भागे नहीं थे हम

निवेदिता झा 

 पिछली रात देर तक नींद नहीं आयी। यादों ने मेरी पलको से नींद चुरा ली। कमरे में एक म्लान सा अंधेरा है। अंधेरे को टटोलते हुए यादें मेरे सिराहने खड़ी हैं। वह हंस रही है, चिढ़ा रही है। कामरेड भागो नहीं दुनिया को बदलो। मैं बुदबुदा रही हूं… भागे नहीं थे हम। तो फिर क्या हुआ उन सपनों का, जिसके लिए तुमलोग मारे-मारे फिरते थे? उन दिनों यही लगता था कि हम दुनिया को बदल डालेंगे। उन सपनों पर यकीन भी था। अगर यकीन नहीं होता तो क्या हम दुस्साहस कर पाते। यादें तारीक के जंगलों से निकल कर मेरे करीब खड़ी हो गयीं।
मुझे ठीक-ठीक याद नहीं, वह साल कौन सा था। शायद ’83 के आस-पास की घटना होगी। देश की सत्ता इंदिरा गांधी के हाथों में थी। सैद्धांतिक मतभेदों के बावजूद इंदिरा गांधी को मैं निजी तौर पर पसंद करती हूं। दुनिया के इतिहास में ऐसी महिला प्रधानमंत्री कम रही हैं, जिन्होंने एक राजनीतिक हस्ती के रूप में अपनी गहरी छाप छोड़ी हो। इंदिरा गांधी ने हिंदुस्तान पर 16 सालों तक राज किया। 1975 में आपातकाल लागू करने के फैसले ने उनको सत्ता से बाहर कर दिया। 1977 के चुनाव में उन्हें गहरी हार का सामना करना पड़ा, 1980 में भारी बहुमत के साथ उनकी वापसी हुई।
वो गर्मी की एक सुबह थी, जब इंदिरा गांधी ने गांधी मैदान से अपनी विशाल सभा को संबोधित किया था। पटना की धरती का एक विशाल कोना, जिसके सीने में जाने कितने इतिहास दफन हैं। हम सुबह ही पहुंच गये थे। रात के ओस से अभी तक जमीन गीली थी और आसमान साफ। नर्म और करीने से कटे दूब के बीच लाल और पीले अमलतास के गाछ। प्रकृर्ति अपने तमाम कयानात को समेटे बैठी थी। मैं सोच रही थी कि इतिहास सिर्फ राजा महराजाओं का इतिहास नहीं होता, इतिहास उनका भी होता है जो दुनिया को बदलने में यकीन रखते हैं। हमारे टीचर कहते थे इतिहास तब तक समझ में नहीं आएगा, जब तक फलसफा न पढ़ो… हम फलसफा समझने की कोशिश कर रहे थे कि शीरीं ने आवाज दी। कहा – अभी चलो मीटिंग है। अभी? अचानक! क्या हुआ? कल इंदिरा गांधी आ रहीं हैं।
साथियों ने तय किया है कि उन्हें काला झंडा दिखाया जाए। मैं सकते में आ गयी। क्या कह रही हो? दिमाग खराब हुआ है? यह कोई बच्चों का खेल है? यह कब फैसला हुआ? उसने कहा – अभी फैसला नहीं हुआ है। उसी के लिए मीटिंग बुलायी गयी है। चलो…
उन दिनों एआईएसएफ का दफ्तर लंगर टोली में था। दो मंजिले मकान के ऊपर। कमरे में एक टेबुल और सात-आठ कुर्सियां लगी हैं। सामने खुरदरी दीवार पर भगत सिंह का पोस्टर लगा हुआ है। पोस्टर काफी पुराना है। कमरा किसी ठहरे हुए जहाज की तरह है। हम सब बैठ गये। कुछ ही देर बाद हमारे सचिव आ गये। लाल सलाम कॉमरेड। लाल सलाम। सबने एक दूसरे का हाथ उठा कर अभिवादन किया। आप सबों को एक महत्वपूर्ण विषय पर बात करने के लिए बुलाया गया है। यह कहकर उन्होंने हम सब की ओर देखा। जब उन्हें इत्‍मीनान हो गया कि उनकी बातों को सब गंभीरता से सुन रहे हैं, तो उन्‍होंने अपनी बात शुरू की। कहा – इंदिरा गांधी पटना आ रही हैं। मेरी राय है कि हमें उनका विरोध करना चाहिए। पिछले दिनों देश के जो राजनीतिक हालात रहे हैं, आप सब जानते हैं। आप ये भी जानते हैं कि हमारी शिक्षा की क्या स्थिति है। नयी शिक्षा नीति को हमलोगों पर थोपने की कोशिशें हो रही हैं। इतनी बेरोजगारी बढ़ रही है। ये ऐसी शिक्षा नीति है, जो असमानता और गैर बराबरी को बढ़ावा देगा। अगर इसका जोरदार विरोध नहीं हुआ, तो आने वाले दिन इससे भी बुरे होंगे। मेरा प्रस्ताव है कि हम इंदिरा गांधी का पुरजोर विरोध करें।
