उत्तराखंड में मची तबाही की रिपोर्टिंग हम रोज ही पढ़ और देख रहे हैं। इस पर राजनीति भी होने लगी है। एक खबर आई कि बद्रीनाथ के मुख्य मंदिर में फिर से पूजा शुरू हो गई है। इससे ये संदेश देने की साजिश की गई कि स्थिति सामान्य होने को ही है। लेकिन इन सबके बीच इस तबाही के कारणों पर गंभीर बहस नहीं हो सकी। हुई भी तो दबे-छिपे लहजे मे। नहीं भूलना चाहिए कि इस तबाही के वैज्ञानिक कारणों पर हम जब तक बात नहीं करेंगे, तब तक ऐसे खतरों से बचने के सारे दावे झूठे साबित होंगे। दरअसल इस तबाही की भूमिका दो-तीन दशक पहले से बन रही थी, जब हिमलाय की गोद में बिजली घरों के लिए सुरंगें खोदी गईं। पहाडों को डायनामाइट से उड़ाया गया। सरकारी आकड़े बताते हैं कि अकेले उत्तराखंड के जोशी मठ में 2006 से 2012 के बीच 20,632 किलोग्राम विस्फोटक और 1,71,235 डेटोनेटरों का प्रयोग किया गया। बांधों के लिए नदियों की दिशा मोड़ी गई। ऐसा भी नहीं है कि इन खतरों से पहले सचेत नहीं किया गया। ये भी हुआ, लेकिन इन आवाजों को अनसुना किया गया। यहां उदाहरण के लिए समयांतर के जुलाई, 2012 के अंक में छपे चारु तिवारी के लेख को फिर से पोस्ट किया जा रहा है। इस उम्मीद के साथ कि हम कुछ सबक हासिल कर सकें-
उत्तराखंड के पहाड़ों से इन दिनों खतरनाक आवाजें आ रही हैं। ये आवाजें एक ऐसे नापाक गठजोड़ की हैं जो प्राकृतिक संसाधनों के बीच रहने वाली जनता के हक को लील लेना चाहती हैं। बहुत जल्दी, बहुत ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए; विकास का जो सपना सरकारें दिखाती रही हैं उसकी आड़ में एक बड़ी आबादी को उजाड़कर मुनाफाखोर अब जनता को जनता के खिलाफ ही खड़े करने की साजिशें करने लगे हैं। टिहरी की लोककथाओं में आछरियों (परियां) का बहुत जिक्र आता है। ऐसी आछरियां जो गुफाओं से निकलकर युवाओं को हर लेती थीं। अब टिहरी में इस तरह की आछरियां नहीं दिखाई देतीं। अब आछरियां नए रूप में हैं। जो पहले गुफाओं में रहती थीं अब विशालकाय सुरंगों में हैं। जो पहले कुछ युवकों को अपने रूप-सौंदर्य के छलावे में फंसाती थीं अब विकास और बिजली की चकाचैंाध से भ्रमित कर रही हैं। लोककथाओं की आछरियों को भले ही किसी ने देखा न हो लेकिन आज पूरे पहाड़ में विकास की जानलेवा आछरियों ने जलविद्युत परियोजनाओं से पूरे गांवों को लीलना शुरू कर दिया है। ये अकेली नहीं हैं इनके साथ सरकार है। बांध परियोजनाओं के बड़े कारिंदे हैं। इससे भी बढ़कर वे लोग हैं जो विकास की इस साजिश के अभियान में साथ खड़े हैं।
बहुत
ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए विकास का जो सपना सरकारें दिखाती रही हैं उसकी
आड़ में एक बड़ी आबादी को उजाड़कर मुनाफाखोर अब जनता को जनता के खिलाफ ही
खड़े करने की साजिशें करने लगे हैं। टिहरी की लोककथाओं में आछरियों
(परियां) का बहुत जिक्र आता है, जो गुफाओं से निकलकर युवाओं को हर लेती
