अरुणेश सी दवे
सूडान के स्वयंभू इस्लामिक पैगंबर महदी
ने जब ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ़ विद्रोह किया था तो उसके पास महज कुछ सौ
लड़ाके थे। जब उसने खारतूम का किला जीता तब पचास हजार लड़ाके थे और उनके
सारे आधुनिक हथियार ब्रिटिश सेना से छीने गये थे। इतिहास हमें सामाजिक
विज्ञान, युद्ध विज्ञान के सारे सबक सिखाता है। पर छत्तीसगढ़ सरकार ने
सिर्फ़ एक ही सबक पढ़ा था। वह था आदिवासियों के गांवों को खाली कर वहां शरण
पाये नक्सलवादियों को मार गिराने का पुराना नुस्खा। शासन का ख्याल था कि
अगर ये गांव न होंगे तो नक्सलवादियों को जंगल में भोजन और आसरा नहीं
मिलेगा। इन गांवों को खाली कराने का नुस्खा भी पुराना था। लालच, धमकी और
हिंसा। तीन चौथाई गांव वालों ने अपना गांव छोड़ने से इंकार कर दिया।
जिन्होंने छोड़ा भी था वे जल्द ही राहत शिविर नामक जगह में
भूख-गंदगी-बीमारी से त्रस्त हो गये। इसके बाद शुरू हुआ इन गांवों तक रसद,
दवाई, डॉक्टर न पहुंचने देने का ब्लॉकेड।
आधुनिक मानव इतिहास में स्थानीय लोगों
में से ही लड़ाके खड़ा कर उन्हें स्थानीय विद्रोह को कुचलने के लिये लगा
देना भी आजमाया हुआ नुस्खा है। हर इलाके में दो तरह के निवासी होते हैं। एक
वे जो शासनकर्ताओं से मिले होते हैं और शासन के लाभ में हिस्सेदार होते
हैं। दूसरे वे जो शोषित होते हैं। बस्तर में भी अगड़े आदिवासी खेती और
व्यवसाय अपना चुके हैं। पिछड़े आदिवासी अब भी आदिकालीन तरीकों से वनोपज पर
जीवन यापन करते हैं। इन दो आदिवासियों में वर्ग शत्रुता भी थी, अमीर और
गरीब वाली। सरकार को गांव खाली कराने की जल्दी थी। टाटा और एस्सार से एमओयू
हो चुका था। नक्सलवादियों को जल्द खदेड़ने की चाह में सरकार समर्थक
आदिवासियों को सलवा जुड़ूम के नाम पर हथियार दिये गये और उन्हें नक्सलवाद
से लड़ने छोड़ दिया गया।
दोनो ओर से हिंसा का तांडव चला। युद्ध
के कोई नियम न थे। जिसके हाथ जो पड़ जाये हत्या और बलात्कार निश्चित था।
लेकिन शुरुआती बढ़त के बाद जल्द ही सरकार और सलवा जुड़ूम के पैर उखड़ने
लगे। दूसरी ओर अब तक नक्सलवादियों को केवल भय के कारण मिलने वाला सहयोग
विशाल जनसमर्थन में बदल चुका था। हर अत्याचार की दास्तान के बाद नये
आदिवासी लड़ाकों की फ़ौज भर्ती होने लगी। सरकार समर्थक आदिवासी और पुलिस
किलेबंद कस्बों, थानों से बाहर निकलने में थर थर कांपने लगी। हालात यह हो
गये हैं कि दिशा मैदान के लिये थाने से निकलना भी दूभर है। एक अनुमान के
मुताबिक नक्सलवादियों के पास मौजूद हथियारों में से नब्बे प्रतिशत पुलिस से
ही छीने गये होंगे। अत्यधिक तनाव और दबाव में जी रहे पुलिसकर्मी मौका
मिलते ही ऐसे वीभत्स अत्याचार द्वारा आदिवासियों से बदला लेते हैं कि