इस प्रस्ताव पर लगभग चार घंटे तक बहस हुई। सवाल खड़े किये गये कि इंदिरा गांधी के विरोध का आधार क्या है? कॉमरेड ने बहुत साफ-साफ और सधी हुई आवाज में कहा – साथी आज हम नये संकटों से जूझ रहे हैं। हम सब एक बेहतर दुनिया के लिए लड़ रहे हैं। इसलिए यह जानना जरूरी है कि देश की सत्ता आम आदमी के प्रति कितनी जबावदेह है? ऐसे वक्त में मुझे चार्ली चैप्लिन की फिल्म द ग्रेट डिक्टेटर की हमेशा याद आती है। जिस फिल्म के अंतिम संवाद में उन्होंने कहा था – हम एक ऐसी दुनिया के लिए लड़े, जहां विज्ञान और उन्नति हम सब के लिए खुशियां लेकर आये। पर ये उन्नति हमारे लिए नहीं है। वे धोखेबाज हैं। झूठे हैं। अपना वादा पूरा नहीं करते। मैं पूछता हूं एक राजनीतिक पार्टी के तौर पर कांग्रेस ने देश की जनता को क्या दिया? महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, गलत नीतियां, भाई भतीजावाद! क्या पूंजीवाद व सामंतवाद के संरक्षण का काम कांग्रेस नहीं कर रही है?
यह जबरदस्त भाषण था, जिसका असर हुआ। कामरेड की बातों से सब सहमत दिखे। आखिर तय हुआ कि गांधी मैंदान में आयोजित उनकी आमसभा का बहिष्कार किया जाए। गुप्त योजनाएं बनीं। मुझे सुबह छह बजे एआईएसएफ के दफ्तर पहुंचने कहा गया। साथ ही ताकीद की गयी कि किसी को कानों खबर नहीं हो।
छह बजे कॉलेज की बस आती थी। हम मुंह अंधेरे बस स्टॉप पर पहुंच गये। अभी वहां खड़े ही हुए थे कि देखा मां घबरायी सी भागती आ रही है। घबराहट में वह नंगे पांव दौड़ती चली आयी। दरअसल हमारी योजनाओं का पता मेरे छोटे भाई प्रियरंजन को लग गया था। उन दिनों वह नया-नया छात्र संगठन से जुड़ा था। उसने मां को खबर कर दी कि हमलोग आज इंदिरा गांधी का विरोध करेंगे। मैंने किसी तरह मां को विश्‍वास में लिया। उसे यकीन दिलाया कि हम ये सब नहीं करेंगे। मैं समय से आधे धंटे देर से पहुंची। सभी साथी मेरी राह देख रहे थे। इंदिरा गांधी की सभा पटना के गांधी मैदान में थी। गांधी मैदान में सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम थे। यह तय हुआ कि पहले मैदान का जायजा ले लिया जाए। मुझे, शीरीं और नूतन को मंच के पास अगली कतार में जाकर बैठने का जिम्मा मिला था। योजना बनी कि जैसे ही इंदिरा गांधी संबोधित करेंगी हम लड़कियां काला झंडा उन्हें दिखाएंगे। लड़कों को कहा गया कि वे गैस वाले बैलून में काला रिबन लगाएंगे। हमारे झंडा लहराने पर लड़के सारे बैलून को आकाश में छोड़ देंगे। हमारा कोड वर्ड था, भाइयो और बहनों।
