ट्रेन टू हिंदुस्तान

 जेब अख्तर


जावर खान। हां. बाद में यही नाम बताया था उसने अपना। मुझे याद है जब वह कोच की ओर आ रहा था, तब दूर से वह ऐसा दिखाई दे रहा था जैसे कोई छोटा-मोटा पहाड़ अपने पैरों से चल कर आ रहा हो। व्हील चेयर के साथ सरकता हुआ। धीरे-धीरे। रेंगता हुआ-सा। खाकी रंग के पठानी कुरते पायजामे में उसका कद और भी चौड़ा और लंबा दिखाई पड़ता था। चेचक के धब्बों से भरे चेहरे पर घनी और बेतरतीब दाढ़ी, बड़ी-बड़ी आखें। जैसे कई रातों से ये सोई नहीं हों। अजीब थी उसकी आंखें। कोई नरम दिल इंसान अगर उन्हें अंधेरे में देखे तो मैं दावे के साथ कह सकता हूु कि वो डर जाए या होश खोए बिना नहीं रह सकता। हां, माथे पर से गरदन तक झूलते लंबे सीधे बालों के साथ उसकी आंखे ऐसे ही चमकती थीं। लगता था, उन कई रातों की उनींदी आखों में पानी की जगह खून बह रहा हो। तभी तो, वह अभी भी लाल दिखाई दे रही थीं। कभी बुझती और कभी लौ उगलती चिंगारी की तरह। उसके उसके साथ कोई और था जो व्हील चेयर पर लेटा हुआ था। कंबल से लिपटा हुआ। ऊनी और गहरे रंग के कनटोप से उसका चेहरा लगभग पूरा ढंका हुआ था।
हम सब ने उसे ध्यान से देखा था। मैं, संदीप, अमर और अविनाश ने। करांची स्टेशन के प्लेटफार्म पर चलते हुए अब वो हमारे बिल्कुल करीब आ गया था। व्हील चेयर पर लेटे उस बीमार आदमी का चेहरा बदस्तूर ढंका हुआ था। हम चाह कर भी उसे और ज्यादा नहीं देख पा रहे थे। सो हम सभी का पूरा ध्यान और हमरी पूरी जिज्ञासा जावर खान पर केंद्रित हो गई थी। हमारी जिज्ञासा तब और बढ़ गई थी, जब वह हमारे ही कूपे में सवार हुआ था। अपने मजबूत और लोहे जैसी खुरदरी-चौड़ी हथेलियों से उसने बिना किसी की मदद लिए उस बीमार आदमी व्हील चेयर समेत अकेले ही प्लेटफार्म पर से कोच में चढा़ लिया था। हालांकि हमारा दल उसकी मदद के लिए तैयार बैठा था। बस उसके एक इशारे या कुछ शब्दों की जरूरत थी। प्लीज, थोड़ी मेहरबानी करें, भाई साहब...ऐसा ही कोई औपचारिक शब्द वह बोल सकता था। मगर उसने नहीं कहा था। हां, व्हील चेयर पर से अपने मरीज को उठाते हुए वह थोड़ा झल्लाया जरूर था, अमां चलो यार --- रेल अब चलने वाली है। बीमार होने का यह मतलब नहीं कि मैं ही तुम्हें हर जगह उठाता फिरूं---
और देखते ही देखते उसने मरीज को पूरा का पूरा उठा लिया था। अपने कंधों पर। हमारे सामने के ऊपर वाले बर्थ पर उसे बड़े सलीके से सुलाकर  कंबल से ढंक दिया था। इससे फारिग होने के बाद वह हांफने लगा था। कमीज के आस्तनीने को कुहनियों तक चढाते हुए उसने बाकी का सामान वहीं पटक दिया था। फिर ढेर सारा झाग उगलते हुए जैसे अपने-आप से कहा था, बेनचो---रेशमा ने मुझे फंसा दिया---साली छिनाल----खुद तो गुलछर्रे उड़ा रही होगी और मुझे यहां फंसा दिया इस मुसीबत में ---आन दे मुझे वापस---बेनचो---रेशमा की तो मैें----बोलते-बोलते वह अचानक रुक गया था। शायद उसे ख्याल आ गया था कि वह कोच में अकेला नहीं कई लोगों के बीच है। हड़बड़ी में व हमारी तरफ देखने लगा था। हमने खिडक़ी से बाहर देखते हुए उसने न देखने और न सुनने का बहाना किया था।
तभी अविनाश ने मुझे कुहनियों से छूते हुए कहा था, सुधीर भाई मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि मुसलिम आतंकवादी ऐसे ही होते होंगे। इतना ही ताकतवर---कद्दावर---इतना ही दिलेर----
क्यों --- आतंकवादी होने के लिए इतना कद्दावर होना जरूरी तो नहीं है, ---- वो तो कोई भी हो सकता है एक दुबला-पतला आम सा आदमी या मासूम चेहरे वाला कोई शख्स क्यों नहीं हो सकता आतंकवादी----
अविनाश आगे कुछ कहता कि इससे पहले ही उसे खामोश हो जाना पड़ा था। क्योंकि अब वह हमारे सामने ही, नीचे की बर्थ पर बैठ गया था। हालांकि वह बर्थ हमारा था. लेकिन हम खामोश थे। उस वक्त मुझे शर्मिंदगी महसूस हो ही रही थी। २५ लोगों का हमारा दल हिंदुस्तान से पाकिस्तान आया था। दोनों मुल्कों के बीच बेहतर रिश्तों के लिए जमीन तैयार करने। आपसी मेलजोल बढ़ाने और रोज ब रोज खराब होते जा रहे हालात को पुरसकून बनाने के लिए। इस दल में पढ़े लिखे लोग थे। कलाकर, पत्रकार, कारोबारी और राजनीति से संबंध रखने वाले। १५ दिनों में हमने कई मीटिंगें की थी। पाकिस्तान के कई शहरों में गए थे। कई लोगों से मिले थे। जो हमारी ही तरह सोचने-समझने वाले थे। लेकिन हासिल सिफर रहा था। १५ दिनों के इस दौरे में हमें कुछ हाथ नहीं लगा था। हमारी गतिविधियां अचानक रोक दी गई थी। दल के लीडर अहलूवालिया साहब दो दिन पहले ही लौट चुके थे और हम मायूस, उदास और लटके हुए चेहरे लेकर पाकिस्तान से अब लौट रहे थे।