रक्तबीज असुर की तरह नये नक्सलवादियों की भरमार हो रही है।
नक्सलवादी हों या पान सिंह तोमर के
जैसे बागी, पैदा होते और पनपते शोषण की खाद से ही हैं। बस्तर मे शोषण का
लंबा इतिहास है। एक समय मध्यप्रदेश के कर्मचारियों के लिये कालापानी समझा
जाने वाला बस्तर धीर-धीरे ऐसे स्वर्ग में तब्दील हो गया जहां नाचने वाला
मोर किसी के द्वारा देखा नहीं जाता। कागजों में बंटती दवाइयों, बनती सड़कों
तक आदिवासियों के विकास के लिये आने वाली विपुल राशि की वीभत्स लूट आज भी
जारी है। लेकिन ऐसे घपलों से आदिवासियों को फ़िर भी फ़र्क नहीं पड़ता था।
फ़र्क पड़ता था पुलिस और वन विभाग से। दारू, बकरा और बेटियों की भेंट
चढ़ाते आदिवासी त्रस्त थे। नक्सलवादियों के आगमन ने इन गांव वालों को आशा
की नई किरण दिखाई। पुलिस का भय तो फिर भी था लेकिन फॉरेस्ट गार्ड पटवारी सब
नदारद हो गये। सन २००० तक नक्सलवादी पुलिस से सीधे मुकाबले की स्थिति में आ
चुके थे। इस वक्त तक नक्सलवाद को संभाला जा सकता था। ब्रह्मदेव शर्मा जैसे
कई अधिकारी शासन को आगाह कर रहे थे कि शोषण बंद होने से नक्सलवादियों को
जन समर्थन मिलना बंद हो जायेगा। लेकिन रमन सिंह के सत्ता में आते-आते बस्तर
की प्राकृतिक संपदा पर उद्योगपतियों की नजर पड़ चुकी थी। टाटा एस्सार जैसी
कंपनियों के साथ एमओयू करते ही रमन सिंह ने नक्सलवाद को थामने का सीधा
रास्ता त्याग दिया था। इसके बाद तो शुरू हुई खदानों की बंदरबांट, आज जिन
थानों में रसद हेलीकाप्टर के सिवा भेजी नहीं जा सकती वहां की खदानें भी
रायपुर के दफ़्तरों में बैठ बांटी जा चुकी हैं। रमन सिंह का ख्याल था कि
नक्सलवादियों को कीड़े-मकोड़ों की तरह कुचला जा सकता है। और आदिवासियों को
विकास थमा उनकी खदानें लूटी जा सकती हैं। विकास बोले तो अच्छी सड़क, स्कूल,
हैंडपंप।
"लेकिन रोटी कहां से
आयेगा रमन बाबू?" इस सवाल का जवाब उनके पास न था न है। रमन सिंह एक ऐसे
भ्रष्ट तंत्र के मुखिया हैं कि वे चाह भी लें तो भी उनका विकास नीचे नहीं
पहुंच सकता। सलवा जुडूम और ग्रीन हंट जैसी तमाम तरकीबें ध्वस्त हो चुकी
हैं। हम अखबारों में जिन नक्सलवादियों के मरने पकड़ाने की खबरें पढ़ते हैं
उनमें से पांच प्रतिशत भी नक्सलवादी नहीं होते। वे या तो आम आदिवासी होते
हैं या उनके सबसे निचले स्तर के कार्यकर्ता। उल्टे नक्सलवादी ही पुलिस को
भ्रामक सूचनाएं दे निहत्थे आदिवासियों पर गोलीबारी करवा देते हैं। पुलिस का
खुफिया तंत्र जन आधारित है ही नहीं। उसे आदिवासियों से लगभग कोई सूचना
नहीं मिलती। पुलिस निर्भर करती है फोन टैपिंग और सैटेलाइट इमेज पर, जो
जाहिराना तौर पर नक्स्लवाद से निपटने के लिये नाकाफी है।