मेरे पास उन दिनों एक लाल रंग का बैग था। हमें खूब सारा पर्चा दिया गया। मेरे जिम्मे था इंदिरा गांधी को भरी सभा में काला झंडा दिखलाना। शीरीं के जिम्मे पर्चा बांटना। नूतन को यह कहा गया कि अगर हम दोनों गिरफ्तार हो गये, तो साथियों को इसकी सूचना देना। हम तीनों में नूतन सबसे छोटी थी। मैंने नूतन को देखा। उसके चेहरे पर हल्की घबराहट थी। लंबा फ्रॉक, सर से लटकती दो लंबी चोटी। जिसे वह बार बार सहला रही थी। उसकी कैफियत बयान नहीं की जा सकती। शीरीं बड़ी दिलेर लड़की थी। मैंने उसे कभी घबराते हुए नहीं देखा। हम तीनों अगली कतार में जाकर बैठ गये। यह जगह वीआईपी के लिए थी। हमलोगों को पुलिस ने यह सोच कर नहीं रोका कि शायद हम कांग्रेस नेता के परिवार से हैं। पहली बार मैं इतने नजदीक से इंदिरा गांधी को देख रही थी। एक ऐसा सौंदर्य, जिसमें भव्यता भी है और सादगी भी। सामने मंच पर बहुत बड़ी मेज थी, जिसके इर्द-गिर्द मखमल की, ऊंची पीठ वाली कुर्सियां लगी थीं। एक गहरे लाल मखमल का शाही किस्म का दीवान और एक तरफ काली चमकती हुई लकड़ी की मेज पर कई माइक लगे थे। मैं देखती रह गयी। वो सधे कदमों से माइक तक पहुंची। हाथ हिलाकर अभिवादन किया। इंदिरा गांधी जिंदाबाद के नारों से गांधी मैदान गूंज उठा। पूरी भव्यता समेटे हुए उन्‍होंने सर पर आंचल को संभाला। मैंने अपने अंदर की औरत को जी भर के देखा। ये जो सामने खड़ी है, वह भी तो हम सब जैसी है। उसका रूप इतना भरा-पूरा था कि मैं भूल गयी की यहां क्यों आयी हूं। जब ख्याल आया तो मेरे पांव जम गये। दिल की धड़कन तेज हो गयी। जैसे ही उन्होंने ने कहा भाइयों और बहनों कि मैंने बैग से काला झंडा निकाला और लहरा दिया। इसके पहले की लोग समझ पाते, शीरीं ने पर्चा बांटना शुरू कर दिया। सभा में अफरा-थफरी मच गयी। मैं अपनी पूरी ताकत से चीखी – इंदिरा गांधी वापस जाओ! इंदिरा गांधी मुर्दाबाद! मुझे होश तब आया, जब चारों ओर से महिला पुलिस ने मुझे दबोज लिया। मेरी चोटी पकड़ कर वे खींचते हुए बाहर ले आयीं। दर्द से मेरा चेहरा लाल हो गया। कमर तक फैले हुए मेरे काले-घने बाल मेरी मुसिबत बन गये। मैंने कहा मेरे बाल छोड़ि‍ए। एक हट्टी-कट्टी महिला पुलिस ने मेरे कमर पर जोर से एक डंडा जमाया और कहा साली की हिम्मत देखो। और उसे जितनी मादा गालियां आती थीं, उसने चुन-चुन कर दिया। मैं सोच रही थी सत्ता सत्ता होती है। औरत और मर्द नहीं।
हमें गिरफ्तार कर लिया गया। मुझे सबसे ज्यादा चिंता मां की थी। कल होकर जब अखबारों में खबर आएगी तो वह क्या करेगी। थाने से मेरे पिता के पास फोन गया। पापा के शब्‍द आज भी मेरे कानों में गूंजते हैं। उन्होंने कहा कि आपका कानून जो कहता है कीजिए। मेरी बेटी जानती है कि उसे क्या करना है। उन्होंने पुलिस से कोई पैरवी नहीं की। मुझे छुड़ाने अपूर्व आये थे। पुलिस वाला बांछे खिलाये बैठा था। उसने मेरा लाल रंग का बैग कब्जे में कर लिया था। जिसमें मेरे कुछ नोट्स बुक पड़े हुए थे। उसने कापियां उलट-पुलट कर देखा जैसे सुराग तलाश रहा हो। मेरी दोनों कापियां ले ली और पूछा ये क्या है? अपूर्व ने कहा ये नोट्स बुक हैं। निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतन के जहां चली है रस्म के कोई सर उठा के न चले… फैज की नज्म झिलमिला रहे थे मेरे पन्नों पर। उसने ताकीद के साथ मेरा बैग लौटा दिया।