पूछने पर आहुलिया साहब ने बताया था, सीमा पर अचानक तनाव बढ़ गया है। विदेश मंत्रालय ने फरमान जारी किया था कि पाकिस्तान गया डेलीगेशन जितनी जल्दी वापस हो सके, अपने देश वापस लौट आए। दोनों मुल्कों के बीच की बातचीत अगली घोषणा तक के लिए टाल दी गई थी।
उस पूरे दौरे में कहीं कुछ सकारात्मक हुआ था तो यह कि चालीस सालों से बंद दोनों मुल्कों के बीच चलनेवाली एक मात्र रेल गाड़ी आज ही शुरू होने वाली थी। हमारा दल इस एतिहासिक घड़ी का गवाह बनने जा जा रहा, यह भी कम रोमांचित करने वाला नहीं था। लेकिन यह सब पहले से तयशुदा प्रोग्राम के तहत हो रहा था। दोनों देश की सरकारों ने भारी दबावों के बीच चालीस साल बाद रेल परिचालन को स्वीकृति दी थी।
करांची स्टेशन पर इस समय  पुलिस, कस्टम, सीमा सुरक्षा बल की अलग-अलग टुकडिय़ां तैनात थीं। दूसरी ओर कुछ बड़े राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता अपने-अपने झंडे को लहराते हुए पल्टफार्म पर यहां से वहां नारे लगा रहे थे। अपने ही मुल्क की तरह। सियासी पार्टियों में इसका श्रेय लेने की  होड़ लगी हुई थी। स्वार्थ का चेहरा कैसे हर जगह एक-सा  होता है - मैं सोच रहा था।
रात के दस बज चुके थे। यानी गाड़ी के खुलने का समय नजदीक आ गया था। हमारे दल को करांची से खोखराजार होते हुए सिंध और रेगिस्तान में दो रातों का लंबा सफर तय कर इस रेल से हिंदुस्तान आना था।
गाड़ी को दूसरे दिन सुबह पांच बजे उदयपुर पंहुंचना था। यानी इस डिब्बे में जावर खान के साथ हमें दो रातें गुजारनी थीं। मैं मन ही मन आश्वस्त था कि जावर खान इतने समय में अपने बारे ंमें जरूर कुछ न कुछ बताएगा।
गाड़ी रात के अंधेरे को चीरती जा रही थी। बाहर थार के रेगिस्तान का साम्राज्य फैेला हुआ था। थार का यह हिस्सा शायद हैमाडा शैली का रेगिस्तान था। पथरीला और चट्टानी पठार जैसा। दोपहर की धूप में रेत के कण मखमली चादर की तरह चमक रहे थे। कुछ दूरी पर रेत की एक पतली सी चादर, बेचैन और आतुर, सतह से उठती हुई दिखाई दे रही थी। इससे एक बहुत महीन मगर तीखी आवाज सुनाई दे रही थी, रेत के कणों के आपस में टकराने की। और दूसरी तरफ रेत के उड़ते हुए गुबारों के झुंड जैसे खुद से ही स्पर्धा कर रहे थे। और ठीक उसी समय रेत के टीलों के पीछे से बाज या गिद्धों का एक झुंड उड़ता हुआ हमारे सरों के ऊपर आ गया था। गाड़ी की रफ्तार के साथ वे भी उड़ रहे थे। कोलाहल भरी डरावनी आवाज के साथ। उनमें से एक ने अपने पंजों में मांस का एक बड़ा-सा टुकड़ा दबोच रखा था। इस टुकड़े को झपटने के लिए उनमें आपस में तकरार हो रही थी। उनका शोर, वातावरण को और भी कर्कश बना रहा था। सुना था किसी जमाने यह इलाका सोन चिरैया के लिए जाना जाता था। दूर-दूर से सैलानी उन्हें देखने के लिए आते थे। लेकिन अब न सोन चिरैया दिखाई देती थी उनकी मधुर आवाज सुनाई पड़ती थी। थार के विस्तार ने उनके आकाश को छीन लिया था। और हमारे हिस्से बचे थे यही गिद्ध, बाज, उकाब, चील और लंबी चोच और पैर वाले हिंसक शिकारी पक्षी। मैंने उपर बर्थ की तरफ देखा था। जावर को शायद उपर का एक ही बर्थ मिला था। वह बीमार आदमी के लगकर पीठ टिकाए उपर की बर्थ पर बैठा था। और लगातार बीडिय़ां फूंके जा रहा था। बीच-बीच में उसके मुंह से गालियों जैसे शब्दों का निकलना का बंद नहीं हुआ था। अविनाश, अमर और संदीप सो चुके थे, लेकिन मेरी आंखों मेंं नींद नहीं थी।
रात के बारह बज रहे थे। तभी जावर अपनी सीट से चौंक कर उठा था। कुछ वर्दीधारी बोगी में आए थे। पुलिस अफसरों के सामने उसे मैंने पहली बार देखा था। उसके चेहरे का रंग अचानक, तेजी से बदल गया था। घबराहट से भरपुर। अफसर ने कडक़दार आवाज में उससे पूछा था,
कहां से हो---?
