कलीम आजिज को बचपन से पढ़ता रहा। एक दोस्त हसनैन कादिरी के मार्फत। तब
आम मुसलमान नौजवानों की तरह शायरी की तरफ रुझान बढ़ रहा था। हसनैन भाई अब
दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उन्होंने ऊंगली पकड़कर अदब और शायरी की जिन
गलियों की सैर कराई थी वो अब तक याद है। और इससे भी ज्यादा याद है उनका वो
वाल्हाना मुहब्बत जो किसी भी मशरूफियत के बीच उदास कर देता है। रूला देता
है। बहरहाल ये बाद में समझ में आया कि कलीम आजिज ऐेसे शायरों में थे
जिन्होंने छपने-छपाने को कभी तरजीह नहीं दी। संपादकों को कभी घास नहीं डाला।
बस लिखते रहे। उनके दो मजमुए भी आए। लेकिन शायद उन्होंने खुद शाया कराए
थे। दोनों मजमुए हसनैन साहब से ही मुझे मिले थे। कलीम आजिज की शायरी में वो
एनफरादियत (अलग पहचान) है जिसके लिए उर्दू के शायर ताउम्र तरसते रहते हैं।
यहां हाजिर हैं उनको याद करते हुए ये पोस्ट। बहुत अदब के साथ- जेब अख्तर
By सिद्धान्त मोहन
कलीम आजिज़, यानी वह शख्स जो मीर की रवायत को अब तक बनाए रखे हुए था, हमें और उर्दू शायरी छोड़ चले गए. यह छोड़कर जाना सिर्फ़ एक सुखनवर के गुज़र जाने का होता तो कोई बात भी थी, लेकिन यह जाना पूरी उर्दू शायरी और उससे कमोबेश हर हाल में प्रभावित रहने वाली हिन्दी कविता के एक बड़े अध्याय का जाना था.
आपातकाल के वक्त इंदिरा गांधी के लिए कलीम साहब ने कहा था –
रखना है कहीं तो पाँव तो रखो हो कहीं पाँव
चलना ज़रा आया तो इतराए चलो हो.
और....
दामन पे कोई छींट न खंजर पे कोई दाग़
तुम क़त्ल करो हो कि करामात करो हो
और इसी के साथ कलीम साहब की शायरी के सियासी लहज़े को भी वह मक़ाम मिला, जो आज हम सबके सामने है. बात ज़ाहिर करने के लिए मीर की पूरी परम्परा को अख्तियार करते हुए कलीम आजिज़ ने अपने अंदाज़-ए-बयां को फ़िर भी पूरी मकबूलियत दी.
हम ख़ाकनशीं तुम सुखन आरा-ए-सरे बाम
पास आके मिलो दूर से क्या बात करो हो
इसके साथ-साथ कलीम आजिज़ ने हरेक सामाजिक पहलू को अपनी शायरी में समेटने का बीड़ा उठाया. चाहे इश्क करना हो या क़ाफिर साबित होना हो, कहीं भी कलीम साहब ने भाषा और लहज़े को मुक़म्मिल बनाए रखा. किसी भी स्थिति को साफ़ और ज़ाहिर तरीकों से सामने रखने के लिए जो अंदाज़ कलीम आजिज़ ने अख्तियार किया था, वह आज भी प्रासंगिक और पूरे वजूद में बना हुआ है.
अंदर हड्डी-हड्डी सुलगे बाहर नज़र न आए
बहुत कम कवियों और शाइरों के साथ ऐसा होता आया है कि उनकी ही किसी नज़्म, शेर या कविता के साथ ही उनका व्यक्तित्व या उनके जाने को बयां किया जा सके. उन बेहद कम लोगों की फ़ेहरिस्त में कलीम आजिज़ का नाम गिना जा रहा है.