हम सब के जीवन में ऐसी कई घटनाएं घटीं, जिसने हमारे अनुभवों का विस्तार किया। यादें चाहे जितनी यातनापूर्ण हो, है तो वह हमारे जीवन का हिस्सा। हम बार बार लौटते हैं उन्हीं स्थानों पर, जिसे किसी अनजाने क्षण में हमने छोड़ दिया था। यूनिवर्सिटी खुली और पढ़ाई तेजी से शुरू हो गयी। क्लास में लेक्चर होते थे। लेक्चर के बाद हम और शीरीं ट्यूटोरियल क्लास में साथ होते। मगध महिला से लेकर साइंस कॉलेज तक छात्रों के बीच काम करने का जिम्मा हमलोगों का था। हम सब का ज्यादा समय सड़क पर ही बीतता। कॉलेज में सामने गंगा बहती। चैत के माह में बड़ा भारी मेला लगता। मेले की बड़ी वजह थी काली मंदिर। यह मंदिर कई वजहों से लोकप्रिय था। जब सब मंदिर में कामना करते होते, मैं और शीरीं गंगा के किनारे बैठे रहते। शीरीं पूछती, तुमने बनारस की सुबह और अवध की शाम देखी है? हमारी गंगा में तो दोनों दृश्‍य देख सकते हैं।
शीरीं में साहित्य की गहरी समझ थी। यह उसे विरासत में मिला था। उसके पिता, जिन्हें हम आलम चाचा कहते थे, साहित्य उनके जीवन में रचा-बसा था। उनके घर पर अकसर महफिल जमती। उनको देखकर लगता कि मैं जीवित इतिहास के साथ हूं। जिनकी पूरी जिंदगी कम्युनिस्ट पार्टी के लिए थी। जो अब तक कई बार जेल जा चुके थे। कई बार बिना खाये-पीये लगातार काम करते रहते। अक्सर बहस में वे बताते वर्ग संघर्ष क्या है? पूंजीवाद क्या है? वे इस बात पर यकीन करते कि सर्वहारा की जीत निश्चित होगी। उन दिनों जब लड़कियों का घर से निकलना ही बड़ी बात थी। शीरीं को पूरी आजादी थी। उतनी ही आजादी जितना मनुष्य होने के नाते एक मनुष्य को मिलना चाहिए। शीरीं बुरका नहीं पहनती थी न ही अल्ला पर उसका एतबार था। वाम आंदोलन के प्रति उसकी गहरी आस्था थी।
उन दिनों कम्युनिस्ट पार्टी के होलटाइमर को इतने कम पैसे मिलते थे कि उससे परिवार चलाना और बच्चों की पढ़ाई का खर्चा उठाना मुश्किल था। पार्टी होलटाइमर के बच्चे रूस जाकर पढ़ सकते थे। यह सुविधा वैसे कॉमरेड के परिवार के लिए था, जो होलटाइमर थे। मुझे याद है, मास्को जाने के फैसले के बाद शीरीं बहुत उखड़ी-उखड़ी रहने लगी थी। जाने के एक दिन पहले हम मिले थे। वह पूरे समय रोती रही थी। उसके भीतर भयानक तूफान मचा था। वह जानती थी कि एक दूसरे देश में उसके आंसू देखकर संजीदा और पशेमान होने वाला कोई नहीं होगा। पर वही देश था, जो बाद में शीरीं के दिल में बस गया। मास्को जाने के बाद भी उसकी लंबी-लंबी चिट्ठियां आती। जिसमें देश के राजनीतिक हालात और वाम संगठनों को लेकर गहरी चिंता रहती। मास्को में रहते हुए उसके कुछ अच्छे दोस्त बने, जिसमें सुनंदा उसके दिल के सबसे करीब थी। उसकी हर चिट्ठियों में उसका जिक्र होता। प्यार से लबरेज उसके खत आते…
मेरी प्यारी निवेदिता,
तुम्हें इस बात का अंदाज नहीं होगा कि मैं तुम्हारे खतों का कितनी बेताबी से इंतजार करती हूं। मास्को एक खूबसूरत शहर है। वोल्गा नदी के किनारे। यहां के लोगों का अकीदा है कि अगर वोल्गा नदी में अपनी दोस्ती के नाम पर ताला लगाकर चाभी को फेंक दो, तो पूरी जिंदगी एक दूसरे के साथ गुजरेगी। जाने कितने जोड़ों के रिश्‍ते की चाभी वोल्गा नदी के पास है। कई बार मन में आया मैं भी तुम्हारे नाम की चाभी नदी में प्रवाहित कर दूं, पर लगा यार तुमसे अलग जाएंगे कहां। हमारी दोस्ती का तो खूंटा बंध गया है। तुम्हें पता है मेरे कॉलेज से एक सीधी सड़क जाती है रेडस्कायर तक। जहां लेनिन चिर निद्रा में सोये हुए हैं। मैं उन्हें देखने गयी थी। देखकर मेरे बदन में झुरझुरी सी आने लगी। तुम सोच कर देखो, जिन्हें हम किस्से कहानियों में सुनते थे, उस आदमी को साबूत देखना। वह इतिहास का ऐसा अंश है, जिसे देखकर क्रांति में