लाहौर---
अबे लाहौर कहां---मॉडल टाऊन में रहता है क्या तू---?
जी हाजी पुरा का हूं सर जी
अबे कौन सा हाजीपुरा---जो पीर नसीर से लगे है
हां हाकिम ---
और ये कौन है बे तुम्हारी बर्थ पर ?
मेरा भाई है जी, बीमार है----
टिकट और पासपोर्ट---शिनाख्ती कार्ड---कुछ है तेरे पास?
जी मजूद है जी ---- वह घबराहट के बीच कमीज के भीतर वाली जेब से कागजात निकालने लगा था।
कुछ देर के बाद अफसर चले गए थे। लेकिन उनमें से एक लौटते हुए भी पीछे मुड़-मुडक़र जावर को घूरता रहा था। बहुत धीमी आवाज में उसने अपने अफसर से कहा था,
साहब जी, मुझे इस पर कुछ शक लगे है----आपने देखा, कैसे कांपने लगा था हमें देख कर
अबे जान दे ---कोई खेफिया होगा साला----और क्या --- इस पर ज्यादा सर खपाने की जरूरत नहीं---
अफसर और सिपाही चले गए थे। मुशिकल से वे आठ-दस मिनट रुके होंगे। लेकिन इतनी ही देर मेंं, जावर काफी नर्वस हो गया था। हल्की सर्दी के बावजूद उसकी चौड़ी पेशानी पर पसीने की मोटी-मोटी बूंदों को साफ देखा जा सकता था।

ऐसा बार-बार हुआ था। होश आने पर भी वह साफ-साफ कुछ बोल तो नहीं पाता था लेकिन उसके हाथों से कुछ भी लेने से इनकार करता था। वह बार-बार जावर खान के हाथों को झटक देता। जिससे दवाई या उसके हाथ की खाने वाली चीज दूर जा गिरती। जावर खान फिर झाग उगलने लगता। लेकिन फिर दूसरे ही पल खुद को संभालने का जतन करने लगता। उस आदमी के सामने मिन्नत-समाजत करता और हाथ जोडक़र दवा पी लेने की गुजारिश करता। और मैं देखता आ रहा था ज्यादातर वह इसमें नाकाम ही रहता था। हर बार एक झुंझलाहट, एक पछतावा उस पर हावी हो जाता। पहाड़ पर घने कोहरे की तरह। बर्थ वाले आदमी की आंखों में कभी तो उसके लिए हिकारत दिखती और कभी वह उसे बेचारगी के भाव से देखने लगता।
मेरी अधीरता बढ़ती जा रही थी। पुलिस वालों का लगातार आना-जाना, जावर की घबराहट और बर्थ पर निरंतर लेटे उस बीमार ने मेरी जिज्ञासा को अतिरिक्त रूप से बढा दिया था। और वह शायद रात का अंतिम पहर था जब गाड़ी सिगनल न होने की वजह रूकी हुई थी।
बाहर, रेत पर ऊंट और भेंडों का एक काफिला गुजर रहा था। जो बता रहा था गाड़ी अब हिंदुस्तान की सरहद में पहुंच गई है। थार का साम्राज्य इस इलाके में और भी समृद्ध और, और भी विस्तृत था। किसी ने बताया था, थार के पांव राजस्थान से निकल कर पड़ोसी राज्यों- मध्य प्रदेश, गुजरात, पंजाब और हरियाणा तक में पसर चुके हैं। और यह कि यहां से उठने वाले बवंडर ने हिमालय के गलैशियर तक को तेजी से फिघलने पर मजबूर कर दिया है। यानी जहां तक देखो रेत ही रेत। कहीं-कहीं आंक की कटीली और सूखी झाडियों का झुंड भी दिखाई पड़ता था। किसी ने बताया था, रेगिस्तान में वही पौधे अपना अस्तित्व बचा सकते हैं जिनकी जड़ों में धरती के बहुत नीचे से जल खींचने की क्षमता हो। मैं सोचने लगा था जावर खान की जड़ें कहां है। कहां से मिल रहा है इन जड़ों को पानी। आद्रता। कहां से मिल रही थी उसे जोखिम से लडऩे की इतनी ताकत। और कौन थी रेशमा----जिसने उसे इस मुसीबत यानी खतरे में डाल दिया था। एक अटपटी सी इच्छा और वासना मेरे अंदर जन्म लेने लगी थी, यह सब जानने की।
मैंने जावर को फिर से सिगरेट ऑफर किया था। इस बार, कुछ संकोच के बाद उसने पैकेट से एक सिगरेट निकाल लिया था। मैेंने लाइटर निकाल कर उसकी सिगरेट सुलझाने के बहाने उसे और निकट से देखने की कोशिश की थी। इस वक्त वह सामान्य दिखाई दे रहा था। न उसके चेहरे पर पसीने की बूंदे नहीं दिखाई पड़ी थी, न ही उसने सिगरेट जलाने में किसी तरह की जल्दीबाजी की थी। लेकिन लंबे कश लेने के उसके अंदाज से लगता था कि वह कुछ छिपा रहा है। अंदर की बेचैनी या ओठों से बाहर निकलने के लिए आकुल शब्द।