अब
आखिरी अस्त्र है सेना। लेकिन सेना भी इलाके कब्जा सकती है नक्सलवाद को
खत्म नहीं कर सकती। कश्मीर से लेकर नॉर्थ ईस्ट तक यही साबित हुआ है कि
विद्रोह राजनैतिक समाधान से खत्म होता है हथियारों से नहीं। लेकिन कांग्रेस
हो या भाजपा इनके लिये उद्योगपतियों का हित सर्वोपरि है। देश का मध्यमवर्ग
नक्सल समस्या को समझता ही नहीं। उसकी नजर में नक्सली मतलब देशद्रोही। इस
मध्यम वर्ग के लिये आदिवासी उनके इस देश का पार्टनर ही नहीं। इन आदिवासियों
के साथ हो रहे अन्याय और अत्याचार की बात रखने वाले मानवाधिकार कार्यकर्ता
इन्हें देशद्रोही नजर आते हैं। मीडिया के लिये भी आदिवासी कोई अस्तित्व
नहीं रखता। उनको विज्ञापन देने वाले बाजार का ये आदिवासी ग्राहक नहीं। तो
यह मीडिया भी वही खबरें पेश करता है जो इस बाजार का ग्राहक मध्यमवर्ग पढ़ना
चाहता है या अखबारों को धन देने वाली सरकारें पढ़वाना चाहती हैं। ऐसे में
नक्सल समस्या जल्द निपटती नजर आती नहीं। इस समस्या का समाधान आज से ७० साल
पहले ही गांधी जी ने दे दिया था। सत्ता का पूर्ण विकेंद्रीकरण। हर इलाके के
लोगों को अपने संसाधनों का उपयोग तय करने का हक। जंगल, जल, जमीन
आदिवासियों के हैं। अगर वह उसे नहीं खोना चाहता तो रायपुर और दिल्ली में
बैठे सत्ता के ठेकेदारों को कोई हक नहीं कि वे उसे बेच दें।
अब
हालात बहुत बिगड़ चुके हैं। जनप्रतिनिधियों की हत्या हो रही है। मध्यमवर्ग
फिर बदले की आग में सुलग रहा है। मीडिया में आदिवासियों के पक्ष में बोलना
गुनाह बन चुका है। सबका एक ही तर्क है कि लोकतांत्रिक तरीकों से अपनी बात
रखो। पर बस्तर के सुदूर जंगलों में लोकतंत्र पहुंचा हो तब न। लोकतांत्रिक
तरीके सुझाये जाएं। ऐसा भी नहीं है कि सारे आदिवासी पाक साफ़ हैं, भोले
हैं। ऐसा भी नहीं कि नक्सलवादी सिर्फ हक की लड़ाई लड़ रहे हैं। स्थिति
गड्डमड्ड है। कौन डाकू है और कौन हक की लड़ाई लड़ रहा है यह अंतर कर पाना
बेहद मुश्किल है। लेकिन जब तक भारत नामक देश अपना राजधर्म नहीं निभाता,
आदिवासियों को उनका हक प्रदान नहीं करता, तब तक वह अधर्म के ध्वज तले युद्ध
कर रहा है। और अधर्म की हार सदैव निश्चित होती है। रमन सिंह जॉर्ज ओरवेल
के हाथी की तरह चंद सालों बाद "मस्त" की स्थिति और सत्ता उतरने पर जरूर
मासूम नजर आ सकते है, लेकिन जो सत्ता में रहेगा उसका "मस्त" की स्थिति में
होना तय है। शायद यही आदिवासियों की नियति है। मेरी तो एक ही विनती है,
माननीय रमन सिंह जी सुधर जाइये। अब भी समय है। आप खदानें नहीं खोद रहे, देश
के जवानों, नेताओं, नागरिकों और आदिवासियों की कब्र खोद रहे हैं।
(अरुणेश सी दवे खालबाड़ा नाम से ब्लाग लिखते हैं। उनका यह आलेख एभीटी के ब्लगा साइट से लिया गया है। दवे जी से अरुणेश सी दवे