दर्द का इक संसार पुकारे, खींचे और बुलाए
लोग कहे हैं ठहरो-ठहरो ठहरा कैसे जाए
ऐसा कम हुआ है कि किसी शायर की मौत पर सियासतदार ने अपना गम ज़ाहिर किया हो. अपनी राजनीतिक विषमताओं से दो-चार हो रहे राज्य बिहार के नेता नीतीश कुमार ने कहा, ‘बिहार में हिन्दू-मुस्लिम इत्तिहाद का बड़ा पैरोकार हमारे बीच से चला गया है. कलीम साहब के जाने से उर्दू अदीब का एक बड़ा सितारा बुझ गया.’
बिहार में क़ाबिज़ रंगकर्मी हृषिकेश सुलभ कहते हैं, ‘पोएट(शायर) दो तरह के होते हैं – एक सिर्फ़ पोएट और दूसरे पोएट ऑफ़ पोएट्स. कलीम आजिज़ दूसरे किस्म के शायर थे. उन्होंने शायरी और जीवन के कई दौर देखे थे. अज़ीमाबाद की शायरी के वे बड़े नामों में शुमार थे.’
शायरी में पसरे पॉपुलर कल्चर के बारे में बात करने पर सुलभ कहते हैं, ‘जिस तरह यह ज़रूरी नहीं कि जो लोकप्रिय हो वह अच्छा हो, इसलिए यह भी ज़रूरी नहीं कि जो लोकप्रिय हो वह ख़राब भी हो. कलीम आजिज़ की लोकप्रियता के अपने मानी थे. वे बशीर बद्र व निदा फाज़ली तरह नहीं थे, इसका मतलब यह नहीं कि उनकी शायरी कमज़ोर थी. वे गंभीर थे, जब वे पढ़ना शुरू करते थे तो हर कोई शान्त होकर उन्हें सुनता था. उनके आगे-पीछे कोई नहीं होता था. उन्होंने शायरी के मेआर को बनाए रखा था.’
हिन्दी कवि और आलोचक असद ज़ैदी कहते हैं, ‘मुझे आज से क़रीब 40 साल पहले एक मित्र ने कलीम साहब की गज़ल पढ़ाई थी. उस समय मेरा परिचय आजिज़ की शायरी से हुआ था. मैं कहूँगा कि मीर के लहज़े और डिक्शन को पूरी मजबूती के साथ पकड़ने वाले शायर आजिज़ साहब थे.’ असद ज़ैदी आगे कहते हैं, ‘विभाजन के दौरान कलीम आजिज़ के समूचे परिवार का ख़ात्मा कर दिया गया था. हमें और आपको पता है कि इसके क़त्ल-ए-आम के पीछे कौन था? आजिज़ साहब को भी पता था. लेकिन यह अचरज का विषय है कि इन सबके बावजूद उन्होंने अपनी पढ़ाई और नौकरी का रास्ता बुलंद किया.’ गुमनामी के बारे में बात करते हुए असद ज़ैदी कहते हैं, ‘बिहार के बाहर मुट्ठीभर पाठक ही हैं, जो आजिज़ साहब को पढ़ते-जानते हैं. उर्दू शायरी के चुनिन्दा नाम ही सभी को पता हैं. लेकिन यह जानना ज़रूरी है कि गंभीरता और ख़ामोशी के साथ शायरी करने वाला शायर कलीम आजिज़ है.’
साफ़ है कि हिन्दी के कल्चर में जिस तरह केवल चुनिन्दा शाइरों का नाम प्रचलन में रहा, उसका शिकार कलीम आजिज़ की शख्सियत भी हुई. उन्हें हिन्दी पट्टी के पाठकों ने नहीं पढ़ा. युवाओं में उनकी उपस्थिति बिलकुल गायब थी. युवाओं के पास ग़ालिब, मीर और फैज़ सरीखे बड़े नाम तो थे लेकिन इन नामों से नया परिष्कार क्या हुआ, बेहद कम लोगों को मालूम है.