क्या बात है --- कोई परेशानी है तो मुझे बताओ--- शायद मैं तुम्हारे किसी काम आ सकूं----
उसने तीर की तरह एक कड़वी नजर मुझ पर डाली और फिर कुछ कहते -कहते रुक गया था।
हम हिंदुस्तान से आए थे तुम्हारे मुल्क---- दोस्ती करने के लिए --- प्रेम का पैगाम लेकर
मुझे पता है--- तुम इंडियन हो ---उसने पहली बार मुझ से कुछ कहा था, कोशिश करते रहो---मगर बेनचो कुछ उखडऩे का नहीं है---
क्यों---
देखो मैं ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं हूं---आटो चलाता हूं आटो---- उसने मेरी आंखों में आखें डालते हुए जोर देकर कहा था, जैसे यकीन दिला रहा हो, मैं ऑटो ड्राइवर हूं समझे----लेकिन तुम्हारी नहीं अपनी सरकार को तो मैं जानता हूं---ये कभी कुछ सई नहीं होने देंगे---ये ख्याल ही निकाल दो मन से ----
बोलते-बोलते उसका लहजा सख्त हो गया था। लग रहा था उसके मुंह से शब्द नहीं कड़ुवा झाग निकल रहा हो। या बाहर उड़ते रेत के नुकीले कण उसके शब्दों के साथ मिलकर चुभ रहे थे।
इसके बाद वह फिर खामोश हो गया था। मैंने इस खामोशी को तोडऩे के लिए एक बेतुका सा सवाल किया था,
सिगरेट का टेस्ट कैसा लगा तुम्हें---
बढिय़ा है --- मैं पहले भी पी चुका हूं----लाहौर की पान मंडी में मिल जाती है सभी इंडियन ब्रांड---उसने सपाट सा जवाब दिया था।
तुम वही ऑटो चलाते हो?
चलाता हूं तो --?
उल्टे उसने मुझी पर सवाल दाग दिया था। मैं सकपका गया था। फिर उसने आगे कहा था,
हां---वहीं आटो चलाता हूं--------पिछले आठ सालों से
और तुम्हारे यह भाई साहब---मैंने बर्थ के ऊपर इशारा करते हुए पूछा।
ये मेरा भाई है ----फिर उसने जैसे लफ्जों को चबाते हुए कहा था, नहीं यह मेरा दुश्मन है, इसकी वजह से तबाह हो गई मेरी जिंदगी----रेशमा और इसने मिलकर फंसा दिया मुझे---
बहुत देर के बाद उसके मुंह से रेशमा का नाम फिर निकला था। उसने फिर गाली के साथ, दांत भींचते हुए कहा था, बेनचो---रेशमा की तौ मैं लौट कर वो---करूंगा----देखूंगा साली में कितना दम है---मुझे नचा रही है ---मैं भी कितना बड़ा बावला हूं---
बोलते -बोलते वह फिर खामोश हो गया था। रात का अंधेरा और घना हो गया था। और इसी के साथ मेरी जिज्ञासा की परत भी। उसने अब तक मेरे  एक भी सवाल का सीधा जवाब नहीं दिया था। मेरी समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था।
रात के अंतिम पहर में मेरी नींद खुली थी। यह सुबह का आगाज था। बाहर नागफनी की नुकीली झाडिय़ों और रेतीली धाराओं के बीच खंडहर में तब्दील हो चुकी एक हवेली चुपचाप हमारी गाड़ी के साथ-साथ चल रही थी। रेगिस्तान का साम्राज्य यहां भी अपना परचम लहरा रहा था। गाड़ी की रफ्तार तेज हो गई थी। तभी जावर खान की खनकदार आवाज सुनाई पड़ी थी। बेनचो ---पानी  भी खत्म हो गया ---अब मैं इसको दवा कैसे पिलाऊं---
मैं झट से उठ बैठा था। बर्थ वाले आदमी को उस घड़ी शायद प्यास लगी थी। वह इशारों से पानी मांग रहा था। मगर जावर खान की बोटल खाली हो चुकी थी। और वह अंधेरे में बड़बड़ा रहा था, अरे देता हूं---थोड़ा सब्र करो
न चाहते हुए भी उसने मेरे हाथों से बोटल ले लिया था। पानी पी कर बर्थ वाला आदमी लंबी-लंबी सांसे लेने लगा था। हांफने जैसा। जावर खान ने उसे शीशी से निकाल कर एक दवाई पीने के लिए दी थी। इसे पीते ही वह सो गया था। मुझे उसकी हालत अच्छी नहीं लग रही थी। किसी भी वक्त कुछ भी हो सकता था।
तुम दोनों को जाना कहां है----
हैदराबाद---इस बार उसने बिना झुंझलाए सीधा सा जवाब दिया था।
हैदराबाद ---कहां---किसी अस्पताल में ?
