की मुश्किलें नहीं रह गई हैं। फिर निर्माण में पारदर्शिता आने से छल-प्रपंच कम हुआ है। पहले के निर्माता काइयां और चालाक किस्म के प्राणि माने जाते थे। ऐसी धारणा थी कि फिल्म निर्माण में स्त्रियां नहीं आ सकतीं, क्योंकि अजीबोगरीब निवेशकों और वितरकों से मिलना पड़ता है। कारपोरेट प्रोडक्शन घरानों के आने से निर्माण और वितरण का काम आसान हुआ है। अब जरूरी नहीं है कि फिल्म प्रदर्शन का बोझ भी निर्माता उठाए। फिल्म बन जाने के बाद किसी कारपोरेट को बेच कर वे लाभ में हिस्सेदार हो सकती हैं।
देखना यह होगा कि अभिनेत्रियों के फिल्म निर्माण में आने से फिल्म का कंटेंट कितना बदलता है। कहते हैं कि जिसकी पूंजी होती है, उसी का दिमाग चलता है। वह अपनी मर्जी और चाहत की फिल्में बनवाता है। अगर अभिनेत्रियां फिल्म निर्माण में उतर रही हैं तो हम उम्मीद करते हैं कि फिल्मों में पर्दे पर महिलाओं की भूमिका और मौजूदगी भी बढ़ेगी। ऐसा नहीं होता है तो वह अफसोसनाक बात होगी।
चवन्नी चैप से उड़ाया है- जेब अख्तर
इन दिनों अनुष्का शर्मा दिल्ली के आसपास ‘एनएच 10’ की शूटिंग कर रही हैं। वह फैंटम के साथ मिल कर इस फिल्म का निर्माण कर रही हैं। उन्हें डायरेक्टर नवदीप सिंह की स्क्रिप्ट इतनी पसंद आई कि उन्होंने खुद ही निर्माता बनने का फैसला कर लिया। अनुष्का शर्मा एक तरफ राज कुमार हिरानी की फिल्म ‘पीके’ में आमिर खान की नायिका हैं तो दूसरी तरफ अनुराग कश्यप की ‘बांबे वेलवेट’ में वह रणबीर कपूर के साथ दिखेंगी। कह सकते हैं कि फिलवक्त वह अपने करिअर के उठान पर है। ऐसे वक्त में निर्माता बनने का फैसला सचमुच एक साहसिक कदम है।
हिंदी फिल्म इंडस्ट्री भी भारतीय समाज के दूसरे क्षेत्रों की तरह पुरुष प्रधान है। यहां भी ज्यादातर सुविधाएं और लाभ पुरुषों के लिए उपलब्ध एवं सुरक्षित हैं। फिल्मों में अभिनेत्रियों का योगदान और सहयोग परिधि पर ही रहता है। वे किसी भी फिल्म की केंद्रीय फोर्स नहीं बन पाती हैं। इधर गौर करें तो सभी पापुलर पुरुष स्टार निर्माता बन चुके हैं। अच्छी और बड़ी फिल्मों को किसी न किसी तरह वे अपने बैनर तले ले आते हैं। पहले जो अभिनेता निर्देशन में आना चाहते थे, वे ही ज्यादातर निर्माता बनते थे। आमिर खान ने ‘लगान’ से एक नई परंपरा शुरू की। दोस्त आशुतोष गोवारीकर की अपारंपरिक स्क्रिप्ट में कोई भी निर्माता निवेश के लिए नहीं तैयार हुआ तो उन्होंने खुद ही निर्माता बनने का फैसला किया। उनके आगे-पीछे सलमान खान और शाहरुख खान भी निर्माण में उतरे। याद करें तो उनकी समकालीन अभिनेत्रियों में से एक-दो ने कारण विशेष से निर्माता बनने की छिटपुट कोशिश की। कोई भी अनुष्का शर्मा की तरह सीधे निर्माण में नहीं उतरा।
और सिर्फ अनुष्का शर्मा ही क्यों? पिछले साल की सर्वाधिक सफल अभिनेत्री दीपिका पादुकोण ने नई फिल्म ‘फाइंडिग फैनी फर्नांडिस’ के निर्माण में शेयरिंग सेअप्रत्यक्ष हिस्सेदारी की है। वह इस फिल्म के लिए सीधे परिश्रमिक नहीं ले रही हैं। फिल्म के लाभ में उनकी शेयरिंग रहेगी। ऐसी शेयरिंग आमिर खान से सनी देओल तक करते रहे हैं। कह सकते हैं कि हिंदी फिल्मों में इधर अभिनेत्रियों का दबदबा बढ़ा है या वे अपने प्रभाव का सदुपयोग कर रही हैं। इधर शिल्पा शेट्टी भी फिल्म निर्माण में उतरी हैं। प्रियंका चोपड़ा अभिनय और गायकी के बाद अब निर्माण में हाथ आजमाना चाहती हैं। दीया मिर्जा अपनी दूसरी फिल्म ‘बॉबी जासूस’ का निर्माण कर रही हैं।
दरअसल, इधर निर्माता की भूमिका और पहचान बदली है। पहले की तरह निवेश की मुश्किलें नहीं रह गई हैं। फिर निर्माण में पारदर्शिता आने से छल-प्रपंच कम हुआ है। पहले के निर्माता काइयां और चालाक किस्म के प्राणि माने जाते थे। ऐसी धारणा थी कि फिल्म निर्माण में स्त्रियां नहीं आ सकतीं, क्योंकि अजीबोगरीब निवेशकों और वितरकों से मिलना पड़ता है। कारपोरेट प्रोडक्शन घरानों के आने से निर्माण और वितरण का काम आसान हुआ है। अब जरूरी नहीं है कि फिल्म प्रदर्शन का बोझ भी निर्माता उठाए। फिल्म बन जाने के बाद किसी कारपोरेट को बेच कर वे लाभ में हिस्सेदार हो सकती हैं।
देखना यह होगा कि अभिनेत्रियों के फिल्म निर्माण में आने से फिल्म का कंटेंट कितना बदलता है। कहते हैं कि जिसकी पूंजी होती है, उसी का दिमाग चलता है। वह अपनी मर्जी और चाहत की फिल्में बनवाता है। अगर अभिनेत्रियां फिल्म निर्माण में उतर रही हैं तो हम उम्मीद करते हैं कि फिल्मों में पर्दे पर महिलाओं की भूमिका और मौजूदगी भी बढ़ेगी। ऐसा नहीं होता है तो वह अफसोसनाक बात होगी।
चवन्नी चैप से उड़ाया है- जेब अख्तर