... तो अन्ना राष्ट्रपति होते



बीबीसी के वेब पोर्टल ने सोशल मीडिया और अगले आम चुनाव पर बहस चलाई है. इसमें आरआईएस नॉलेज फाउंडेशन और इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडियाके सर्वे को आधार बना कर कहा गया है २०१४ के आ
म चुनाव पर इंटरनेट इस्तेमाल करने वाले मतदाता असर डाल सकने की स्थिति में होंगे. दूसरे लफ्जों में सोशल मीडिया का असर इस चुनाव पर पड़ेगा।

इस अध्ययन में कहा गया है कि 2014 के आम चुनाव में 160 संसदीय सीटों के नतीजों पर सोशल मीडिया का इस्तेमाल करनेेवाले लोगों का असर हो सकता है. कहने का तात्पर्य ये कि भारत की 543 लोकसभा सीटों में से 160 सीटें ऐसी हैं जिनके नतीजों पर सोशल मीडिया का प्रभाव हो सकता है. सोशल मीडिया एंड लोकसभा इलेक्शन्स शीर्षक से प्रकाशित ये अध्ययन किया है आरआईएस नॉलेज फाउंडेशन और इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया ने.
इस अध्ययन में सोशल मीडिया के प्रभाव के आधार पर संसदीय क्षेत्रों को उच्च, मध्यम और निम्न प्रभाव वाली श्रेणियों में बांटा गया है. अध्ययन के मुताबिक वैसे संसदीय क्षेत्र जहां फेसबुक यूज़र्स की संख्या कुल मतदाताओं की दस फीसदी से ज्यादा है, उसे उच्च प्रभाव वाला क्षेत्र माना गया है. इसी आधार पर अध्ययन में 543 में से 67 संसदीय क्षेत्रों को मध्यम और 60 सीटों को निम्न प्रभाव वाली सीटें बताया गया है.
इस मुद्दे पर नोएडा के शांतनु श्रीवास्तव की ये राय दिलचस्प है - मैं मानता हूं कि अगले लोकसभा चुनाव में सोशल मीडिया एक निर्णायक भूमिका निभाएगी. जो भी पार्टी इस माध्यम को अनदेखा करने की कोशिश करेगी, उसे इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा. पिछले दो तीन सालों मैं विश्व के जिन देशों ने इस माध्यम की  ताकत देखी है, वो चाहे मिस्र हो या ट्यूनीशिया या फिर और कोई देश, यहां तक कि चीन जैसे देश में भी इसकी धमक सुनाई देने लगी है जहां अभिव्यक्ति की आजादी जनता के पास तो है ही नहीं. इसलिए मेरा मानना है कि 2014 में हमें इस माध्यम की ताकत का एहसास होगा.
इस बहस को जालौन के अमित भारतीय ने ये कहते हुए खारिज कर दिया है- सोशल मीडिया की मानी जाए तो अन्ना देश के राष्ट्रपति होते, केजरीवाल/मोदी प्रधानमंत्री, सोनिया के साथ दिग्विजय को निर्वासित कर दिया जाता, कलमाड़ी/राजा को कालापानी की सज़ा मिल जाती, लोकपाल कब का आ चुका होता, देश के सभी भ्रष्ट जेल में होते, रिटेल में विदेशी निवेश को मंजूरी न मिलती. महज 11 प्रतिशत  इंटरनेट उपयोगकर्ता, सोशल मीडिया पर शांति चाहने वालों को वोट डालने में गर्मी/सर्दी लगती है. वे लंबी लाइनों में खड़े नहीं हो सकते. उनकी नजऱ में एक वोट से थोड़ी न देश बदलता है. अमित कहते हैं, 2009 के लोस चुनाव में 50 प्रतिशत से अधिक ने मतदान नहीं किया. जिसमें अधिकतम उच्च और मध्य वर्ग का फेसबुकी समाज था.
(पूरी रपट बीबीसी से उधार)