वह फिर खामोश हो गया था।
बताओ शायद मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकूं---
तुम मेरी मदद नहीं कर सकते--- उसने लगभग चीखते हुए कहा, पुलिस लगी है मेरे पीछे जानते हो तुम---बंदूक की गोली पीछा कर रही है मेरा----मरना चाहते हो
मैं उसे हैरत से देखने लगा था। वह कहे जा रहा था, पता नहीं किस जुनून में, पता है तुम्हें ---मैं कौन हूं-----
मैं जानना चाहता हूं---मैं उठकर उसके पास आकर बैठ गया था। उसके कंधों पर मैंने अपना हाथ रख दिया। सिगरेट को उसने पैरों से बढ़ी बेरहमी से कुचला था, जैसे वहां सिगरेट नहीं बिच्छू हो। उसने कहना शुरू किया था,
मैं लाहौर में ऑटो चलाया करता था। शाही मुहल्ला और हीरा मंडी के इर्द-गिर्द। बाहर से आने वाली सवारियों को मंडी तक पहुंचाया करता था। इसी दौरान मेरी मुलाकात रेशमा से हुई थी। रेशमा के बाप ने उसे पैसों के लिए बेच दिया था। एक गाने वाली के यहां। वह बहुत रोया करती थी। ग्राहकों के सामने उसे जबरदस्ती गाने के लिए कहा जाता था। मैंने उसे भरोसा दिलाया था कि मैं उसे वहां से निकाल लूंगा। मगर कोई रास्ता नहीं मिल रहा था। तभी मेरी मुलाकात मुख्तारा खान से हुई थी। देखने में पतला-दुबला मुख्तारा वकालत करता था और गजब की बातें कहता था। उसने मुझ से कहा दीन की खिदमत में लग जाओ। इस जिंदगी में कुछ नहीं रखा है। जिहाद पर निकलो। इस्लाम तुम्हे बुला रहा है। पहली मुलाकात के वक्त ही उसने मेरी हथेली पर नए-नए नोटों की गड्डी रख दी थी। और अगली मुलाकात में और भी देने का वादा किया था। मैंने हिसाब लगा कर देख लिया था। रेशमा को मंडी से निकालने के लिए इतने पैसे काफी थे। कुछ भी होते तो मैं अपनी ऑटो बेच सकता था। जब मैंंने पूछा था कि मुझे करना क्या है, तो उसने कहा था, पाकिस्तान की जमीन को पाक करना है। सरकार यह काम नहीं कर रही है तो हम करेंगे----कायदे आजम के अज्म को आगे बढ़ाएंगे। मुझे तीन महीने की ट्रेनिंग पर एक कैम्प में भेजा गया था। वहां कई कैम्प थे। अलग-अलग तनजीमों के अलग-अलग कैम्प।
ट्रेनिंग के बाद मुख्तारा ने मुझ से कहा था, तैयार रहना जल्दी ही तुम्हें एक ऑपरेशन पर निकलना है। मैं डर गया था। कहीं यह खबर रेशमा को मिल गई तो। मैंने उन से कहा था, मुझे अफगान भेज दो, मैं वहीं ऑपरेशन करूंगा---जैसा तुम कहोगे---
अफगान क्यों---?
क्योंकि वहां ब्रतानवी और अमेरिकन फौज ज्यादा है----मैंने चालाकी भरा जवाब दिया था, जो हमारे सबसे बड़े दुश्मन हैं---
ये तय करना तुम्हारा काम नहीं है
लेकिन मैं ज्यादा सवाब कमाना चाहता हूं---जैसा कि तुम कहते हो? ज्यादा बड़ा दुश्मन---ज्यादा सवाब
कहीं भी फिदाई करो---सवाब सब जगह बराबर मिलता है? एक ने मेरी बात को काटते हुए कहा था, मकसद तो ये है कि अपने जिस्म के तुम कितने टुकड़े करते हो ---तुम खुदा की राह में किस तरह से कुर्बान करते हो---
मैं इसके आगे कुछ नहीं बोल पाया था। कैम्प की उस संकरी गली में, बंदूक और दूसरे हथियारों के बीच, मेरे सामने रेशमा का चेहरा लहराने लगा था। जब-जब ऐसा होता मैं अपना निशाना भूल जाता। मैं किसी भी सूरत पर उसे उसके मालकिन के चंगुल से निकालना चाहता था। इसके लिए कुछ भी कर गुजरना चाहता था। मुख्तारा ने कहा था कि ऑपरेशन के बाद मैं आजाद हो जाऊंगा। अपनी मरजी से कहीं भी आने जाने के लिए।
एक दिन सुबह-सुबह मुख्तारा के साथ चार लोग आए थे मेरे घर पर। एक तसवीर लेकर। इसमें तीन लोगों की तसवीरें थीं।
कौन हैं यह लोग?
हिंदुस्तानी काफिर हैं---
सिर्फ इसी लिए ---?
