दिल्ली में हुए रेप पर जिस तरह से शोर बरपा है
और जिस तरह से मीडिया इसे स्पेस दे रहा है, यह सब जरूरी है। इस घटना की
निंदा की जाए कम है। लेकिन इस मीडिया प्रसंग पर कुछ सवाल उठ रहे हैं, जिनके
जवाब ढूंढने का सही समय यही है। कुछ सवाल :
- क्या मीडिया ने उन बलात्कारों को स्पेस देना कभी जरूरी समझा जो लगभग हर रोज दिल्ली, चंडीगढ़ वगैरह जगहों पर रोजगार के लिए गर्इंं आदिवासियों लड़कियों के साथ हो रहा है? हमारे झारखंड के सिमडेगा जिले में एक गांव है जिसे कुंआरी मांओं का गांव कहा जाता है। इन मांओं में ज्यादातर बलात्कार की शिकार हैं।
- कुछ दिन पहले बिहार में एक लडक़ी के साथ रेप हुआ और उसकी वीडियो फिल्म बनाई गई। कई-कई बार। उसके परिजन पुलिस और अदालत के पास गुुहार लगाते-लगाते थक गए लेकिन एक भी गिरफ्तारी नहीं हो सकी। अंत में लडक़ी ने आत्महत्या कर ली। उसने सोसाइट नोट में लिखा कि कैसे आरोपियों को बचाने के लिए समाज के अलमबरदार से लेकर नेता और पुलिस तक गोलबंद हो गए। यह नोट कई अखबारों में छपा। और अभी तक कोई गिरफ्तारी नहीं हुई।
-इसके अलावा उन झुगगी झोपडिय़ों और महानगरों की फुटपाथ हर दिन होने वाले उन अनगिनत बलात्कारों की खबर कौन लेता हैं जो अखबार में सिंगल या बमुश्किल दो कॉलम की जगह पाती हैं। इनका टीवी पर आना तो खैर दूर की बात है।
इसलिए --
बहुत सही है अरुंधती राय का कहना है कि -"विरोध होना चाहिए लेकिन चुन चुन के विरोध नहीं होना चाहिए. हर औरत के रेप का विरोध होना चाहिए. ये दोहरी मानसिकता है कि आप दिल्ली के रेप के लिए आवाज़ उठाएंगे लेकिन मणिपुर की औरतों के लिए, कश्मीर की औरतों के लिए और खैरलांजी की दलितों के लिए आप आवाज़ क्यों नहीं उठाते हैं.
- क्या मीडिया ने उन बलात्कारों को स्पेस देना कभी जरूरी समझा जो लगभग हर रोज दिल्ली, चंडीगढ़ वगैरह जगहों पर रोजगार के लिए गर्इंं आदिवासियों लड़कियों के साथ हो रहा है? हमारे झारखंड के सिमडेगा जिले में एक गांव है जिसे कुंआरी मांओं का गांव कहा जाता है। इन मांओं में ज्यादातर बलात्कार की शिकार हैं।
- कुछ दिन पहले बिहार में एक लडक़ी के साथ रेप हुआ और उसकी वीडियो फिल्म बनाई गई। कई-कई बार। उसके परिजन पुलिस और अदालत के पास गुुहार लगाते-लगाते थक गए लेकिन एक भी गिरफ्तारी नहीं हो सकी। अंत में लडक़ी ने आत्महत्या कर ली। उसने सोसाइट नोट में लिखा कि कैसे आरोपियों को बचाने के लिए समाज के अलमबरदार से लेकर नेता और पुलिस तक गोलबंद हो गए। यह नोट कई अखबारों में छपा। और अभी तक कोई गिरफ्तारी नहीं हुई।
-इसके अलावा उन झुगगी झोपडिय़ों और महानगरों की फुटपाथ हर दिन होने वाले उन अनगिनत बलात्कारों की खबर कौन लेता हैं जो अखबार में सिंगल या बमुश्किल दो कॉलम की जगह पाती हैं। इनका टीवी पर आना तो खैर दूर की बात है।
इसलिए --
बहुत सही है अरुंधती राय का कहना है कि -"विरोध होना चाहिए लेकिन चुन चुन के विरोध नहीं होना चाहिए. हर औरत के रेप का विरोध होना चाहिए. ये दोहरी मानसिकता है कि आप दिल्ली के रेप के लिए आवाज़ उठाएंगे लेकिन मणिपुर की औरतों के लिए, कश्मीर की औरतों के लिए और खैरलांजी की दलितों के लिए आप आवाज़ क्यों नहीं उठाते हैं.