सूडान के स्वयंभू इस्लामिक पैगंबर महदी
ने जब ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ़ विद्रोह किया था तो उसके पास महज कुछ सौ
लड़ाके थे। जब उसने खारतूम का किला जीता तब पचास हजार लड़ाके थे और उनके
सारे आधुनिक हथियार ब्रिटिश सेना से छीने गये थे। इतिहास हमें सामाजिक
विज्ञान, युद्ध विज्ञान के सारे सबक सिखाता है। पर छत्तीसगढ़ सरकार ने
सिर्फ़ एक ही सबक पढ़ा था। वह था आदिवासियों के गांवों को खाली कर वहां शरण
पाये नक्सलवादियों को मार गिराने का पुराना नुस्खा। शासन का ख्याल था कि
अगर ये गांव न होंगे तो नक्सलवादियों को जंगल में भोजन और आसरा नहीं
मिलेगा। इन गांवों को खाली कराने का नुस्खा भी पुराना था। लालच, धमकी और
हिंसा। तीन चौथाई गांव वालों ने अपना गांव छोड़ने से इंकार कर दिया।
जिन्होंने छोड़ा भी था वे जल्द ही राहत शिविर नामक जगह में
भूख-गंदगी-बीमारी से त्रस्त हो गये। इसके बाद शुरू हुआ इन गांवों तक रसद,
दवाई, डॉक्टर न पहुंचने देने का ब्लॉकेड।
आधुनिक मानव इतिहास में स्थानीय लोगों
में से ही लड़ाके खड़ा कर उन्हें स्थानीय विद्रोह को कुचलने के लिये लगा
देना भी आजमाया हुआ नुस्खा है। हर इलाके में दो तरह के निवासी होते हैं। एक
वे जो शासनकर्ताओं से मिले होते हैं और शासन के लाभ में हिस्सेदार होते
हैं। दूसरे वे जो शोषित होते हैं। बस्तर में भी अगड़े आदिवासी खेती और
व्यवसाय अपना चुके हैं। पिछड़े आदिवासी अब भी आदिकालीन तरीकों से वनोपज पर
जीवन यापन करते हैं। इन दो आदिवासियों में वर्ग शत्रुता भी थी, अमीर और
गरीब वाली। सरकार को गांव खाली कराने की जल्दी थी। टाटा और एस्सार से एमओयू
हो चुका था। नक्सलवादियों को जल्द खदेड़ने की चाह में सरकार समर्थक
आदिवासियों को सलवा जुड़ूम के नाम पर हथियार दिये गये और उन्हें नक्सलवाद
से लड़ने छोड़ दिया गया।
दोनो ओर से हिंसा का तांडव चला। युद्ध
के कोई नियम न थे। जिसके हाथ जो पड़ जाये हत्या और बलात्कार निश्चित था।
लेकिन शुरुआती बढ़त के बाद जल्द ही सरकार और सलवा जुड़ूम के पैर उखड़ने
लगे। दूसरी ओर अब तक नक्सलवादियों को केवल भय के कारण मिलने वाला सहयोग
विशाल जनसमर्थन में बदल चुका था। हर अत्याचार की दास्तान के बाद नये
आदिवासी लड़ाकों की फ़ौज भर्ती होने लगी। सरकार समर्थक आदिवासी और पुलिस
किलेबंद कस्बों, थानों से बाहर निकलने में थर थर कांपने लगी। हालात यह हो
गये हैं कि दिशा मैदान के लिये थाने से निकलना भी दूभर है। एक अनुमान के
मुताबिक नक्सलवादियों के पास मौजूद हथियारों में से नब्बे प्रतिशत पुलिस से
ही छीने गये होंगे। अत्यधिक तनाव और दबाव में जी रहे पुलिसकर्मी मौका