यकीन होने लगता है। जैसे हर क्रांति में अगली क्रांति का बीज छिपा हो। तुम्हें पता है सर्दियों में यह शहर बर्फीले पेड़ से भर जाता है। सामने वोल्गा बहती रहती है। अक्सर मैं वोल्गा की तारीक लहरों को देखती रहती हूं। रात गहरी हो गयी है। वोल्गा धीमे-धीमे बह रही है। तुम होती तो इस देश की खूबसूरती में खो जाती। मुझे वो गीत याद आ रहा है, जो अक्सर तुम सुनाया करती थी। ‘रात अंधेरी है और बादल गहरे’… तुम ऐसी रात में किस तरह आओगे। बस आज यहीं तक। अब नींद आ रही है।
तुम्हारी शीरीं
मेरे पास अब शीरीं के खत ही रह गये हैं। वर्षों से हम नहीं मिले हैं। या यूं कहूं की उसने अपने अतीत का सारा हिस्सा खुद से अलग कर दिया। पर हम अलग हुए कहां? जिंदगी आगे बढ़ती हुई खाली जगह छोड़ती जाती है, जिसमें गुजरी हुई घटनाएं अपना घर बनाती जाती है। समय के चेहरे पर स्मृति की पुरानी छाया उतर आयी। मेरे गले की आवाज गीली है। होठों पर जो लब्ज हैं, सूखे नहीं। कितना कुछ है यादों में जो मेह की तरह बरस रहा है।
ऐसी ही अवसन्न सूनी दोपहर थी, जब हम सुनंदा से पहली बार मिले। सुनहले पीले रंगों के कपड़े में एक लड़की सालों बाद इस तरह मिलेगी, यह कभी सोचा नहीं था। कभी-कभी अतीत अचानक से आपके सामने खड़ा होता और आप हैरान हो जाते हैं। जैसे कोई पुराना सपना धीरे धीरे कदमों से आपके पास आ गया हो। देखते ही वह पहचान गयी। उसने पूछा तुम पटना वाली निवेदिता हो? मैंने सर हिलाया। वह मेरे गले से लिपट गयी। मैं सुनंदा। शीरीं वाली सुनंदा? वह चिल्लायी – हां। हम घंटों शीरीं के बारे में बातें करते रहे। जंग लगी पुरानी यादों को खुरच-खुरच कर ताजा करते रहे।
उसने पूछा, शीरीं की कोई खबर? नहीं यार। अंतिम बार चाचा के रहते मिले थे। फिर उसका परिवार दिल्ली चला गया। उड़ते उड़ते खबर आयी की उसने शादी कर ली है। हममें से उसने किसी को खबर नहीं किया। मुझे भी नहीं। अच्छा वह बच कर जाएगी कहां? हम उसे तलाश लेंगे। हमारी बातें खत्म नहीं हो रही थीं। जिंदगी के बीते पन्ने पलटते जा रहे थे। स्‍मृति पुराने नोटबुक की तरह है, जिसके सफे पर आंखें अटक जाती है।
सालों बाद जब अपने बीते दिनों को सहेजने बैठी हूं, तो लगता है बहुत कुछ है, जिसे साझा किया जाना चाहिए। वाम आंदोलन ने सिर्फ विचार ही नहीं दिये, बहुत सारे दोस्त भी दिये। वही पूंजी हमारे पास बची हुई है। हम बहस करते, लड़ते-झगड़ते, पर विचारों के लिए हमेशा जगह बनी रहती। दोस्तों की मंडली में शैलेंद्र के पास जंगल के गहरे अनुभव थे। वह आदिवासियों के बीच काम करता था। झारखंड उन दिनों बिहार का ही हिस्सा था। अर्पूव अक्सर राजनीति पर बातें करते। श्रीकांत और विनोद नाटक और इप्टा की बातों में रमे रहते। दिलीप गाने की धुन बनाने में लगा रहता। चंद्रशेखर को राजनीति में जितनी दिलचस्पी थी, उतनी ही रंगकर्म में। उसे लड़कियों की बात करने में भी मजा आता था। शीरीं हमेशा गंभीर बनी रहती। रश्मि के पास इप्टा के अलावा भी ढेर सारे मजेदार किस्से होते। वह उन दिनों पटना इनजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ती थी। हम चटखारे ले-ले कर कॉलेज की प्रेम कथाओं को सुनते और अपने प्रेम की गाथाओं को भी महिमामंडित करते। नासिर जो हम सबों में छोटा था, हमारी बातें रस ले-ले कर सुना करता। अफशां, पूर्वा और नासिर जिसे हम कब्बू कहते हैं, उनकी आपस में खूब छनती थी। नासिर उन लोगों में से है, जिसने अपनी मेहनत से जीवन के रास्ते तय किये। एआईएसएफ में रहते हुए उसने संगठन के लिए जम कर काम किया। यह वही समय था जब नौजवानों का कम्युनिस्ट आंदोलन से मोहभंग होने लगा था। संगठन में गुटबाजी, अराजकता और वैचारिक संकट गहराने लगे थे।