नहीं ---- मुख्तारा की आंखों से उस घड़ी चिनगारियां निकलने लगी थीं, मुजरा सुन रहे थे तीनों --- हमारी लड़कियों से। हमारी कौम की तवायफें मुजरा करें इन हिंदुस्तानी बुतपरस्तों के सामने ---- तुम्हें पसंद आयेगा यह सब----
जनाब ---- किसी ने पीछे से कहा था, सुना है मुजरा करने वाली रेशमा जावर खान की महबूबा है
तब तो तू भड़ुवा हुआ बे भड़ुवा---- अपनी महबूबा को नचवा रहा है काफिरों के सामने
नथ भी उतरियो किसी काफिर से ही दल्ले---
जावर खान जैसे लफ्जों का चबा रहा था, 
सभी हंसने लगे थे इस बात पर। मेरे जबड़े भिंच गए थे। मुठ्यिां तन गई थीं और रगों का खून उबल कर जैसे आंखों के रास्ते बाहर निकल जाना चाहता था।  जहन में बगावत पैदा होने लगी जी। वो तीनों सामने होते तो मैं उसी वक्त उनको हलाक कर देता।
होश से काम लो होश से ---- ये काम इतना आसान भी नहीं है।  मुख्तारा ने कहा था, मौका आने दो------और सब्र से काम लो---- सब्र करने वालों की मदद खुदा खुद करता है। मैं लौट आया था। अगली खबर मिलने तक। पता नहीं कैसे रेशमा उन दिनों बीमार रहने लगी थी। मैं बहुत तनाव था। उसे जल्दी-जल्दी बुखार आता और वह ठंड से कांपने लगती। एक डॉक्टर ने कहा था उसे लंबे इलाज की जरूरत है। 
कुछ दिनों बाद ही हमें मौका मिल गया था।  उस दिन वे तीनों शहर से दूर एक गांव में गए हुए थे। शायद किसी मेडिकल कैम्प में। वहां सिक्युरिटी सख्त नहीं थी। ऑपरेशन के बाद मैं भागा-भाग रेशमा के पास पहुंचा था।  उसके कमारे मेें। टीवी पर दिखाया जा रहा था। आनन-फानन में तीनों को अस्पताल में भरती किया था। लेकिन पता नहीं कैसे उनमें से एक बच गया था। टीवी पर उस जिंदा बचे हुए आदमी का चेहरा देखकर चौंक पड़ी थी रेशमा।  गुस्से और अफसोस के साथ वह उबलने लगी थी वह,
अरे इसे किसने मारा, इस देवता जैसे इनसान से किसी को क्या दुश्मनी हो सकती है ----
तुम जानती हो इसे, मैं चौंका था।
हां, बिल्कुल---पता है यह वही ड़ॉक्टर है जो उसका और हीरा मंडी के दर्जनों लड़कियों का ईलाज किया करता है। बिना पैसे लिए।
हां, बदले में  मुजरा जो सुनने के लिए मिलता था, मैंने तलखी से कहा था।
सुनकर और उबल पड़ी थी रेशमा,
तो इसमें गलत क्या है,  मारने वालों को यह नहीं दिखता कि इस पेशे को कोई खुश होकर नहीं अपनाता--- करना पड़ता है रोटी और पेट के लिए ---- अरे खत्म ही करना है तो मुआसरे की इस दाग को खत्म करने की कोशिश क्यों नहीं करता कोई ----  उलटे यह बड़े-बड़े सफेदपोश पालते हैं तवायफों को --- इस पेशे को ----गिनवाउं उनके नाम ---  हुंह---
बोलते-बोलते रेशमा की सांस उखडऩे लगी थी। और जाने किस खौफ से मेरी बोलती बंद हो गई थी। तभी मेरा मोबाइल बजा था। दूसरी तरफ मुख्तारा था। उसने मुझ से शहर से निकल जाने का हुक्म दिया था। मेरे माथे पर पसीने की बंूदे उभर आईं थीं। मैंने रेशमा से कहा था,
मुझे अभी निकलना होगा।
अभी ----कहां और क्यों?
ये सब मैं बाद में बताऊंगा --- अभी सिर्फ ये करो को तुम भी तैयार हो जाओ मेरे साथ चलने के लिए---
मैं ----
इतनी देर में रेशमा को सब समझ में आ गया था। पिछले दिनों की एक-एक कड़ी उसके सामने जुड़ गई थी। रेशमा ने उबलते हुए मेरा गिरेबान पकड़ लिया था,
तो तुम हो वह हैवान जिसने इस फरिश्ते पर गोली चलाई--- इसकी जान लेने के लिए --- वह तुम हो ---- और मैं ऐसे आदमी से मोहब्बत करती हूं---- लानत है मुझ पर भी ----
रेशमा ये वक्त जजबात में बहने का नहीं है---
पता है तुम्हें इस आदमी के बारे ंमें-----वह जैसे अपने आप से बोलने लगी थी-----इसके घर में इसकी एक मां है---एक बहन है, जिसकी सगाई की रस्म के लिए यह अगले हफ्ते जाने वाला था, कहा करता था उसका कोई भाई या नहीं या रिश्तेदार ऐसा नहीं है जो उसकी मदद कर सके---यह काम उसे जाकर खुद ही करना होगा, अपने हाथों से-----
रेशमा मेरी बात सुनो ये बाते हम बाद में भी कर सकते हैं
लेकिन वो मेरी ओर आग भरी आंखों से देखते हुए बोल रही थी, और तुम सबने ऐसे आदमी को मार डाला----अब कौन जाएगा उसके घर---
ओए बावली न बन तू----वो मरा नहीें है जिंदा है अभी --- चल तैयार कर अपना सामान जल्दी? मैंने उसे दिलासा देने की कोशिश की थी और जल्दी-जल्दी जरूरी सामानों को बैग में भरने लगा था। तभी रेशमा ने मुझे जोरदार झटका देते हुए कहा, कमीने साले तुमने सोच कैसे लिया कि मैं तुम्हारे साथ जाउंगी---तुम जैसे कातिल गुनाहगार के साथ
उसने धक्का दे कर मुझे घर से बाहर निकाल दिया था। जाबर खान कह रहा था,
फिर मैंने बहुत कोशिश की रेशमा को मनाने की---मिलने की ---- लेकिन सारी कोशिशें बेकार---मैं रोता और गिड़गिड़ता रहा उसके सामने। इधर पुलिस की गश्त बढ़ गई थी। मेरी जान कहीं भी, कभी भी जा सकती थी। आखिर एक दिन उसे मुझ पर रहम आ गया, उसने कहा- मैं तुम्हारी सुरत तभी देखूं जब तू डॉक्टर साहब को उनके घर पहुंचा दे --- उनकी बहन की सगाई वाले दिन के पहले.. .