और ये उनकी कुछ यादगार गजलें-
1-
--- TwoCircles.net से उधार।
By सिद्धान्त मोहन
कलीम आजिज़, यानी वह शख्स जो मीर की रवायत को अब तक बनाए रखे हुए था, हमें और उर्दू शायरी छोड़ चले गए. यह छोड़कर जाना सिर्फ़ एक सुखनवर के गुज़र जाने का होता तो कोई बात भी थी, लेकिन यह जाना पूरी उर्दू शायरी और उससे कमोबेश हर हाल में प्रभावित रहने वाली हिन्दी कविता के एक बड़े अध्याय का जाना था.
आपातकाल के वक्त इंदिरा गांधी के लिए कलीम साहब ने कहा था –
रखना है कहीं तो पाँव तो रखो हो कहीं पाँव
चलना ज़रा आया तो इतराए चलो हो.
और....
दामन पे कोई छींट न खंजर पे कोई दाग़
तुम क़त्ल करो हो कि करामात करो हो
और इसी के साथ कलीम साहब की शायरी के सियासी लहज़े को भी वह मक़ाम मिला, जो आज हम सबके सामने है. बात ज़ाहिर करने के लिए मीर की पूरी परम्परा को अख्तियार करते हुए कलीम आजिज़ ने अपने अंदाज़-ए-बयां को फ़िर भी पूरी मकबूलियत दी.
हम ख़ाकनशीं तुम सुखन आरा-ए-सरे बाम
पास आके मिलो दूर से क्या बात करो हो
इसके साथ-साथ कलीम आजिज़ ने हरेक सामाजिक पहलू को अपनी शायरी में समेटने का बीड़ा उठाया. चाहे इश्क करना हो या क़ाफिर साबित होना हो, कहीं भी कलीम साहब ने भाषा और लहज़े को मुक़म्मिल बनाए रखा. किसी भी स्थिति को साफ़ और ज़ाहिर तरीकों से सामने रखने के लिए जो अंदाज़ कलीम आजिज़ ने अख्तियार किया था, वह आज भी प्रासंगिक और पूरे वजूद में बना हुआ है.
अंदर हड्डी-हड्डी सुलगे बाहर नज़र न आए
बहुत कम कवियों और शाइरों के साथ ऐसा होता आया है कि उनकी ही किसी नज़्म, शेर या कविता के साथ ही उनका व्यक्तित्व या उनके जाने को बयां किया जा सके. उन बेहद कम लोगों की फ़ेहरिस्त में कलीम आजिज़ का नाम गिना जा रहा है.
दर्द का इक संसार पुकारे, खींचे और बुलाए
लोग कहे हैं ठहरो-ठहरो ठहरा कैसे जाए
ऐसा कम हुआ है कि किसी शायर की मौत पर सियासतदार ने अपना गम ज़ाहिर किया हो. अपनी राजनीतिक विषमताओं से दो-चार हो रहे राज्य बिहार के नेता नीतीश कुमार ने कहा, ‘बिहार में हिन्दू-मुस्लिम इत्तिहाद का बड़ा पैरोकार हमारे बीच से चला गया है. कलीम साहब के जाने से उर्दू अदीब का एक बड़ा सितारा बुझ गया.’
बिहार में क़ाबिज़ रंगकर्मी हृषिकेश सुलभ कहते हैं, ‘पोएट(शायर) दो तरह के होते हैं – एक सिर्फ़ पोएट और दूसरे पोएट ऑफ़ पोएट्स. कलीम आजिज़ दूसरे किस्म के शायर थे. उन्होंने शायरी और जीवन के कई दौर देखे थे. अज़ीमाबाद की शायरी के वे बड़े नामों में शुमार थे.’