मिलते ही ऐसे वीभत्स अत्याचार द्वारा आदिवासियों से बदला लेते हैं कि
रक्तबीज असुर की तरह नये नक्सलवादियों की भरमार हो रही है।
नक्सलवादी हों या पान सिंह तोमर के
जैसे बागी, पैदा होते और पनपते शोषण की खाद से ही हैं। बस्तर मे शोषण का
लंबा इतिहास है। एक समय मध्यप्रदेश के कर्मचारियों के लिये कालापानी समझा
जाने वाला बस्तर धीर-धीरे ऐसे स्वर्ग में तब्दील हो गया जहां नाचने वाला
मोर किसी के द्वारा देखा नहीं जाता। कागजों में बंटती दवाइयों, बनती सड़कों
तक आदिवासियों के विकास के लिये आने वाली विपुल राशि की वीभत्स लूट आज भी
जारी है। लेकिन ऐसे घपलों से आदिवासियों को फ़िर भी फ़र्क नहीं पड़ता था।
फ़र्क पड़ता था पुलिस और वन विभाग से। दारू, बकरा और बेटियों की भेंट
चढ़ाते आदिवासी त्रस्त थे। नक्सलवादियों के आगमन ने इन गांव वालों को आशा
की नई किरण दिखाई। पुलिस का भय तो फिर भी था लेकिन फॉरेस्ट गार्ड पटवारी सब
नदारद हो गये। सन २००० तक नक्सलवादी पुलिस से सीधे मुकाबले की स्थिति में आ
चुके थे। इस वक्त तक नक्सलवाद को संभाला जा सकता था। ब्रह्मदेव शर्मा जैसे
कई अधिकारी शासन को आगाह कर रहे थे कि शोषण बंद होने से नक्सलवादियों को
जन समर्थन मिलना बंद हो जायेगा। लेकिन रमन सिंह के सत्ता में आते-आते बस्तर
की प्राकृतिक संपदा पर उद्योगपतियों की नजर पड़ चुकी थी। टाटा एस्सार जैसी
कंपनियों के साथ एमओयू करते ही रमन सिंह ने नक्सलवाद को थामने का सीधा
रास्ता त्याग दिया था। इसके बाद तो शुरू हुई खदानों की बंदरबांट, आज जिन
थानों में रसद हेलीकाप्टर के सिवा भेजी नहीं जा सकती वहां की खदानें भी
रायपुर के दफ़्तरों में बैठ बांटी जा चुकी हैं। रमन सिंह का ख्याल था कि
नक्सलवादियों को कीड़े-मकोड़ों की तरह कुचला जा सकता है। और आदिवासियों को
विकास थमा उनकी खदानें लूटी जा सकती हैं। विकास बोले तो अच्छी सड़क, स्कूल,
हैंडपंप।
"लेकिन रोटी कहां से
आयेगा रमन बाबू?" इस सवाल का जवाब उनके पास न था न है। रमन सिंह एक ऐसे
भ्रष्ट तंत्र के मुखिया हैं कि वे चाह भी लें तो भी उनका विकास नीचे नहीं
पहुंच सकता। सलवा जुडूम और ग्रीन हंट जैसी तमाम तरकीबें ध्वस्त हो चुकी
हैं। हम अखबारों में जिन नक्सलवादियों के मरने पकड़ाने की खबरें पढ़ते हैं
उनमें से पांच प्रतिशत भी नक्सलवादी नहीं होते। वे या तो आम आदिवासी होते
हैं या उनके सबसे निचले स्तर के कार्यकर्ता। उल्टे नक्सलवादी ही पुलिस को
भ्रामक सूचनाएं दे निहत्थे आदिवासियों पर गोलीबारी करवा देते हैं। पुलिस का
खुफिया तंत्र जन आधारित है ही नहीं। उसे आदिवासियों से लगभग कोई सूचना
नहीं मिलती। पुलिस निर्भर करती है फोन टैपिंग और सैटेलाइट इमेज पर, जो
जाहिराना तौर पर नक्स्लवाद से निपटने के लिये नाकाफी है।
