जेब अख्तर
तहलका प्रकरण कई ऐसे पत्रकारों के लिए एक धक्के तरह है जो पत्रकारिता में अब भी प्रोफेशन नहीं पैशन के तहत टिके हुए हैं। और उन युवा पत्रकारों के लिए बहुत गहरे पीड़ा की तरह है जो तहलका जैसे संस्थान में काम करने का सपना संजोए पत्रकारिता में आ रहे हैं। यह एक तरह से एक उम्मीद का टूटना है। गोवा के होटल की लिफ्ट में जो कुछ भी हुआ, फिर इसके बाद तरुण तेजपाल ने जिस तरह से उस महिला पत्रकार से माफी मांगी और खुद को गुनाहगार मानते हुए अपने पद से इस्तीफा दिया- यहां तक तरुण के साथ एक खटास के साथ ही सही, हमदर्दी बन रही थी। वह हमदर्दी भी इसलिए बन रही थी कि शायद इसी तरह से वैल्यू वाली पत्रकारिता का एक स्तंभ बचा रहे। देश में ऐसे स्तंभ अब उंगलियों पर गिने जाने लायक ही बचे हैं। इसलिए तहलका का बचे रहना भी उतना ही जरूरी है जितना कि तरुण तेजपाल को इसकी सजा मिलना। जिसके लिए शुरू में वे तैयार दिखे। लेकिन अब इसमें वकील आ गए हैं। जिससे तरुण की खुद को सजा देने की नीयत पर शक होने लगा है। आम आदमी की पहुंच से दूर रहने वाले ये महंगे वकील अब हर वो कानूनी हथकंडा अपनाएंगे जो तरुण को बचाने में मददगार होगा। यानी काली चादर पर एक और काली चादर। बेहतर यही होता कि तरुण अपने-आपको कानून के हवाले करते और उसे अपने तरीके से काम करने देते। सीधे शब्दों में ये तरुण का अपनी स्वीकारोक्ति से पीछे हटना है। अरुधती राय ने इस मामले में सही कहा है कि ये एक और बलात्कार है।
और ये गोवा में हुई गुनाह से अधिक बड़ा गुनाह है। जिसकी भरपाई शायद जनसरोकार की पत्रकारिता को चुकानी पड़ेगी। दूसरे, तरुण के इस कदम से उन सांप्रदायिक ताकतों को भी उंगली उठाने का मौका मिल गया है जिसके खिलाफ तहलका ने मुहिम चला रखी है। ये ताकतें अब इस पूरे मामले को सियासत की कीचड़ में लपेट कर सियासी रंग देंगी। जिसका खमियाजा भी अंतत: तरुण तेजपाल या तहलका से अधिक उस उम्मीद को चुकाना पड़ेगा जो पत्रकारिता को हथियार की तरह इस्तेमाल करना चाहते हैं।
खबर ये भी है कि गोवा में तहलका के जिस थिंक फेस्ट के दौरान ये घटना घटी, उस फेस्ट का प्रायोजक वे कोयला कंपंनियां है जो छत्तीसगढ़ और अन्य राज्यों में आदिवासियों का दमन कर रही हैं। विकास के नाम पर मरदों को गोली मारी जा रही है और औरतों का बलात्कार किया जा रहा है। दूसरे शब्दों में जिस फेस्ट के दौरान यह बलात्कार जैसी घटना घटी वह बलात्कारियों द्वारा ही प्रायोजित था। यानी अवसान की यह यात्रा बहुत पहले से शुरू हो चुकी थी। उफ् सच्चाई कितनी विद्रूप हो सकती है, इसे तहलका के इस प्रकरण से समझा जा सकता है। अगर ये सही है तो तरुण तेजपाल की जिम्मेदारी इस घटना के बाद और बढ़ जाती है। लेकिन लगता है अब वे भाग रहे हैं। जुर्म कबूल भी कर रहे हैं तो एक शर्त के साथ। नाप-तौल के साथ। कि देखो मैने इतनी माफी मांग ली, अगर तुम माफी नहीं देती हो तो मेरे पास माफी लेने के ये-ये तरीके हैं। तुम जाओगी कहां। अंतत: एक पौरुष, पद और पावर का दंभ। बहरहाल कामना यही की जानी चाहिए कि दूध का दूध और पानी का पानी जल्दी हो। ताकि इससे होने वाला नुकसान, जो तय हो चुका है- वो कम से कम हो।