शायरी में पसरे पॉपुलर कल्चर के बारे में बात करने पर सुलभ कहते हैं, ‘जिस तरह यह ज़रूरी नहीं कि जो लोकप्रिय हो वह अच्छा हो, इसलिए यह भी ज़रूरी नहीं कि जो लोकप्रिय हो वह ख़राब भी हो. कलीम आजिज़ की लोकप्रियता के अपने मानी थे. वे बशीर बद्र व निदा फाज़ली तरह नहीं थे, इसका मतलब यह नहीं कि उनकी शायरी कमज़ोर थी. वे गंभीर थे, जब वे पढ़ना शुरू करते थे तो हर कोई शान्त होकर उन्हें सुनता था. उनके आगे-पीछे कोई नहीं होता था. उन्होंने शायरी के मेआर को बनाए रखा था.’
हिन्दी कवि और आलोचक असद ज़ैदी कहते हैं, ‘मुझे आज से क़रीब 40 साल पहले एक मित्र ने कलीम साहब की गज़ल पढ़ाई थी. उस समय मेरा परिचय आजिज़ की शायरी से हुआ था. मैं कहूँगा कि मीर के लहज़े और डिक्शन को पूरी मजबूती के साथ पकड़ने वाले शायर आजिज़ साहब थे.’ असद ज़ैदी आगे कहते हैं, ‘विभाजन के दौरान कलीम आजिज़ के समूचे परिवार का ख़ात्मा कर दिया गया था. हमें और आपको पता है कि इसके क़त्ल-ए-आम के पीछे कौन था? आजिज़ साहब को भी पता था. लेकिन यह अचरज का विषय है कि इन सबके बावजूद उन्होंने अपनी पढ़ाई और नौकरी का रास्ता बुलंद किया.’ गुमनामी के बारे में बात करते हुए असद ज़ैदी कहते हैं, ‘बिहार के बाहर मुट्ठीभर पाठक ही हैं, जो आजिज़ साहब को पढ़ते-जानते हैं. उर्दू शायरी के चुनिन्दा नाम ही सभी को पता हैं. लेकिन यह जानना ज़रूरी है कि गंभीरता और ख़ामोशी के साथ शायरी करने वाला शायर कलीम आजिज़ है.’
साफ़ है कि हिन्दी के कल्चर में जिस तरह केवल चुनिन्दा शाइरों का नाम प्रचलन में रहा, उसका शिकार कलीम आजिज़ की शख्सियत भी हुई. उन्हें हिन्दी पट्टी के पाठकों ने नहीं पढ़ा. युवाओं में उनकी उपस्थिति बिलकुल गायब थी. युवाओं के पास ग़ालिब, मीर और फैज़ सरीखे बड़े नाम तो थे लेकिन इन नामों से नया परिष्कार क्या हुआ, बेहद कम लोगों को मालूम है.
और ये उनकी कुछ यादगार गजलें-
1-
इस नाज़ से, अंदाज़ से तुम हाये चलो हो
रोज एक ग़ज़ल हमसे कहलवाये चलो हो
रोज एक ग़ज़ल हमसे कहलवाये चलो हो
रखना है कहीं पांव
तो रक्खो हो कहीं पांव
चलना जरा आ जाये तो इतराये चलो हो
चलना जरा आ जाये तो इतराये चलो हो
दीवान-ए-गुल
क़ैदी-ए-जंजीर है और तुम
क्या ठाठ से गुलशन की हवा खाये चलो हो
क्या ठाठ से गुलशन की हवा खाये चलो हो
मय में कोई ख़ामी
है न साग़र में कोई खोट
पीना नहीं आये है तो छलकाये चलो हो
पीना नहीं आये है तो छलकाये चलो हो
हम कुछ नहीं कहते
हैं, कोई कुछ नहीं कहता
तुम क्या हो तुम्हीं सबसे कहलवाये चलो हो
तुम क्या हो तुम्हीं सबसे कहलवाये चलो हो
ज़ुल्फ़ों की तो
फ़ितरत है लेकिन मेरे प्यारे
ज़ुल्फ़ो से भी ज्यादा बलख़ाये चलो हो
ज़ुल्फ़ो से भी ज्यादा बलख़ाये चलो हो
वो शोख़ सितमगर तो
सितम ढ़ाये चले है
तुम हो के कलीम अपनी ग़ज़ल गाये चलो हो
तुम हो के कलीम अपनी ग़ज़ल गाये चलो हो
2.