अब
आखिरी अस्त्र है सेना। लेकिन सेना भी इलाके कब्जा सकती है नक्सलवाद को
खत्म नहीं कर सकती। कश्मीर से लेकर नॉर्थ ईस्ट तक यही साबित हुआ है कि
विद्रोह राजनैतिक समाधान से खत्म होता है हथियारों से नहीं। लेकिन कांग्रेस
हो या भाजपा इनके लिये उद्योगपतियों का हित सर्वोपरि है। देश का मध्यमवर्ग
नक्सल समस्या को समझता ही नहीं। उसकी नजर में नक्सली मतलब देशद्रोही। इस
मध्यम वर्ग के लिये आदिवासी उनके इस देश का पार्टनर ही नहीं। इन आदिवासियों
के साथ हो रहे अन्याय और अत्याचार की बात रखने वाले मानवाधिकार कार्यकर्ता
इन्हें देशद्रोही नजर आते हैं। मीडिया के लिये भी आदिवासी कोई अस्तित्व
नहीं रखता। उनको विज्ञापन देने वाले बाजार का ये आदिवासी ग्राहक नहीं। तो
यह मीडिया भी वही खबरें पेश करता है जो इस बाजार का ग्राहक मध्यमवर्ग पढ़ना
चाहता है या अखबारों को धन देने वाली सरकारें पढ़वाना चाहती हैं। ऐसे में
नक्सल समस्या जल्द निपटती नजर आती नहीं। इस समस्या का समाधान आज से ७० साल
पहले ही गांधी जी ने दे दिया था। सत्ता का पूर्ण विकेंद्रीकरण। हर इलाके के
लोगों को अपने संसाधनों का उपयोग तय करने का हक। जंगल, जल, जमीन
आदिवासियों के हैं। अगर वह उसे नहीं खोना चाहता तो रायपुर और दिल्ली में
बैठे सत्ता के ठेकेदारों को कोई हक नहीं कि वे उसे बेच दें।
अब
हालात बहुत बिगड़ चुके हैं। जनप्रतिनिधियों की हत्या हो रही है। मध्यमवर्ग
फिर बदले की आग में सुलग रहा है। मीडिया में आदिवासियों के पक्ष में बोलना
गुनाह बन चुका है। सबका एक ही तर्क है कि लोकतांत्रिक तरीकों से अपनी बात
रखो। पर बस्तर के सुदूर जंगलों में लोकतंत्र पहुंचा हो तब न। लोकतांत्रिक
तरीके सुझाये जाएं। ऐसा भी नहीं है कि सारे आदिवासी पाक साफ़ हैं, भोले
हैं। ऐसा भी नहीं कि नक्सलवादी सिर्फ हक की लड़ाई लड़ रहे हैं। स्थिति
गड्डमड्ड है। कौन डाकू है और कौन हक की लड़ाई लड़ रहा है यह अंतर कर पाना
बेहद मुश्किल है। लेकिन जब तक भारत नामक देश अपना राजधर्म नहीं निभाता,
आदिवासियों को उनका हक प्रदान नहीं करता, तब तक वह अधर्म के ध्वज तले युद्ध
कर रहा है। और अधर्म की हार सदैव निश्चित होती है। रमन सिंह जॉर्ज ओरवेल
के हाथी की तरह चंद सालों बाद "मस्त" की स्थिति और सत्ता उतरने पर जरूर
मासूम नजर आ सकते है, लेकिन जो सत्ता में रहेगा उसका "मस्त" की स्थिति में
होना तय है। शायद यही आदिवासियों की नियति है। मेरी तो एक ही विनती है,
माननीय रमन सिंह जी सुधर जाइये। अब भी समय है। आप खदानें नहीं खोद रहे, देश
के जवानों, नेताओं, नागरिकों और आदिवासियों की कब्र खोद रहे हैं।
runeshd3@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है )