चला गया जिंदगी की धज्जियां उडाने वाला---


जेब अख्तर

तब कहानियों का ककहरा भी मालूम नहीं था। संजीव भाई कुलटी में रहते थे। उनकी कहानी अपराध छप चुकी थी। नए लिखने वालों पर उनका आतंक बरपा होने लगा था। हालांकि इसमें उनका दोष नहीं था। अपराध कहानी का आभा मंडल ही ऐसा था उन दिनों। इसके बाद सृजंय की कामरेड का कोट आई। अपराध सारिका में छपी थी और कामरेड का कोट हंस मेंं। संजीव से मिलने का बहाना तब तक नहीं मिला था। लेकिन संृजय से आसनसोल में मुलाकात का बहाना मिल गया। कहानियों पर बात होने लगी। फिर आसनसोल आना जाना शुरू हो गया। मकसद सिर्फ कहानियों पर बात। एक दिन सृंजय बिना बताए संजीव भाई के पास के ले गए। मेरी एक कहानी उन दिनों मित्रों के बीच जेर-ए-बहस थी। वो अभी लिखी ही गई थी। छपी नहीं थी। उस कहानी को संजीव भाई को दिखाया। उन्होंन तारीफ की। साथ ही कहा कि इसे हंस में भेज दूं। मैंने दो राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त लेखकों के बीच था। मैंने आग्रह किया कि दोनों में से कोई एक नोट इस कहानी के लिए लिख दें फिर इसे हंस में भेजूं। अकेले कहानी भेजने का मुझे साहस नहीं हो रहा था। दोनों ने सख्ती से इस बात को नकार दिया। मरता क्या न करता। कहानी भेज दी। और इंतेजार करने लगा कि कहानी कब लौट कर आती है।
लेकिन १५ दिनों के बाद ही राजेंद्र यादव का पत्र आ गया। उन्होंने कहानी की तारीफ की थी। औ्रर कहा कि इसे प्रकाशित करेंगे। यह राजेंद्र यादव से मेरा पहला संवाद था। कहानी छपी और कई बड़े लेखकों की चि_ियां मिलीं। आसपास के कई मित्रों ने पूछना शुरू कर दिया कि हंस में छपने के लिए क्या करना पड़ता है। आज भी लोग इसी तरहर के सवाल पूछते हैं। मेरे अपने अनुभव पर शायद ही किसी को यकीन आता है। साहित्य में गुटबंदी और अखाड़ेबाजी की बड़ी-बड़ी बातें सुनते हुए दो दशक तो गुजर ही चुके हैं। लेकिन मेरा ये विश्वास आज तक हंस से खाद पानी पाता रहा है कि कहानी में कुछ भी होगा तो वो छपेगी जरूर। यहां मैं नाम नहीं लेना चाहता। लेकिन बड़े-बड़े नाम हैं जो ये मानने के लिए तैयार नहीं होते। बहरहाल। एक और प्रसंग का जिक्र करना चाहूंगा। मैने एक लंबी कहानी लिखी थी रात के राही। नक्सलवादी पृष्टभूमि पर। तब जितनी समझ थी वैसा लिख दिया। कई बार उसका पाठ हुआ। आसनसोल और धनबाद और बेरमो में। मित्रों को लग रहा था कि कहानी अधूरी है। चार साल लग गए थे उसे लिखते-लिखते। संजीव, सृंजय, सुवास कुमार, बृजमोहन शर्मा, मनमोहन पाठक, शिव कुमार यादव, गोविंद प्रिय, नरेंद्र, कृत्यांश, अजय यतीश और भी मित्र थे। जिन्होंने कहानी सुनी थी। सबकी राय थी कि फिर से लिखूं। मगर मैं बुरी तरह से ऊब गया था। बिना किसी को बताए राजेंद्र यादव को भेज दी। दूसरे ही महीने कहानी के साथ उनका नोट आया कि कहानी में ये ये कमियां हैं। मैंने उनकी बात मानते हुए फिर से उसे लिखा। फिर भेजी। कहानी फिर लौट आई। यादव जी अभी भी संतुष्ट नहीं हो रहे थे। मैंने दोबारा उसे भेजते हुए लिखा था कि एक कहानी पर कहानी कार का भी कोई अधिकार है या नहीं। फिर कहानी छपी। तीन लंबी कहानियों के साथ। हेमंत और नरेन के सथा। यहां यह जिक्र इसलिए कि लोग कहानियों के छपने के मसले पर राजेंद्र यादव पर क्या-क्या आरोप लगाते नहीं थकते। लेकिन मैं अपनी ही कहानियों के माध्यम से जानता हूं कि वे कहानियों को कितनी गंभीरता और गहराई से लेते थे। वो भी एक नए लेखक की कहनी को।