पटना कॉलेज में एआईएसएफ का सम्मेलन था। सम्मेलन में नयी कमिटी का गठन होना था। पदाधिकारियों का चयन होना था। हमलोगों ने जो पैनल तय किया था, उसे सर्वसम्मति से पास करना चाह रहे थे। पर दूसरे ग्रुप को मौजूदा लीडरशिप का पैनल स्वीकार नहीं था। जमकर बहस हुई। हो हंगामा होने लगा। कोई किसी की बात नहीं सुनना चाह रहा था। दोनों ग्रुप में मार-पीट की नौबत आ गयी। दूसरे ग्रुप ने सम्मेलन का बहिष्कार कर दिया। उनके विरोध के बावजूद मौजूदा लीडरशिप ने अपनी सूची पर मुहर लगाया। एआईएसएफ उसके बाद वर्षों तक दो खेमों में बंटा रहा। हालात ये थे कि लोग एक-दूसरे पर निजी स्तर पर वार करने लगे। उसकी प्रतिक्रिया में दूसरा खेमा खड़ा हुआ। अगर आप पार्टी लाईन से सहमत नहीं हैं तो संशोधनवादी या प्रतिक्रियावादी तक करार दिये जाते थे। वैचारिक टकराव के कारण सिरफुटौव्‍वल की नौबत आ जाती। लोग सीआईए के एजेंट तक घोषित किये जाते।
इन्हीं दिनों हम राणा से मिले। राणा बनर्जी से। लंबा सांवला चश्‍मे के भीतर झांकती बड़ी-बड़ी आंखें। पहली बार उसे नुक्कड़ पर गाते सुना – ओ गंगा तुमी बोए छे केनो। उसकी आवाज ऐसी थी जैसे शाम के आसमान पर सुलगते हुए सितारे। आम तौर पर वह जन गीत ही गाता था। वह गाता, हमारे बदन के रोयें सिहर जाते। जैसे सागर के रेतीले साहिलों पर आबसार झर रहे हों। कभी कभी हमलोग उससे फरमाईश करते – यार कुछ दूसरे गीत भी सुनाओ। हमेशा क्रांति ही करते रहते हो। वह हंसता और कहता लो सुनो – पागला हवा पागोल दीने पागल आमार मॉन नेचे उठे… हमारा मन भी नाच उठता।
इप्टा अगर हमारा काबा था, तो एआईएसएफ काशी। हमारा एक पांव इप्टा में तो एक पांव एआईएसएफ में। उन्हीं दिनों इप्टा का सम्मेलन हैदराबाद में तय हुआ। पटना से हम सब का जाना तय हुआ। जाने के लिए पैसे जुटाये गये। चंदा मांगने का सबसे कारगर तरीका था कि रंगकर्मियों की टोली गाते-बजाते सड़कों पर निकल जाती। ढोल, हारमोनियम, खंजरी और कुछ सुर वाले गायकों के साथ हम जैसे कुछ बेसुरे भी साथ देते। दिन भर सड़कों पर चंदा मांगते और शाम को नाटक का रिहर्सल। कुछ लोग थे जो दिल खोलकर चंदा देते। उसमें डॉ एके सेन, ब्रजकिशोर प्रसाद, हरि अनुग्रह नारायण और मेरे पिता भी शामिल थे। जबकि पापा के पास हमेशा पैसों की कमी रहती। कई बार घर चलाने के लिए पैसे नहीं होते, पर संगठन के लिए हमेशा उनका द्वार खुला रहता। इप्टा के सम्मेलन में हैरदराबाद के लिए पटना से बड़ी टीम का जाना तय हुआ, जिसमें लड़कियों की अच्छी संख्या थी। तनवीर अख्तर इप्टा के सचिव थे। उनकी मेहनत और लगन ने इप्टा को पुनर्जीवित किया था। संगठन में अनुशासन को काफी महत्व दिया जाता था। पर अनुशासन का सबसे बड़ा मसला लड़के और लड़कियों को लेकर ही रहता था। यह स्‍वाभाविक था कि जहां आग होगी, वहां धुआ होगा ही। इस कड़े अनुशासन के बावजूद प्रेम हिलोरें मारता। अपने लिए रास्ता खोज