अरे पागल है क्या तूं---पता है पुलिस के सख्त पहरे में रखा गया है उसे
डर गया तू----तू तो बड़ा बहादुर है--- एक निहत्थे पर हमला करने वाला --- मरद कहता है खुद को ---- अरे तुझसे ज्यादा दमखम वाले मरद तो हीरा मंडी की रंडियों ने जने हैं बड़े-बड़े इंजीनियर, जज, डॉक्टर --- फौज तक में जांबाजी दिखा रही हैें  इस मंडी में पैदा हुई औलादें ---मुझे तो शक लगे है तू मरद है भी कि नहीं---
ओए बकवास बंद कर बेनचो----तू मरवाना चाहती है क्या मुझे 
जो तू इस काम में मर भी गया तो मैं अपने मोहब्बत को कामयाब समझ कर सब्र कर लूंगी---
कहकर उसने दरवाजा बंद लिया था। अजीब भंवर में फंस गया था मैं। लग रहा था रेशमा के अंदर उससे अलग, एक और रेशमा है। जो दिखाई देने वाली रेशमा से कहीं ज्यादा मजबूत, ताकतवर और वस्सत वाला है। उसके सामने मेरा वजूद रूई फाहे जैसा हवा में इधर-उधर बे सिम्त उड़ता हुआ - सा महसूस हो रहा था। मैं अपने आप से लड़ सकता था, मुख्तारा से लड़ सकता था, पुलिस से लड़ सकता था लेकिन रेशमा से नहीं। आखिर ये सब उसी के लिए तो था। मैं हार गया था उसके सामने, 
कब है उसके बहन की सगाई ?
आठ दिन बाद --- अगले हफ्ते के जु्मेरात को
और साहब---बोलते बोलते जावर खान सिसकतने लगा। बच्चों की तरह। और साहब मैं रेशमा से बहुत मोहब्बत करता हूं---उसकी बिना मैं जी नहीं सकता---कसम खुदाया की ---
तो ये बर्थ वाला आदमी तुम्हारा भाई नहीं है----मैंने लंबी सांस लेते हुए कहा था।
हां साहब---ये आदमी वही है डाक्टर----इसे कल तक पहुंचाना है मुझे इसके घर---मगर पुलिस --- तुम मदद करोगे मेरी --- वह सवालिया नजरों से देख रहा था मुझे।
मेरे माथे पर सोच की लकीरें पड़ गई थीं। दो अफसर जैसे पुलिस वाले हमारी तरफ आ रहे थे। जावर खान चेहरा छिपाने के लिए फिर से खिडक़ी बाहर देखने लगा था।
अफसरों ने मुझे अपने साथ चलने के लिए कहा था। दूर ले जाकर उन्होंने मुंझ से कहा था, ये आदमी डाउट फुल है --- इसे हमें कस्टडी में लेना है---आपकी मदद की जरूरत पड़ेगी---
मगर मैं आपकी मदद कर सकता हूं
देखिए हम नहीं चाहते कि एक आदमी के लिए किसी तरह का खून-खराबा हो
जी मैं मदद के लिए तैयार हूं---मगर इसकी जान को खतरा नहीं होना चाहिए
क्यों---इसकी गारंटी चाहिए क्या आपको, अफसर की आवाज तल्ख हो गई थी।
जी गारंटी  नहीं मांगता हूं --- लेकिन इतना जरूर कह सकता हूं कि यह नेक आदमी है ---  बहकावे में आ गया है
हमें भी यही उम्मीद है लेकिन --- अफसर ने अपने पतलून की गर्द झाड़ते हुए कहा था, तभी उसका मोबाइल फोन बजने लगा था और उसकी बात अधूरी रह गई थी। 
यस सर दूतावास को खबर दे दी गई है----जी सर मुझे कुछ और लोगों की जरूरत पड़ सकती है---खतरनाक दिखाई पड़ता है ---- ऑपरेशन इतना आसान नहीं लगता---साइट एंड शूट भी करना पड़ सकता है सर --- ओके सर---थैंक यू---हमारी पूरी नजर है सर---
मेरी धडक़नें बढ़ गई थी। मैंने वहीं से जावर खान की तरफ देखा था। वह अभी भी बर्थ वाले मरीज को दवा पिलाने की जद्दोजहद कर रहा था। मैं अभी भी पुलिस अफसर से मुखातिब था, सर मेरी रिक्युवेस्ट है कि आप उसे एक मौका दें----वो एक नेक काम पर निकला हुआ है---वो खुद को पुलिस के हवाले कर देगा।
कहते-कहते मैंने अपने टूर का हवाला दिया था। जिससे हमें कुछ हासिल नहीं हुआ था,
सर यकीन मानिए दोनों देशों की राजनीति और हमारा डेलीगेशन जो नहीं कर पाए --- वह काम यह आदमी अकेले कर रहा है---इसके साथ कोई हादसा दोंनों मुल्कों के बीच की खाई को और चौड़ा करेगा
हम अपनी ड्यटी करने आए हैं मिस्टर ----------?