थीं। अब वे नहीं दिखाई देतीं। अब आछरियां नए रूप में हैं। गुफाओं की जगह अब
वे विशालकाय सुरंगों में रहने लगी हैं।
इन लोगों का न तो लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास है न ही अभिव्यक्ति
की स्वतंत्रता में। इन्होंने ने ऐलान कर दिया है कि जो भी जलविद्युत
परियोजनाओं का विरोध करेगा उसे पहाड़ में नहीं घुसने दिया जायेगा। जैसे
पहाड़ इन्हीं की बपौती हो। अपने अभियान को इन्होंने अमली जामा पहनाना भी
शुरू कर दिया है। जून के मध्यमें श्रीनगर में जीडी अग्रवाल, भरत झुनझुनवाला
और राजेन्द्र सिंह के साथ इन कथित बांध समर्थकों ने जो किया उससे साबित
होता है कि जलविद्युत परियोजनाओं के समर्थन के नाम पर की जा रही यह
गुंडागर्दी कोई छोटी-मोटी स्वस्फूर्त प्रतिक्रिया नहीं है बल्कि सोची-समझी
रणनीति है। इसलिए समय रहते इस गठजोड़ को समझना होगा जो निहित स्वार्थों के
लिए अपने मुल्क को बर्बाद करने और बेचने में भी झिझक नहीं रहे हैं।गौरतलब है कि उत्तराखंड में पिछले चालीस वर्षों से जलविद्युत परियोजनाओं को लेकर वहां की जनता आंदोलन चलाती रही है। अपने संसाधनों को बचाने के लिए वह लगातार सड़कों पर है। टिहरी बांध से लेकर फलिंडा और अब पिंडर को बचाने तक के बहुत सारे आंदोलन स्वस्फूर्त जनता के आंदोलन रहे हैं वैसे ही जैसे उत्तराखंड राज्य का आंदोलन था। एक मामले में ये आंदोलन पृथक राज्य आंदोलनों से इसलिए जुड़ थे कि जनता को उम्मीद थी कि नए राज्य के शासक जो उन्हीं में से होंगे उनके दर्द को समझेंगे और उन पर इस तथाकथित विकास को नहीं थोपेंगे। पर हुआ उल्टा ही है। अपने ही लोगों ने विकास के दैत्याकार मॉडल को उन पर थोपा है। इससे लगातार टूटते पहाड़ों की आम जनता को चिंता है। पर इस बीच कुछ अजब ही हुआ है।
इधर कुछ समय से बांध समर्थकों की एक नई जमात सामने आई है जो पूरी बेशर्मी से बड़े बांधों का समर्थन कर रही है और जन आंदोलनों को नकारने में लगी है। कवि लीलाधर जगूड़ी ने अपने हाल में प्रकाशित लेख ‘प्रगति विरोधी इस पाखंड से लडऩा जरूरी’ में लिखा है कि ”इस समय उत्तराखंड में जनता पर्यावरण को विकास के विरुद्ध एक अड़ंगे की तरह अथवा एक पाखंड की तरह देख रही है।” तथ्यों को जैसे जी में आया तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है। फलिंडा और पिंडर घाटी में क्या हो रहा है? अगर कहीं कुछ है ही नहीं तो धारी देवी में मारपीट की नौबत क्यों आ रही है? यह जमात सरकार, बांध बनाने वाली कंपनियों और ठेकेदारों के गठजोड़ की है। इनमें इस बीच सरकार से नजदीकियां रखने के इच्छुक कुछ बुद्धिजीवी भी जुड़ गये हैं। मीडिया का एक बड़ा हिस्सा अचानक बांधों के समर्थन में खड़ा हो गया है। ऐसा क्यों हो रहा है, समझना मुश्किल नहीं है। बांधों के साथ अपार पैसा जुड़ा है और उसका असर अखबार से लेकर सरकार तक में नजर आ रहा है। कौन भूल सकता है कि मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने पद संभालते ही पहला काम बांधों के समर्थन का किया।