निकालता। जाने कितने दिल जुड़े और टूटे। प्रेम की नाकामियों और प्रेम की गाड़ी चल निकलने के हजारों किस्से हैं। हमारी गाड़ी प्लेटर्फाम पर लग गयी थी। उन दिनों लड़कियों के लिए विशेष कूपा हुआ करता था, जिसे लेडिज कूपा कहते थे। हमलोगों के लिए वही कूपा रिजर्व कराया गया था। पुष्पा दी हमारी टीम की लीडर थीं। इप्टा से लंबे समय से जुड़ी हुई थीं। इप्टा की गायन मंडली की सशक्‍त आवाज। उनको देखकर मशहूर अदाकारा बैजेंती माला की याद आती थी। उन्हें इस बात का एहसास था। उनको लेकर हम सब के मन में उत्सुकता बनी रहती। पुष्पा दी बिहार के जाने माने लॉयर ब्रजकिशोर प्रसाद की बेटी हैं। ब्रजकिशोर प्रसाद कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़े थे। उनका पूरा परिवार कम्युनिस्ट आंदोलन के लिए समर्पित था। उनकी बेटियां इप्टा में सक्रिय थीं। पुष्पा दी के निजी जीवन को लेकर लोगों की दिलचस्पी बनी रहती थी। हमारे समाज में महिलाएं अगर जिंदगी का रास्ता अकेले तय कर रही हो, तो उस पर सबकी निगाह रहती है। हमलोगों को पता था कि पुष्पा दी की शादी हुई थी, जो चल नहीं पायी और वे अलग हो गये। ट्रेन की लंबी यात्रा से एक फायदा हुआ कि हम एक-दूसरे के ज्यादा करीब आये। हमने जीवन के उन अनुभवों को साझा किया, जिसे शायद आम दिनों में बांटना संभव नहीं था। पुष्पा दी से उसी यात्रा में अतरंग होने का मौका मिला। उन्होंने अपने मन को खोल कर रख दिया। पहली बार हम जान पाये कि हमेशा खुश दिखने वाली पुष्पा दी अपने निजी जीवन में कितनी अकेली हैं।
हम लड़कियां अपने-अपने किस्से में मशगूल थे कि मुझे लड़कों ने आवाज दी। श्रीकांत, विनोद, अर्पूवानंद, परवेज अख्तर, जावेद समेत सभी बगल के डिब्बे में मजमा लगाये बैठे थे। गीत-संगीत का दौर जारी था। ये भी ज्यादती थी कि साथ सफर कर रहे हैं, पर अलग अलग। उनलोगों का भी मन हम सब के बिना नहीं लग रहा था। हम वहां पहुंचे ही थे कि तनवीर अख्तर आ गये। उन दिनों इप्टा के सचिव थे। उन्होंने मुझे देखते ही कहा, आप यहां क्या कर रहीं हैं? कुछ नहीं इनलोगों से गप कर रहे हैं। नहीं आप उठिए, जाइए यहां से। यहां आने की आपलोगों को इजाजत नहीं है। मुझे धक्का लगा। आंखें भर आयीं। पर किसी साथी में साहस नहीं था कि वे तनु भैया का विरोध कर पाते। मैं आंखें पोंछते हुए वापस लेडीज कूपे में चली गयी। हम सब लड़कियों ने तय किया कि अब हम इस कूपे से बाहर ही नहीं निकलेंगे।
बराबरी, समानता और वैचारिक आजादी के पक्ष में काम करने वाले संगठनों की पहली चुनौती थी, अपने भीतर बदलाव लाना। वे खुद अभी इसके लिए तैयार नहीं थे। स्त्री-पुरुषों के संबंधों को लेकर हमारा नजरिया तंग था। साथियों के भीतर सामंतवाद के अवशेष बचे हुए थे। सारे रास्ते लड़कियां खुद में मशगूल रहीं। लड़कों से परदेदारी की। तय किया कि हमलोग उनका बहिष्कार जारी रखेंगे। गाड़ी रुकी। स्‍टेशन पर कुछ साथी तख्ती हाथ में लिये स्वागत के लिए खड़े थे। हम एक कोने में खड़े हो गये। श्रीकांत पास आये। उसने कहा तुम नाराज क्यों हो? हमलोगों ने तो कुछ नहीं कहा। यूं भी यह नाराजगी ज्यादा देर टिकने वाली नहीं थी। दोस्तों के बिना कोई महफिल सजती कहां है? देश भर से इप्टा के कलाकार आये थे। पहली बार मैंने वहीं भूपेन हजारिका को देखा था। श्‍याम