जी ---सुधीर कुमार, अ डेलीगेशन फ्राम पीएमओ आफिस ---
ओ---यस, तभी आप पुलिस के काम में इंटरफेयर कर रहे हैं , अफसर ने आगे कहा था, लेट मी डू ऑवर ड्यूट एंड डोन्ट टेक एनी बोदर अबाउट द मैटर ---बस आप हमें को-अपरेट कीजिए---
जाने क्यों मुझे अफसर की बात पर भरोसा नहीं हुआ मैंने आहुलिया साहब से बात की थी। आहूलिया ने मुझे बेफिक्र रहने को कहा था। उन्होंने जावर खान को सुरक्षा देने का भरोसा दिलाया था। कहा था पीएमओ आफिस और आला अफसरों से जावर खान के बारे में बात करेंगे। मैं उन्हें यह समझाने में कामयाब हो चुका था कि वक्त बहुत कम है। और जावर खान की जान को खतरा है। लेकिन फिर भी मन था कि बेचैनी से भरा जा रहा था। इसी दरम्यान मेरी आंख लग गई थी। और सुबह जब नींद खुली तो गाड़ी स्टेशन पर पहुंच चुकी थी और अफरातफरी मची हुई थी। जावर खान और डॉक्टर अपनी बर्थ पर नहीं थे। गाड़ी उदयपुर पहुंच चुकी थी।
मैं भाग कर गाड़ी से नीचे उतरा था। मेरा अंदेशा सच साबित हुआ था। पुलिस ने स्टेशन को चारो तरफ से घेर रखा था और स्टेशन की माइक ऊंची आवाज में चीख रही थी,
सभी मुसाफिर अपनी-अपनी जगह पर खड़े रहेें, खबर मिली है कि इस गाड़ी से एक पाकिस्तानी आतकंवादी हमारे देश में घुस आया है। पुलिस उसे पकडऩा चाहती है। दूर खड़ा जावर खान घबराहट के साथ इधर-उधर देख रहा था। उसके चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं। दाढ़ी की ओंट में भरा-भरा  दिखने वाला उसका चेहरा इस वक्त बेहद खाली-खाली नजर आ रहा था।
उसने व्हील चेयर का थाम रखा था, जिस पर डॉक्टर गहरी नींद में सोया हुआ था। कुछ वर्दीधारी अफसर उसकी ओर बढ़ रहे थे। उनके हाथों में रिवाल्वर चमक रही थी। जावर खान के मुंह से फिर गाली निकली थी, बेनचो----रेशमा ने मुझे फंसा दिया-----------कहते-कहते उसने अपने नाफ में हाथ डालकर एक छोटी सी बंदूक निकाल ली थी।
जावर रुको ----नहीं ---- तुम्हें कुछ नहीं होगा----मैं बेतहाशा उसकी तरफ दौड़ा था।
लेकिन  इससे पहले कि जावर तक मेरी आवाज पहु्ंच पाती, बहुत सारी गोलियां उस तक पहुंच चुकी थी। उसके पहाड़ जैसे जिस्म को छेदते हुए। जावर वहीं गिर गया था। हत्थे वाली कुर्सी उससे दूर जाकर छिटक गई थी। और खंभे का सहारा लेकर टिक गई थी। जावर का जिस्म प्लेटफार्म की सख्त फर्श पर ऐंठते हुए यहां वहां तड़प रहा था। फिर कुछ देर बाद वह शांत हो गया।  पुलिस वाले बूटों से ठोकर मार कर अपना यकीन पक्का कर रहे थे।
मैंने हत्थे वाली कुरसी को थाम कर भारी मन से स्टेशन से बाहर निकल गया था।

फिर पुलिस वालों के आने का सिलसिला फिर बढ़ गया था। और मैंने नोट किया था, वे जब भी आते जावर उनसे बचने की कोशिश करता। वो या  तो बाथरूम चला जाता या नींद में होने का उपक्रम करने लगता। यही नहीं उसने पुलिस वालों से झूठ भी बोला था। तय था कि बर्थ पर सोया वह बीमार आदमी उसका भाई हर्गिज नहीं था। मैंने देखा था, बर्थ पर चढ़ाते समय उसके गले में हनुमान का लॉकेट। तभी मेरा ध्यान फिर से उसके बीमार साथी की ओर गया था। कौन था वह जावर खान का। और क्यों जा रहा था वह हिंदुस्तान। बर्थ में उसे लिटाए लगभग २४ घंटे हो चुके थे, लेकिन वह एक बार भी नीचे नहीं उतरा था। न ही कोई उसका चेहरा देख पाया था। बर्थ पर ही जाबर ने उसे ब्रेड और चाय पीने को दिया था। उसका सिर अपनी गोद में रख कर। जिसे वो बार-बार झटक देता था। जाबर उसे बड़ी मुश्किल से एक या दो टुकड़े खिला सका था।