संगमन की एक गोष्ठी में उनसे मिलना हुआ। साल याद नहीं है। शायद ९४-९५ का साल रहा होगा। चित्रकुट में। तीन दिनों तक देश भर के लेखकों का जमावड़ा। चित्रकुट के घाट और कहानियों पर बहस। साथ ही राजेंद्र यादव को अलग-अलग तरीके से घेरने की कोशिश। फलां कहानी में क्या था, जो हंस में छप गई। आप लेखिकाओं को ज्यादा तरजीह देते हैं? कहानकारों को पारिश्रीिमक क्यों नहीं देते। ऐसे न जाने कितने मुद्द। राजेद्र यादव सबका जवाब देते। कभी-कभी खीझते तो कहते- सालों तुम सबको सिर्फ कहानी लिखनी है, मुझे हंस भी चलाना है। अब अखबार में हूं तो अंदाजा होता है कि वे कितने सही थे।
देशभर में न जाने कितनी पत्रिकाएं शुरू होती हैं। बंद हो जाती है। लेकिन हंस निरंतर छपता रहा। कई बार इसके बंद होने की उम्मीद बहुत नजदीक पहुंच गई। मुझे याद है एक बार दिल्ली के दफ्तर में उन्होंने कहा था, मेरे जीते जी हंस कभी बंद नहीं होगा। तब वे दफ्तर में अकेले थे। हम दो-तीन दोस्त थे। शायद उर्दू के खुर्शीद अकरम और मुशर्रफ आलम जौकी भी थे। ठीक से याद नहीं आ रहा है। बहरहाल हमारी बातचीत का प्रसंग इससे अलग था। अचानक हंस को लेकर उन्होंने ऐसा कह दिया था। तब हम सभी को अंदाजा था वे हंस को निकालते ही नहीं थे उसे जीते भी थे। हंस एक नशे की तरह उनके दिमाग पर छाया रहता था। दिल्ली से लौटकर मैंने कुछ सालाना खरीदार बनाए थे। राजेंद्र यादव के साथ बहुत कुछ चला गया है। साहित्य को स्टरडम में बदलने से लेकर दलित और स्त्री विमर्श के अविष्कारक के रूप तक में वे याद किए जाएंगे। मगर एक जो चीज बार-बार खलेगी वो है उनकी बेलौस हंसी। आज सचमुच का हंसना बहुत दुर्लभ होता जा रहा है। ऐसे समय में उनकी हंसी मानो हंसने को परिभाषित करती थी। मेरा अपना तजुर्बा है कि ऐसी हंसी हंसने के लिए आत्मविश्वास, हिम्मत और ईमानदारी चाहिए। अब इंटरनेट के जमाने में ये चीजें तो महंगी होती जा रही है। हर कोई के बूते की बात नहीं इनको गले लगाना। अपनाए रखना। मेरी नजर में राजेंद्र यादव इसलिए वरणीय बने रहेेंगे। मैने एक बार हंस के दफ्तर में ही उनसे इस हंसी का राज पूछा था। तब उन्होंने फिर से एक ठहाका लगाते हुए कहा था, जिंदगी को समझते हो। मैने कहा, इस सवाल के पीछे तो सुकरात और बुद्ध तक भटकते रहे। मगर शायद ही उनको भी जवाब मिला हो। उन्होंने कहा था, यही सबसे बड़ी समस्या है---- यार जिंदगी को समझने की कोशिश मत करो----जितनी हो सके इसकी मां बहन करो। ये मंत्र कम से मेरी समझ में आज तक नहीं आया। नतीजा भी सामने है। हंसने के लिए दिनों का इंतेजार करना पड़ता है। कभी हफ्तों और महीनों भी लग जाते हैं। कभी-कभी याद नहीं आता कि पिछली बार कब खुल कर हंसे थे। बहरहाल अर्चना वर्मा ने ठीक ही लिखा है- जिंदगी की धज्जियां उड़ाने वाला लेखक चला गया। आज इतना ही।