तहलका प्रकरण कई ऐसे पत्रकारों के लिए एक धक्के तरह है जो पत्रकारिता में अब भी प्रोफेशन नहीं पैशन के तहत टिके हुए हैं। और उन युवा पत्रकारों के लिए बहुत गहरे पीड़ा की तरह है जो तहलका जैसे संस्थान में काम करने का सपना संजोए पत्रकारिता में आ रहे हैं। यह एक तरह से एक उम्मीद का टूटना है। गोवा के होटल की लिफ्ट में जो कुछ भी हुआ, फिर इसके बाद तरुण तेजपाल ने जिस तरह से उस महिला पत्रकार से माफी मांगी और खुद को गुनाहगार मानते हुए अपने पद से इस्तीफा दिया- यहां तक तरुण के साथ एक खटास के साथ ही सही, हमदर्दी बन रही थी। वह हमदर्दी भी इसलिए बन रही थी कि शायद इसी तरह से वैल्यू वाली पत्रकारिता का एक स्तंभ बचा रहे। देश में ऐसे स्तंभ अब उंगलियों पर गिने जाने लायक ही बचे हैं। इसलिए तहलका का बचे रहना भी उतना ही जरूरी है जितना कि तरुण तेजपाल को इसकी सजा मिलना। जिसके लिए शुरू में वे तैयार दिखे। लेकिन अब इसमें वकील आ गए हैं। जिससे तरुण की खुद को सजा देने की नीयत पर शक होने लगा है। आम आदमी की पहुंच से दूर रहने वाले ये महंगे वकील अब हर वो कानूनी हथकंडा अपनाएंगे जो तरुण को बचाने में मददगार होगा। यानी काली चादर पर एक और काली चादर। बेहतर यही होता कि तरुण अपने-आपको कानून के हवाले करते और उसे अपने तरीके से काम करने देते। सीधे शब्दों में ये तरुण का अपनी स्वीकारोक्ति से पीछे हटना है। अरुधती राय ने इस मामले में सही कहा है कि ये एक और बलात्कार है।
और ये गोवा में हुई गुनाह से अधिक बड़ा गुनाह है। जिसकी भरपाई शायद जनसरोकार की पत्रकारिता को चुकानी पड़ेगी। दूसरे, तरुण के इस कदम से उन सांप्रदायिक ताकतों को भी उंगली उठाने का मौका मिल गया है जिसके खिलाफ तहलका ने मुहिम चला रखी है। ये ताकतें अब इस पूरे मामले को सियासत की कीचड़ में लपेट कर सियासी रंग देंगी। जिसका खमियाजा भी अंतत: तरुण तेजपाल या तहलका से अधिक उस उम्मीद को चुकाना पड़ेगा जो पत्रकारिता को हथियार की तरह इस्तेमाल करना चाहते हैं।
खबर ये भी है कि गोवा में तहलका के जिस थिंक फेस्ट के दौरान ये घटना घटी, उस फेस्ट का प्रायोजक वे कोयला कंपंनियां है जो छत्तीसगढ़ और अन्य राज्यों में आदिवासियों का दमन कर रही हैं। विकास के नाम पर मरदों को गोली मारी जा रही है और औरतों का बलात्कार किया जा रहा है। दूसरे शब्दों में जिस फेस्ट के दौरान यह बलात्कार जैसी घटना घटी वह बलात्कारियों द्वारा ही प्रायोजित था। यानी अवसान की यह यात्रा बहुत पहले से शुरू हो चुकी थी। उफ् सच्चाई कितनी विद्रूप हो सकती है, इसे तहलका के इस प्रकरण से समझा जा सकता है। अगर ये सही है तो तरुण तेजपाल की जिम्मेदारी इस घटना के बाद और बढ़ जाती है। लेकिन लगता है अब वे भाग रहे हैं। जुर्म कबूल भी कर रहे हैं तो एक शर्त के साथ। नाप-तौल के साथ। कि देखो मैने इतनी माफी मांग ली, अगर तुम माफी नहीं देती हो तो मेरे पास माफी लेने के ये-ये तरीके हैं। तुम जाओगी कहां। अंतत: एक पौरुष, पद और पावर का दंभ। बहरहाल कामना यही की जानी चाहिए कि दूध का दूध और पानी का पानी जल्दी हो। ताकि इससे होने वाला नुकसान, जो तय हो चुका है- वो कम से कम हो।