दिन एक सितम, एक सितम रात करो हो
वो दोस्त हो, दुश्मन को भी जो मात करो हो
वो दोस्त हो, दुश्मन को भी जो मात करो हो
मेरे ही लहू पर
गुज़र औकात करो हो
मुझसे ही अमीरों की तरह बात करो हो
मुझसे ही अमीरों की तरह बात करो हो
हम खाकनशीं तुम
सुखन आरा ए सरे बाम
पास आके मिलो दूर से क्या बात करो हो
पास आके मिलो दूर से क्या बात करो हो
हमको जो मिला है
वो तुम्हीं से तो मिला है
हम और भुला दें तुम्हें? क्या बात करो हो
हम और भुला दें तुम्हें? क्या बात करो हो
दामन पे कोई छींट
न खंजर पे कोई दाग
तुम क़त्ल करो हो कि करामात करो हो
तुम क़त्ल करो हो कि करामात करो हो
यूं तो कभी मुँह
फेर के देखो भी नहीं हो
जब वक्त पड़े है तो मुदारात करो हो
जब वक्त पड़े है तो मुदारात करो हो
बकने भी दो आजिज़
को जो बोले है बके है
दीवाना है, दीवाने से क्या बात करो हो.
दीवाना है, दीवाने से क्या बात करो हो.
3.
ज़ालिम था वो और ज़ुल्म की आदत भी बहुत थी
मजबूर थे हम उस से मुहब्बत भी बहुत थी
ज़ालिम था वो और ज़ुल्म की आदत भी बहुत थी
मजबूर थे हम उस से मुहब्बत भी बहुत थी
उस बुत के सितम सह
के दिखा ही दिया हम ने
गो अपनी तबियत में बगावत भी बहुत थी
गो अपनी तबियत में बगावत भी बहुत थी
वाकिफ ही न था
रंज-ए-मुहब्बत से वो वरना
दिल के लिए थोड़ी सी इनायत भी बहुत थी
दिल के लिए थोड़ी सी इनायत भी बहुत थी
यूं ही नहीं
मशहूर-ए-ज़माना मेरा कातिल
उस शख्स को इस फन में महारत भी बहुत थी
उस शख्स को इस फन में महारत भी बहुत थी
क्या दौर-ए-ग़ज़ल
था के लहू दिल में बहुत था
और दिल को लहू करने की फुर्सत भी बहुत थी
और दिल को लहू करने की फुर्सत भी बहुत थी
हर शाम सुनाते थे
हसीनो को ग़ज़ल हम
जब माल बहुत था तो सखावत भी बहुत थी
जब माल बहुत था तो सखावत भी बहुत थी
बुलावा के हम
"आजिज़" को पशेमान भी बहुत हैं
क्या कीजिये कमबख्त की शोहरत भी बहुत थी
क्या कीजिये कमबख्त की शोहरत भी बहुत थी
4.
ये आँसू बे-सबब
जारी नहीं है
मुझे रोने की बीमारी नहीं है
मुझे रोने की बीमारी नहीं है
न पूछो
ज़ख्म-हा-ए-दिल का आलम
चमन में ऐसी गुल-कारी नहीं है
चमन में ऐसी गुल-कारी नहीं है
बहुत दुश्वार
समझाना है गम का
समझ लेने में दुश्वारी नहीं है
समझ लेने में दुश्वारी नहीं है
गज़ल ही गुनगुनाने
दो मुझ को
मिज़ाज-ए-तल्ख-गुफ्तारी नहीं है
मिज़ाज-ए-तल्ख-गुफ्तारी नहीं है
चमन में क्यूँ
चलूँ काँटों से बच कर
ये आईन-ए-वफादारी नहीं है
ये आईन-ए-वफादारी नहीं है
वो आएँ कत्ल को
जिस रोज चाहें
यहाँ किस रोज़ तैयारी नहीं है
यहाँ किस रोज़ तैयारी नहीं है
5.
