निदा फाजली ... हमारे समय के कबीर का जाना

पिछले साल, इसी फरवरी महीने की आठ तारीख को निदा फाजली हमें छोड़कर चले गए। उनकी बरसी पर, उन पर लिखा ये याद आया। उनसे बेहद छोटी मगर बेहद आत्मीय मुलाकात, बहुद अदब के साथ
 


निदा फाजली से मेरी दो मुलाकातें हैं। एक मुलाकात इतनी छोटी है कि उसे याद करना बेमानी होगा। जो बाकी है उसे भी मुलाकात कहना बहुत वाजिब नहीं होगा। तब मेरी उम्र वहीं थी जब हर जवान होता मुसलिम किशोर शायर होता है। हिंदी माध्यम स्कूल और सोहबत के बावजूद उर्दू की चाश्नी उन दिनों नया-नया असर डाल रही थी। उपर से मरहूम वालिद साहब का शायर होना और शहर में एक स्थापित उर्दू शायर (खुर्शीद तलब)  का प्रभाव,  बंदा कहां तक अदब से परहेज और गुस्ताखी कर सकता था। लफ्जों की आड़ी-तिरछी लकीरें खींची जाने लगीं। गजले पर गजलें। बाद में पता चला कि गजल कहना कितनी कठिन विधा है। और जब पता चला तो ऐसा पता चला कि शायरी को छोड़कर अफसाने को गले लगा दिया। जिसके साथ आज तक निबाह हो रहा है।
निदा फाजली से मुलाकात शायरी और अफसाने के बीच पशोपेश के इसी आलम में हुई थी। शायरी का खुमार उतरा ही चाहता था। वे गिरिडीह (झारखंड) एक मुशायरे में गाहे-ब-गाहे आते थे। शहर के हम चार-पांच लोग हर बार उनको सुनने पहुंचते। और कहिए उनकी शायरी कम और उनका अंदाज-ए-सुखन, उनका वाल्हाना मोहब्बत, एक बेहद जुनियर से भी अधिक खींचता था। उन दिनों उनकी एक मशहूर गजल का ये शेर काफी चर्चे में था-
यहां कोई किसी को रास्ता नहीं देता
मुझे गिराकर चलना है तो चलो 
मुझे उस जमाने में पूरी गजल याद थी। ये शेर तो खास तौर पर। क्योंकि इसमें जिंदगी की जद्दोजहद झांकती थी। मैंने दौर (मुशायरे के बाद का खास दौर)  के बीच में अपनी डायरी बढ़ाई और उनसे ये शेर लिखने की गुजारिश की। उन्होंने गिलास एक तरफ रखा और लगभग झूमते हुए कहा, लिख देता हूं, लेकिन है बड़ा मुश्किल दोस्त। फिर बड़ी बेबाकी से पूछा, और शुरूआत हुई कि नहीं---
मैंने झिझकते हुए कहा, जी अभी नहीं
उन्होंने मेरे जवाब पर लाहौल पढ़ते हुए कहा, अरे बिस्मिल्लाह के लिए यही तो खास उम्र है। फिर दुनियादारी सीख जाओगो और तरह-तरह के लॉजिक देने लगोगे। और खुदा की इस खास नेमत से महरूम हो जाओगे। फिर धीरे से कान में कहा, और शायरी करनी है तो ----
मुझे कशमकश में देखकर उन्होंने खुद से मेरे लिए गिलास तैयार किया और मुझे थमा दिया। उस वक्त वहां मुनव्वर राणा, वसीम बरेलवी, राहत इंदौरी, सागर आजमी के साथ और कई बड़े शायर मौजूद थे। बाकियों का नाम याद नहीं आ रहा है। एक शायरा भी थीं, जिसे लुभाने की पुरजोर कोशिशें चल रही थीं। बहरहाल निदा साहब मुझसे छूटे और और उस कोने की तरफ मुड़ गए जिस तरफ जदीद शायरी (उन दिनों की शायरी की नई धारा)  पर बहस की जा रही थी।  