अभिषेक
श्रीवास्तव
(रायगढ़ा
की आखिरी ग्रामसभा से लौटकर)
वेदांता- यह नाम
सुनते ही नियमगिरि पर्वत में रहने वाले दस हज़ार डोंगरिया, झरनिया और कुटिया कोंध
आदिवासी अपनी ''ट्रेडमार्क'' टांगिया (कुल्हाड़ी) चमकाने लगते हैं। शायद पीढि़यों
के अपने अस्तित्व में इन डोंगरिया कोंध आदिवासियों ने अनास्था के पर्याय के तौर
पर कोई इकलौता शब्द चुना है तो वो है वेदांता। इस दुश्मन से विरोध जताने के लिए
और हमखयालों की पहचान के लिए इनकी ''कुई'' भाषा को पिछले कुछ वर्षों में एक और शब्द
मिला है ''जिंदाबान'' (ये जिंदाबाद नहीं बोलते)। कुल मिलाकर मामला ये है कि लंदन
की कंपनी वेदांता को यहां से कुछ किलोमीटर नीचे लांजीगढ़ में अपनी अलुमीनियम
रिफाइनरी चलानी है जिसके लिए बॉक्साइट उसे नियमगिरि के पहाड़ों से निकालना है।
नियमगिरि की श्रृंखला कोरापुट, कालाहांडी, बोलांगीर और रायगढ़ा नाम के निर्धनतम
जिलों को पालती है। इससे यहां के लोगों को पानी मिलता है, फल-फूल मिलते हैं,
लकड़ी, वनोत्पाद, धान, मक्का, औषधियां सब कुछ मिलता है। खेतों की कुदरती सिंचाई
जिस तरह यहां के पहाड़ों से होती है, ऐसा उदाहरण शायद देश में कहीं और न मिले। इन
पहाड़ों को आज तक किसी ने नहीं छुआ। यहां जिंदगी बेरोकटोक अपनी गति से ठीकठाक चलती
रही है, बावजूद इसके कि मुख्यधारा के समाज की तुलना में इसे हमेशा से सबसे गरीब
कहा जाता रहा। कभी सरकार ने केबीके (कोरापुट, कालाहांडी, बोलांगीर) प्रोजेक्ट
चलाया तो कभी इंटिग्रेटेड ट्राइबल डेवलपमेंट एजेंसी ने अपने पैर पसारे, लेकिन इन
सब योजनाओं की परिणति दरअसल आज वेदांता बनाम नियमगिरि के इकलौते संघर्ष में आकर
सिमट गई है।
यह संघर्ष जितना
अंतरराष्ट्रीय है उतना ही ज्यादा स्थानीय भी है। एक ओर समरेंद्र दास नाम के
एक्टिविस्ट हैं जो लंदन में नियमगिरि के आदिवासियों की आवाज़ को लगातार उठाते रहे
हैं, तो दूसरी ओर रायगढ़ा जिले के मेकैनिकल इंजीनियर राजशेखर हैं जिन्हें
नियमगिरि के आदिवासियों के बारे में कुछ भी पता नहीं है, सिवाय इसके कि यहां
वेदांता का एक प्लांट लगाया जाना है और इसी से इस क्षेत्र के विकास की राह निकलनी
है। रायगढ़ा के लोगों को बिल्कुल अंदाजा नहीं है कि 40,000 करोड़ रुपये के इस निवेश
के खिलाफ़ महज़ 112 गांवों के आदिवासियों की आवाज़ इतनी अहम क्यों है। कभी आंध्र
के पड़ोसी कस्बे पार्वतीपुरम से उजड़ कर रायगढ़ा में बसे और अब जयपुर की एक
बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी कर रहे 26 साल के युवा इंजीनियर राजशेखर कहते हैं,
''शहर में कोई इस बारे में बात नहीं करता। सब चाहते हैं कि बस कंपनी का काम शुरू
हो ताकि लोगों को रोज़गार मिल सके। वैसे भी, वेदांता ने कितना सामाजिक काम इस
इलाके में किया है। पता नहीं आदिवासियों को क्या दिक्कत है इससे?'' राजशेखर जिस सामाजिक काम का हवाला दे
रहे हैं, वह वेदांता के सीएसआर (कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी) का हिस्सा है
जिसके तहत प्रोजेक्ट एरिया लांजीगढ़ में डीएवी वेदांता पब्लिक स्कूल, वेदांता
अस्पताल और ऐसे ही कई काम शुरू किए गए हैं। करीब से देखने पर हालांकि सच्चाई कुछ
और जान पड़ती है।
जरपा: अंतिम ग्रामसभा |
इस बयान में कितनी
संवेदना है और कितनी चालाकी, इसे समझने में शायद वक्त लगे। बहरहाल, 19 अगस्त की
पल्लीसभा का नतीजा इस देश में विकास को लेकर लोकल बनाम ग्लोबल की बहस में एक नई
लकीर खींच रहा है। जरपा गांव के कुल सात परिवारों के 12 वोटरों ने वेदांता के
प्रोजेक्ट को जिला जज एस.सी. मिश्रा और सैकड़ों सीआरपीएफ जवानों की मौजूदगी में
सिरे से खारिज कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट के अप्रैल में आए निर्देश पर 112 गांवों
की राय प्रोजेक्ट पर ली जानी थी। राज्य सरकार ने आदिवासी मंत्रालय और कानून
मंत्रालय को ठेंगा दिखाते हुए वेदांता के जमा किए हुए हलफनामे के मुताबिक सबसे कम
आबादी वाले सिर्फ 12 गांव इसलिए चुने थे कि उन्हें प्रभावित किया जा सके और फैसला
कंपनी के पक्ष में करवाया जा सके। खुद आदिवासी मामलों के मंत्री किशोर चंद्र देव
ने अपने साक्षात्कार में इस पर रोष जताया है। लेकिन सच्चाई किसी भी हेरफेर की
मोहताज नहीं होती। पासा उलटा पड़ा। वेदांता को 12-0 से हार का मुंह देखना पड़ा है।
(अभिषेक श्रीवास्तव: जनपथ ब्लाग, मेल-guru.abhishek@gmail.com)