ये तर्क देते हैं कि जलविद्युत परियोजनायें यहां की आर्थिकी और रोजगार के लिए जरूरी हैं। साधु-संत गंगा की अविरलता को लेकर बांधों के खिलाफ हैं। अगर गंगा की अविरलता नहीं रहेगी तो करोड़ों की आस्था की चिंता उन्हें है। स्वयंसेवी संगठनों को लगता है कि बांध बनने से पर्यावरण को भारी नुकसान होगा। इसलिए वे बांधों का विरोध कर रहे हैं। इन सबके बीच पिछले चार दशक से अपने जल, जंगल और जमीन को बचाने के लिए संघर्षरत लोगों की सुनने को कोई तैयार नहीं है। उनके पूरे आंदोलन को कभी आस्था, कभी विकास तो कभी पर्यावरण के नाम पर हाशिये पर धकेला जा रहा है।
हम बार-बार यह दोहराना चाहते हैं कि असल में जलविद्युत परियोजनाओं का विरोध आस्था और पर्यावरण का नहीं है, जैसा कि जगूड़ी अपने लेख में कहते हैं; बल्कि यह हिमालय को बचाने की लड़ाई है। आस्था और पर्यावरण भी तभी तक हैं जब तक हिमालय है। यह नहीं भुलाया जाना चाहिए कि हिमालय से पूरे गंगा-यमुना के मैदान का भविष्य जुड़ा है। विकास के नाम पर जिस तरह से हिमालय को सुरंगों के हवाले किया जा रहा है वह आने वाले दिनों में पूरे देश के लिए खतरे का संकेत है।
विकास, आस्था और पर्यावरण के इस फरेब के बीच हिमालय और हिमालयवासियों के दर्द को समझा जाना बहुत आवश्यक है। मध्य हिमालय दुनिया का सबसे कच्चा पहाड़ है। इस पर भी उत्तराखंड में नीति-नियंताओं ने माना है कि यहां की जल संपदा से चालीस हजार मेगावाट बिजली का उत्पादन किया जा सकता है। इसके लिए उन्होंने एक उपाय सुझाया विशालकाय जलविद्युत परियोजनाएं बनाने का। इस समझ के तहत सत्तर के दशक में टिहरी बांध परियोजना की शुरुआत की गई थी। इसके बाद तो जलविद्युत परियोजनाओं को ही सरकारों ने ऊर्जा का सबसे बड़ा स्रोत मान लिया। इसके बावजूद जबकि टिहरी जैसी बड़ी परियोजना अपने लक्ष्य में नाकाम रही है। इससे समझ जाना चाहिए था कि जिन परियोजनाओं को विकास के लिए जरूरी माना जा रहा है वे कितनी उपुयक्त हैं। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इसका कारण यह है कि बांधों के निर्माण से राष्ट्रीय ही नहीं अंतराष्ट्रीय स्तर पर बड़ी कंपनियों के हित जुड़े हैं। ये कंपनियां कई तरह की हैं – सीमेंट उत्पादकों से लेकर बिल्डरों और टरबाईन बनानेवालों तक की। यह बात प्रचारित की गई कि टिहरी बांध तो बड़ा है, बाकी बांध छोटे होंगे। सच यह है कि उत्तराखंड में इस समय जितने भी बांध बन रहे हैं वे बड़े बांधों की श्रेणी में आते हैं। (देखें समयांतर, जून, 2012)