नज़र को आइना दिल को तेरा शाना बना देंगे
तुझे हम क्या से क्या ऐ जुल्फ-ए-जनाना बना देंगे
नज़र को आइना दिल को तेरा शाना बना देंगे
तुझे हम क्या से क्या ऐ जुल्फ-ए-जनाना बना देंगे
हमीं अच्छा है बन
जाएँ सरापा सर-गुजिश्त अपनी
नहीं तो लोग जो चाहेंगे अफसाना बना देंगे
नहीं तो लोग जो चाहेंगे अफसाना बना देंगे
उम्मीद ऐसी न थी
महफिल के अर्बाब-ए-बसीरत से
गुनाह-ए-शम्मा को भी जुर्म-ए-परवाना बना देंगे
गुनाह-ए-शम्मा को भी जुर्म-ए-परवाना बना देंगे
हमें तो फिक्र
दिल-साज़ी की है दिल है तो दुनिया है
सनम पहले बना दें फिर सनम-खाना बना देंगे
सनम पहले बना दें फिर सनम-खाना बना देंगे
न इतना छेड़ कर ऐ
वक्त दीवाना बना हम को
हुए दीवाने हम तो सब को दीवाना बना देंगे
हुए दीवाने हम तो सब को दीवाना बना देंगे
न जाने कितने दिल
बन जाएँगे इक दिल के टुकड़े से
वो तोड़ें आईना हम आईना-खाना बना देंगे
वो तोड़ें आईना हम आईना-खाना बना देंगे
6.
मेरी मस्ती के
अफसाने रहेंगे
जहाँ गर्दिश में पैमाने रहेंगे
जहाँ गर्दिश में पैमाने रहेंगे
निकाले जाएँगे
अहल-ए-मोहब्बत
अब इस महफिल में बे-गाने रहेंगे
अब इस महफिल में बे-गाने रहेंगे
यही
अंदाज-ए-मै-नोशी रहेगा
तो ये शीशे न पैमाने रहेंगे
तो ये शीशे न पैमाने रहेंगे
रहेगा सिलसिला
दा-ओ-रसन का
जहाँ दो-चार दीवाने रहेंगे
जहाँ दो-चार दीवाने रहेंगे
जिन्हें गुलशन में
ठुकराया गया है
उन्हीं फूलों के अफसाने रहेंगे
उन्हीं फूलों के अफसाने रहेंगे
ख़िरद ज़ंजीर
पहनाती रहेगी
जो दीवाने हैं दीवाने रहेंगे
जो दीवाने हैं दीवाने रहेंगे
(परिचय :
असली नाम : कलीम अहमद
जन्म :11 अक्तूबर 1924, तेलहाड़ा (जिला पटना) में हुआ।
शिक्षा : पटना विश्वविद्यालय से र्दू साहित्य के विकास पर पीएचडी
सेवा : 1964-65 में पटना कालेज में लेक्चरर हुए और 1986 में सेवानिवृत्त हुए। वर्तमान समय में बिहार सरकार, उर्दू मुशावरती कमिटी के अध्यक्ष थे ।
सृजन : मजलिसे अदब (आलोचना); वो जो शाइरी का सबब हुआ, जब फसले बहाराँ आई थी(ग़ज़ल संग्रह); फिर ऐसा नज़ारा नहीं होगा, कूचा-ए जानाँ जानाँ (ग़ज़लों एवं नज़्मों का संग्रह); जहाँ ख़ुशबू ही ख़ुशबू थी, अभी सुन लो मुझसे (आत्मकथा); मेरी ज़बान मेरा क़लम (लेखों का संग्रह, दो भाग); दफ़्तरे गुम गश्ता (शोध); दीवाने दो, पहलू न दुखेगा (पत्रों का संग्रह); एक देश एक बिदेसी (यात्रा-वृत्तान्त, अमेरिका); यहाँ से काबा-काबा से मदीना (यात्रा-वृत्तान्त, हज) इसके अलावा मो. जाकिर हुसैन के संपादन में उनकी शायरी का संकलन दिल से जो बात निकली ग़ज़ल हो गई शीर्षक से हिंदी में प्रकाशित ।