बेनेगल ने सम्मेलन का उद्धाटन किया था। उस समय के मशहूर अभिनेता फारुख शेख भी सम्मेलन में आये थे। वह इस कदर खूबसूरत थे कि हम सब देखते ही रह गये। कमबख्त क्‍या कयामत आंखें थीं और काले खूबसूरत बाल। रंग इतना गोरा की अगर छू दो तो मैले हो जाएं। उनको देख कर हम लड़कियों का दिल धड़कने लगा। हम फारुख की ओर बढ़े। हमलोग आपसे मिलना चाहते हैं! क्यों नहीं! कहां से हैं आपलोग? जी बिहार इप्टा से। ओह! अच्छी बात है आप लोगों से मिलकर खुशी हुई। फिर वे मंच पर जाकर बैठ गये। पूरा मैदान रौशनियों से नहाया हुआ था। लोग मैदान में अपनी जगह ले रहे थे। मंच पर अदाकार, उर्दू के शायर और गायन मंडली की टीम थी। पहला गाना बिहार इप्टा का था। पुष्पा दी ने कमान संभाली।
हम सब हिंदी हैं अपनी मंजिल एक है। ओ हो हो एक है…
दरअसल हमलोगों को स्टेज पर पहुंचने में देर हुई। हुआ यूं कि हम जहां ठहरे थे, वहां से लगभग चार किलोमीटर दूर एक खुले मैदान में मंच बनाया गया था। सभी लड़कियों को एक ऑटो पर बिठा दिया गया। ऑटो चालक को रास्ता बता दिया गया। हमलोग मस्ती में चले जा रहे थे। हैदराबाद की लंबी सड़कों का आनंद लेते हुए। काफी देर तक जब हमलोग चलते रहे, तब चिंता हुई कि अब तक वह जगह क्यों नहीं आयी है। हम लोगों ने ऑटो चालक से पूछना शुरू किया तो वह कुछ बता नहीं पा रहा था। वह न तो अंग्रजी समझता था न हिंदी। तब तक काफी अंधेरा हो चुका था। लड़कियां घबराने लगीं। रास्ता अंधेरा था और सड़क पर खामोशी पसरी हुई थी। हमलोग जितना पूछते, वह ऑटो चालक अपनी स्पीड बढ़ा देता। न वह हमारी भाषा समझ रहा था, न हम उसे कुछ समझा पा रहे थे। सभी लड़कियों के चेहरे के रंग उतर गये। कुछ तो घबराहट के मारे रोने लगीं। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें। दूर दूर तक कोई बस्‍ती नहीं थी। सुनसान सड़क पर सिर्फ ऑटो की आवाज। मैंने किसी तरह उसे रोका और इशारे में समझाया कि वह गलत जा रहा है। पता नहीं क्या समझा, उसने टैंपो दूसरी दिशा की ओर मोड़ा। काफी जद्दोजहद के बाद हम कार्यक्रम स्थल पर पहुंचे। हमलोग पहुंचे तो वहां मातम छाया हुआ था। हमारे साथी कह रहे थे कि जब तक हमारी लड़कियां वापस नहीं आतीं, हम कोई कार्यक्रम नहीं होने देंगे। नौबत पुलिस में रिपोर्ट लिखवाने की आ गयी थी। हम सबको देखकर सबके चेहरे खिल गये। पर ऑटो वाले की शामत आ गयी। लड़कों ने उसे पीटना शुरू किया। किसी तरह उसको वहां से हटाया गया। बाद में पता चला कि उसने समझा ही नहीं कि हमें कहां जाना है।
जिंदगी के अनुभव सिर्फ रसीले नहीं होते। दुख व सुख के अनुभवों से ही जीवन पूर्ण होता है। इसकी खूबसूरती उसी में है। मैं वहां से दो चीजें लेकर आयी। हैदराबाद का मोती। दूसरा श्‍याम बेनगल के हाथों से लिखा एक कागज का पुर्जा। जिस पर उन्होंने लिखा – प्यारी निवेदिता के लिए।
ये भूली हुई यादें हैं, जिन पर वक्त की गर्द की गहरी पर्त जम गयी थी, अब उन्हें एक एक कर के याद कर रही हूं। कहानियां अलग-अलग हैं, मगर दिल में धंसा तीर अभी तक निकला नहीं है। रात तारों भरी है, जिसके बीच चांद पसरा हुआ है।


 

( कई फेलोशिप और लाडली मीडिया अवार्ड से सम्मानित निवेदिता झा सामाजिक सरोकार वाली पत्रकार रही हैं। उनसे niveditashakeel@gmail.comपर संपर्क किया जा सकता है)