इसे नजरअंदाज कर इन दिनों कुछ बुद्धिजीवियों ने कहना शुरू कर दिया है कि बिना जलविद्युत परियोजनाओं के यहां का विकास संभव नहीं है। वे कहते हैं कि इन परियोजनाओं से रोजगार मिलेगा, पलायन रुकेगा और प्रदेश में विद्युत आपूर्ति के अलावा बाहर भी बिजली बेची जा सकेगी। उन्होंने जो तर्क दिए हैं वे बचकाना हैं। दुनिया की कोई भी जलविद्युत परियोजना ऐसी नहीं है जो रोजगार पैदा करती हो। इस तरह की परियोजनायें ठेकेदार और दलाल तो पैदा करती हैं लेकिन रोटी पैदा नहीं करतीं। हर परियोजना पर्यावरणीय विनाश के साथ विस्थापन और पलायन लाती है। यही वजह है कि दुनिया के तमाम देश अपने यहां बने बांधों को तोड़ रहे हैं। वे अपने यहां ऊर्जा के नए स्रोत तलाश रहे हैं। यह तथ्य हम अपने ही आसपास कोरबा, सोनभद्र या उन अनेक उदाहरणों से पा सकते हैं जहां कोयला या बांधों से बिजली बनाई जाती है। छत्तीसगढ़ के कोरबा में तो अनेक बिजली घर हैं पर उस राज्य में उद्योग क्यों नहीं हैं सिवाय खनिज उद्योगों के जो प्राकृति संसाधनों के निर्मम दोहन से जुड़े हैं? विकास का यह विनाशकारी मॉडल हिमालय के संसाधनों की अंधी लूट की साजिश है जिसे यहां के सत्ताधारी वर्ग – नेताओं, अखबारों और अब बुद्धिजीवियों – के सहयोग से अंजाम दिया जा रहा है।
गंगा को बचाने के लिए विकास और पर्यावरण की इस बहस के बीच उन सवालों को तलाशना जरूरी है जो वहां के निवासियों के लिए परेशानी का कारण बने हैं। उत्तराखंड में जलविद्युत परियोजनाओं के समर्थन में कुछ बुद्धिजीवी द्वारा चलाए जा रहे सुनियोजित षडयंत्रकारी अभियान इस बात का प्रमाण हैं कि हिमालय में मुनाफाखोरों की पैठ मजबूत हो चुकी है। विशेषकर दो-तीन कथित बुद्धिजीतियों की राष्ट्रीय मीडिया में बयानबाजी गौर करने लायक है। सच यह है कि उनके पास न कोई तथ्य हैं और न ही हिमालय और वहां के जीवन के बारे में कोई आधारभूत जानकारी। है भी तो वे उन पर बात नहीं करना चाहते। सबसे ज्यादा हास्यास्पद बातें पद्मश्री सम्मान को अपने सीने से लगाये कवि लीलाधर जगूड़ी ने दिल्ली से प्रकाशित होने वाली साप्ताहिक पत्रिका में लिखे लेख में की हैं। उन्होंने जलविद्युत परियोजनाओं पर एक प्रवक्ता की तरह बोलना शुरू कर दिया है। इससे कई तरह की शंकाएं होती हैं। यह वही जगूड़ी हैं जिन्होंने राज्य के पहले मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी को ‘उत्तराखंड पिता’ कहा था। तब पहाड़ के लोगों ने कहा था कि स्वामी जगूड़ी के पिता हो सकते हैं, उत्तराखंड का ठेका वह न लें। उत्तराखंड की उस भाजपाई सरकार में उन्हें लालबत्ती से नवाजा गया था। एक बार फिर वह बांधों का समर्थन कर उत्तराखंड के स्वयंभू ठेकेदार बनना चाहते हैं।
अपने लेख में उन्होंने जो बेहूदे तर्क दिए हैं वे मजेदार हैं (देखें बाक्स) और इस बात का संकेत हैं कि जगूड़ी न आधुनिकता का अर्थ समझते हैं, न ही प्रकृति और पर्यावरण का महत्त्व। इसके बावजूद पूरे विश्वास के साथ तथाकथित विकास का समर्थन कर रहे हैं। होशो-हवाश का कोई आदमी उनकी इन बातों से सहमत हो सकता? क्या इस तरह की अवैज्ञानिक, अतार्किक और मूर्खतापूर्ण बातों को छापा जाना चाहिए था?