सम्मान : पद्म श्री 1989, भारत सरकार; इम्तियाज़े मीर, कुल हिंद मीर अकादमी, लखनऊ; अल्लामा, मशीगन उर्दू सोसाइटी, अमेरिका; अल्लामा, तिलसा लिटरेरी सोसाइटी, अमेरिका; प्रशंसा पत्र, मल्टी कल्चरल कौंसिल आफ ग्रेटर टोरंटो; प्रशंसा पत्र, उर्दू कौंसिल आफ कनाडा; मौलाना मज़हरुल हक़ पुरस्कार, राज्य भाषा, बिहार सरकार; बिहार उर्दू अकादमी पुरस्कार।
निधन : 15 फ़रवरी 2015 हज़ारीबाग़ झारखंड में. पटना में सुपुर्द-ख़ाक किये जाएंगे। )
असली नाम : कलीम अहमद
जन्म :11 अक्तूबर 1924, तेलहाड़ा (जिला पटना) में हुआ।
शिक्षा : पटना विश्वविद्यालय से र्दू साहित्य के विकास पर पीएचडी
सेवा : 1964-65 में पटना कालेज में लेक्चरर हुए और 1986 में सेवानिवृत्त हुए। वर्तमान समय में बिहार सरकार, उर्दू मुशावरती कमिटी के अध्यक्ष थे ।
सृजन : मजलिसे अदब (आलोचना); वो जो शाइरी का सबब हुआ, जब फसले बहाराँ आई थी(ग़ज़ल संग्रह); फिर ऐसा नज़ारा नहीं होगा, कूचा-ए जानाँ जानाँ (ग़ज़लों एवं नज़्मों का संग्रह); जहाँ ख़ुशबू ही ख़ुशबू थी, अभी सुन लो मुझसे (आत्मकथा); मेरी ज़बान मेरा क़लम (लेखों का संग्रह, दो भाग); दफ़्तरे गुम गश्ता (शोध); दीवाने दो, पहलू न दुखेगा (पत्रों का संग्रह); एक देश एक बिदेसी (यात्रा-वृत्तान्त, अमेरिका); यहाँ से काबा-काबा से मदीना (यात्रा-वृत्तान्त, हज) इसके अलावा मो. जाकिर हुसैन के संपादन में उनकी शायरी का संकलन दिल से जो बात निकली ग़ज़ल हो गई शीर्षक से हिंदी में प्रकाशित ।
सम्मान : पद्म श्री 1989, भारत सरकार; इम्तियाज़े मीर, कुल हिंद मीर अकादमी, लखनऊ; अल्लामा, मशीगन उर्दू सोसाइटी, अमेरिका; अल्लामा, तिलसा लिटरेरी सोसाइटी, अमेरिका; प्रशंसा पत्र, मल्टी कल्चरल कौंसिल आफ ग्रेटर टोरंटो; प्रशंसा पत्र, उर्दू कौंसिल आफ कनाडा; मौलाना मज़हरुल हक़ पुरस्कार, राज्य भाषा, बिहार सरकार; बिहार उर्दू अकादमी पुरस्कार।
निधन : 15 फ़रवरी 2015 हज़ारीबाग़ झारखंड में. पटना में सुपुर्द-ख़ाक किये जाएंगे। )
--- TwoCircles.net से उधार।