निदा साहब की मौजूदगी और सलीके से उनके बात कहने के ढंग के सभी कायल थे। मैंने इस्मत चुगतई के बारे में पढ़ा है कि जब वे सियासत, फिल्म या किसी और मौजूं पर बोलती थीं, तो वहां मौजूद मर्दों को कई दिनों तक अपनी मर्दानगी पर शक होता रहता था। जदीद शायरी पर निदा साहब ने बोलना शुरू किया तो वहां मौजूद कई लोगों पर,  मेरे ख्याल से यही कैफियत तारी होने लगी थी। इस्मत चुगतई की महफिल में मर्दानगी खतरे में होती थी, यहां शायर और उनकी शायरी ही खतरे में पड़ रही थी। भला हो शराब के नशे कि सब गुस्ताखियां उसी में घुल-घुल कर बही जा रही थीं,  नहीं तो ऐसी महफिलों में अखाड़ा जमते भी देर नहीं लगती। ये मेरा अपना जाती तजुर्बा है।
बहरहाल भोर हो रहा था, और हमारी बस का वक्त भी। निदा साहब की मोहब्बत ही थी कि उनके पास से उठने का जी नहीं होता था। वो छोटे से छोटे से अदीब को ये अहसास करा देते थे,  उसकी भी कोई हैसियत और अहमीयत है। उर्दू शायरी के उस्तादों की अकड़ और ठसक को वे हराम समझते थे। बहुत देर के बाद उन्होंने मेरी भरी पड़ी गिलास को देखा और एक शेर कहा, 
देख कर शर्म आई खंजर की उरयानी मुझे
मैंने अपना जामा-ए-हश्ती हवाले कर दिया
ये शेर किसी और का है। लेकिन उस घड़ी के लिए मौजूं था। ये कहते हुए निदा साहब ने मेरा गिलास भी उठा लिया। इसके बाद पर्चों में उनको पढ़ता रहा औऱ् टीवी पर सुनता रहा। निदा साहब ने जिस बेबाकी से इस्लाम के कूपमंडूकों की ऐसी तैसी की है, वैसी बेबाकी शायद ही कहीं मिलती है। किसी ठीक ही कहा है कि वे हमारे समय के कबीर थे। और कबीर हमारे समाज में आज भी वर्जित हैं। निदा साहब में कबीर बनने की हिम्मत थी। शायद यही वजह है कि उर्दू अदब और शायरी में उनको वो मुकाम नहीं मिला जो मिलना चाहिए था। बनी बनाई लीक पर चलने वाले शायरों के लिए वे चैलेंज और चिढ की तरह थे। मुझे जब भी कहीं मौका मिलता है मैं उनका ये कलाम पढ़कर खूब वाहवाही लूटता हूं-

घर से मस्जिद है  बहुत दूर, चलो यूं कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाए
या फिर उनका ये दोहा-

बेटा रोया परदेस में भींगा मां का प्यार
दुख ने दुख से बात की बिन चिट्‌ठी, बिन तार

... और उनकी कम मशहूर गजल


देखा हुआ सा कुछ है तो सोचा हुआ सा कुछ
हर वक़्त मेरे साथ है उलझा हुआ सा कुछ

होता है यूँ भी रास्ता खुलता नहीं कहीं
जंगल-सा फैल जाता है खोया हुआ सा कुछ

साहिल की गिली रेत पर बच्चों के खेल-सा
हर लम्हा मुझ में बनता बिखरता हुआ सा कुछ

फ़ुर्सत ने आज घर को सजाया कुछ इस तरह
हर शय से मुस्कुराता है रोता हुआ सा कुछ

धुँधली सी एक याद किसी क़ब्र का दिया
और मेरे आस-पास चमकता हुआ सा कुछ