प्रमाणिकता को छोड़ दें तो भी स्पष्ट है कि जगूड़ी को जलविद्युत परियोजनाओं के प्रभावों की सामान्य जानकारी तक नहीं है। लगता है उन्होंने शुरुआती भूगोल भी नहीं पढ़ा है।
इन वैज्ञानिक बातों को छोडिय़े। यहां सवाल कुछ और ही है। पहली बात यह कि गंगा का सवाल पर्यावरण और आस्था का बिल्कुल नहीं है। गंगा को बचाने की बात साधु-संत कैसे करते हैं यह उनका मसला है, इससे प्राकृतिक धरोहरों को बचाने का सवाल समाप्त नहीं हो जाता। विश्व हिंदू परिषद या उनकी जैसी कोई संस्था अपने हिसाब से गंगा की बात कर रही है तो इसका मतलब यह नहीं है कि हम बांधों के समर्थक बन जाएं। असल में यह जलविद्युत परियोजनाओं और विकास के नाम पर राज्य को लूटने और लोगों को बेघर करने की साजिश है। जगूड़ी को पता नहीं कहां से इलहाम हुआ कि सुरंगों (टनलों) में जाने के बाद पानी शुद्ध हो जाता है। विद्युत परियोजनाओं के लिए जितनी भी सुरंगें बनती हैं वे पानी को शुद्ध करना तो दूर पूरे क्षेत्र की पारिस्थितिकी को भी बिगाड़ती हैं। जब कभी भी नदी के पानी के उपयोग की बात आती है तो उसे रन ऑफ द रीवर के माध्यम से उपयोग में लाया जाना ही वैज्ञानिक माना जाता है। इस तरह की परियोजनाओं से किसी को कोई ऐतराज भी नहीं है। लेकिन अभी जिन परियोजनाओं की बात हो रही है वे सभी सुरंग आधारित हैं। सभी परियोजनाओं में लंबी दूरी की सुरंगें बनायी जा रही हैं
सुरंगों में जाकर कोई पानी शुद्ध नहीं होता है। असलियत यह है कि सुरंगों से निकलने वाला पानी नए तरह के रासायनिक तत्व अपने साथ लाता है। हिमालय की भूगर्भीय स्थिति अभी रासायनिक और भूगर्भीय हलचलों की है इसलिए सुरंगों में पानी का जाना बहुत खतरनाक है। सुरंगों को बनाने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली भारी मशीनों से यहां की भौगोलिक संरचना पर जो नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है वह छिपा नहीं है।
परियोजनाओं के समर्थकों का दूसरा बड़ा तर्क यह है कि इन विद्युत परियोजनाओं से गांवों को बिजली मिलेगी। यह बात बिल्कुल बेबुनियाद है। राज्य में जो बिजली बनती है वह सेंट्रल ग्रिड में जाती है वहीं से बिजली का बंटवारा होता है। पावर हाउस से लोगों के घरों में सीधे तार नहीं खींचें जाते। कुल मिला कर राज्य को उसके हिस्से की बिजली ही मिलेती है जो बहुत कम होती है। इस संदर्भ में इस वर्ष गर्मियों में उत्तराखंड में बिजली की जो किल्लत हुई उसे याद किया जा सकता है। राज्य के पहाड़ी क्षेत्रों में जो बिजली की कुल खपत होती वह संभवत: उतनी भी नहीं है जितनी कि देहरादून में होती होगी। पहाड़ों में मुश्किल से ही पंखे चलते हैं। एसी तो शायद ही कहीं होंगे। उद्योगों की तो बात ही अर्थहीन है। दूसरी ओर आज भी उत्तराखंड में जितनी बिजली का उत्पादन होता है उसका वह पांच प्रतिशत भी शायद ही उपभोग करने की स्थिति में हो। तब पूरे पहाड़ी क्षेत्र में बिजली क्यों काटी जा रही थी?
अब आते हैं नौकरी के सवाल पर
उत्तराखंड में आजादी के बाद लगभग 37 लाख लोगों ने स्थायी रूप से पलायन किया है। राज्य बनने के इन 12 वर्षों में ही राज्य से 19 लाख लोग स्थायी रूप से पहाड़ छोड़ चुके हैं। राज्य के पौने दो लाख घरों में ताले लटके हैं। दो साल पहले आयी आपदा ने लगभग 3,500 गांवों को अपनी चपेट में लिया। पहाड़ पर जमीनों का टूटना जारी है। इससे पलायन और तेज हुआ है। पर्यावरण संबंधी परिवर्तनों ने कृषि को पूरी तरह अलाभ कारी बना दिया है। शेष जो भी छोटे-मोटे रोजगार थे सब घटे हैं। अब इन बांधों के निर्माण से पांच लाख लोगों के विस्थापन का खतरा मंडरा रहा है। सिर्फ पंचेश्वर बांध से ही सवा लाख लोगों का विस्थापन होगा। ये स्थितियां नयी तरह के सोच और नियोजन की मांग करती हैं पर हमारे नेता सिर्फ एक बात जानते हैं और वह है बांध बनाने की। यह सवाल है आखिर ये पद्मश्री प्राप्त बुद्धिजीवी किन की लड़ाई लडऩे में लगे हैं?
दूसरा पक्ष है बांधों के विरोध करने वालों का। इनमें साधु-संतों के अलावा पर्यावरणविद हैं। साधु-संतों को गंगा अविरल चाहिए, स्वच्छ चाहिए। गंगा को वे अपनी मां मानते हैं। दुनिया और विशेषकर योरोप के देशों में नदियों को कोई अपनी मां नहीं मानता। वहां गाय और पेड़ भी पूजे नहीं जाते हैं। बावजूद इसके वहां की नदियों को साफ रखने की संस्कृति है। हर छोटे से छोटे नाले को भी उन्होंने प्रदूषण से मुक्त रखा है। वहां के लोगों ने अपने जंगलों और जैव विविधता को बनाये रखा है, उससे नदियों को मां और पेड़ों को भगवान मानने वाले संतों को सबक लेना चाहिए। संत-महात्माओं को अभी भी अपने आस्था के दरकने की चिंता है। वे इस बात को नहीं समझ पा रहे हैं कि जब लोग रहेंगे तभी आस्था रहेगी। वे गंगा को बचाने की बात तो करते हैं, धारीदेवी की चिंता उन्हें है लेकिन गंगा में आचमन करने और धारी देवी को पूजने वाले लोगों के बारे में वे नहीं सोचते। असल में नदियों के किनारे रहने वाले लोगों और हिमालय की जैव विविधता को बनाए रखने वाले गांवों और आबादी को बचाए रखना बहुत जरूरी है। यदि वहां के गांव खाली होते हैं तो हिमालय और गंगा को कोई नहीं बचा सकता। पिछले दो दशक से खाली होते गांवों ने इस बात को साबित भी किया है। तथ्य यह है कि कई वनस्पतियां और प्राणी ऐसे हैं जो बिना मनुष्य के नहीं रह सकते।
उत्तराखंड में मौजूदा समय में चालीस हजार से ज्यादा एनजीओ काम कर रहे हैं। ये सभी पर्यावरण संरक्षण, जंगलों को बचाने, जलस्रोतों के संरक्षण और नदियों पर काम कर रहे हैं। राज्य में सत्रह हजार गांव हैं। इस लिहाज से हर गांव में तीन एनजीओ का औसत बैठता है। इन्हें देश-विदेश से भारी पैसा मिलता है। दुर्भाग्य से जितना एनजीओ और उनके काम करने का क्षेत्र बढ़ा है उतना ही पहाड़ से पानी, जंगल और पर्यावरण गायब होता गया। इसलिए पहाड़, विकास, पर्यावरण और गंगा के बारे में नए सिरे से सोचने की जरूरत है।
मध्य हिमालय में बन रही सुरंगों को बनाने के लिए उपयोग की जा रही तकनीक ने पहाड़ों को हिला दिया है। प्रतिवर्ष मानवजनित आपदा से पहाड़ डरे-सहमे हैं। लगातार भूस्खलन और पहाड़ों के टूटने की घटनायें सामने आ रही हैं। उत्तराखंड में जहां भी बांध बन रहे हैं उसके चारों ओर 15 किलोमीटर की दूरी तक सारे जलस्त्रोत सूख गये हैं। टिहरी के पास प्रतापनगर का क्षेत्र प्रतिवर्ष अपने सैकड़ों जलस्त्रोतों को खोता जा रहा है। इन क्षेत्रों से पलायन लगातार जारी है। रही-सही कसर सरकारी योजनाओं ने पूरी कर दी है। अब पहाड़ इन बांधों से अपने ताबूत में अंतिम कील ठुकने के इंतजार में हैं। इसलिए गंगा और हिमालय के सवाल को यहां के लोगों की बेहतरी के साथ जोड़कर देखा जाना जरूरी है। सबको यह बात समझनी होगी कि हिमालय जब तक बसेगा नहीं वह बचेगा भी नहीं। गंगा को आचमन के लिए बचाने की लफ्फाजी, पर्यावरण की राजनीति और विकास के छलावे से बाहर निकलकर जनता के दर्द को समझते हुए गांवों को बचाने की पहल होनी चाहिए।